शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

नव वर्ष की शुभकामनाये


सभी ब्लागरों , पाठकों,  लेखकों  व् नागरिकों,  को  सहृदय, नव आगंतुक वर्ष के लिए,  हार्दिक  शुभ कामनाएं ,

.आशा करता हूँ कि सभी के लिए नव वर्ष में अपार हर्ष और खुशियाँ  आयें  आपका लेखन दिनोदिन मर्म और जीवंत हो उठे जिससे समाज और देश का  गौरव बढ़ सके .
 इस सन्देश को पढने तक संभवतः नव वर्ष आपकी दहलीज पार करचुका होगा !

शनिवार, 25 दिसंबर 2010

शिक्षा सभी के लिए , सभी के द्वारा ,सामान्य रूप से पोषित हो

भारत सरकार ने बुनियादी रूप से शिक्षा के लिए कानून तो बना लिया किन्तु इस कानून का हस्र इस तरह भयावह हो जायेगा शायद कल्पना  नहीं की होगी . आजकल दिल्ली  के स्कूलों में  भारी गहमागहमी बनी हुई है दिल्ली की सरकार  ने प्रवेश की छूट तो उन्हें  दे दी किन्तु मनमानी के लिए पूरी लगाम हाथ में रखी हुई है या यों कहे की मिल बाँट की बंदर बाँट होने जा रही  है. सभी समाचार पत्र इन दिनों  नर्सरी प्रवेश की सुर्खियाँ बनाने में लगे हुये हैं.

इन नौ निहालों को स्कूल भेजना , पढाना,  टेढ़ी खीर होती जा रही है कभी तो जमाना था लोगो को पढ़ने से लाभ नहीं दिखाई देता  था  और अब लोगो की जरूरत बनी , जागरूकता के कारण , तो शिक्षा दो कदम दूर होती जा रही  है. माध्यम वर्गीय लोगों के लिए तो  आज शिक्षा  दूभर बन गयी है  शिक्षा एक अभिशाप्प की तरह पनप रही है  जब कि कभी  अशिक्षा अभिशाप का पर्याय  हुआ करती थी .
प्राइवेट स्कूलों में फ़ीस की मात्रा इतनी  अधिक है  कि हर व्यक्ति इसे  वहन करने में  समर्थ नहीं है सरकारी स्कूलों  की हालत बदतर बनी हुई है  यहाँ तो माद्यम  और धनाड्य वर्ग के बीच एक बड़ी लाइन खींचती  हुई  दृष्टिगोचर होती है  पूंजीवादी वर्ग अपने हितों के आगे सभी का शोषण इस तरह कर देना चाहता है कि पुनः कोई भी शिक्षा के लिए किसी स्कूल को खोजना बंद कर दे . सरकारें   इन लोगों कि बंधक बनती जा रही हैं.  और ये स्कूल सरकार  को ब्लाक्मैल करने पर तुले हुए है.
प्रवेश की इतनी जटिल प्रक्रिया  बन गयी है  कि विश्वविद्यालयों व् M B A 's की CAT ,MAT  XAT आदि  प्रवेश परीक्षाएं भी कमतर लग रही हैं  कितने  ही वर्ग उसमे बने है एक नया वर्ग पैदा हुआ है अलुमिनी . ना जाने इन सब के पीछे लूट का मकसद है या फिर  कानून को विफल करने की  सफल कोशिश . नर्सरी  की फीस  प्रति वर्ष ३००००/ से लेकर १०००००/ और इससे भी ज्यादा हो सकती है
गरीब के बच्चों के कोटे में प्रवेश पर समर्थ व्यक्ति से फ़ीस वसूलने  का फार्मूला  भी गजब ढा रहा है.  गरीब की परिभाषा भी परिभाषित  नहीं है   अर्थात गरीब के नाम पर अमीर के बच्चों को ही  प्रवेश की चाल स्पष्ट दिखाई दे रही है, पोईन्ट्स, और लाटरी के शिष्टम, दोनों में अंतर  किया जा रहा है हर स्कूल अपने मन मफिग पॉइंट्स  या लाटरी शिष्टम अपना  रहा है हित स्कूल का ही साधा  जा रहा है
इतनी जटिलताये  उन बच्चों के लिए जिन्होंने अभी पूरी तरह से आंख भी ना खोली है जिनके प्रकृति के साथ अठखेलियाँ करने के दिन है क्यों उन्ही के लिए इस तरह की जटिलताएं पनप रही है. समाज और सरकार,इन बच्चों के जीवन से खिलवाड़ करके,  .   क्या प्राप्त करना चाहती है ?
इतनी जटिलताओं में घिरने के बजाय तो इन्हें सीधी MBA प्रवेश की पात्रता क्यों ना दी जाय  ताकि बड़े होने पर पुनः M B A के लिए पात्रता ना हाशिल करनी पढ़े ?  शिक्षा मूल अधिकार है उसे हर व्यक्ति और बच्चे के लिए उपलब्ध होना  चाहिए  उसके दरवाजे तक .  धन की कीमत पर शिक्षा  की दुकानदारी ने सभी मूल्यों को चौपट कर दिया है. समाज की विकृतियाँ , बेरोजगारी . इस अवमूल्यन की प्रमुख देन हैं .  शिक्षा सभी के लिए , सभी के द्वारा ,सामान्य रूप से पोषित हो .  तभी समाज का समुचित विकास संभव है 

शनिवार, 18 दिसंबर 2010

बुन्खाल में काली की पूजा और पशु संहार

          सर्व मंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके , शरण्यं त्रयम्बके गौरी नारायणी नमोस्तुते .
उत्तराखंड देव भूमि कहलाती है  तमाम देवी देवताओं का निवास स्थल है उत्तराखंड . मान्यताएं  और आस्था का अनुपमन संगम .
प्राकृतिक सुन्दरता और वैभव से सुसज्जित .  किन्तु इसके साथ हैं कुछ अभिशप्त करने वाली आस्थाएं  जैसे विभिन्न  देवी देवताओं को प्रसन्न करने के लिए की गयी पशु बलि मनोतियां .
पशु बलि वंहा पर अक्षर सभी देवी देवताओं को चढ़ाई जाती है किन्तु  माँ काली  के सम्मुख तो असंख्य पशुओं को एक साथ निर्मम संहार होता है  माँ काली का प्रभाव तो सबसे अधिक  पशिचिमी बंगाल में  था  परन्तु आज वहां  पर बलि प्रथा समाप्त हो चुकी है.  प्रतीकात्मक बलि तो आज भी  दी जाती है पशु हत्या पर रोक लग चुकी है. . उत्तराखंड ने  अभी भी इस प्रथा को कायम रखा   है.
गढ़वाल क्षेत्र में,   बुन्खाल  में  काली माँ  का  थाल है  यहाँ पर हर वर्ष मार्गशीर्ष  के महीने में  भव्य मेला लगता है   दूर दूर  तक  के लोग यहं मेला देखने,  अपनी मनोती मनाने और पूर्ण हुई   मनोती की पूर्णाहुति देने पहुँचते  हैं .
घटना कुछ सत्य बातों पर आधारित है,  उनिस्व्वी शताब्दी के  उतरार्ध में  किसी  समय कुछ  गाँव के बच्चे   इन खेतों के पास गाय बछियों  के साथ खेलते रहे  किसी विवाद या खेल के कारण  इन बच्चों ने किसी  लड़की  को  गढ़े में   गाढ़ दिया  और सारे बच्चे घर चले गए किन्तु उस लड़की को बाहर निकालना भूल गए फलस्वरूप उसकी म्रत्यु  हो गयी  जब घर में खोज की गयी    तो उसका कही पता नहीं चला . कहते है उस  लड़की ने अपनी माँ को सपने में अपने मरने की व्यथा  सुनाई और ये भी कहा की मुझे वहां से मत निकालना  मैं  देवी के रूप में परवर्तित हो चुकी हूँ .  कहते है  कभी देर  रात्रि तक जो लोग घर नहीं पहुँच पाते थे  या किसी प्रकार का खतरा होता था तो वह आवाज देकर उन्हें सचेत करती थी  जंगली जानवरों से , लुटेरों डाकुओं  आदि खतरों से स्थानीय लोगो को सचेत करती रहती थी . सचेत ही नहीं सुरक्षा भी करती थी
बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में गढ़वाल में गोरखे आततायी बन कर आये  इसी समय  गढ़वाल की सुरक्षा के लिए गढ़वाल नरेश ने ब्रिटिश शासन  से मदद मांगी थी .  उस समय भी काली  ने  लोगों  को सुरक्षा के लिए  सचेत किया था  उसकी आवाज गोरखों  के कानो में पड़ी और उन्होंने उसे गढ़े  से निकालकर उसी गढ़े में उल्टा गाढ़ दिया  तब से उसकी आवाजे लगनी बंद हो गयी .
इसी महत्व  के कारण यहाँ  पर प्रारंभ से ही मेला लगता रहा  और  पशु बलिया होती चली आ रही हैं. सैकणों निरीह भैसा ( बागी) और मेढ़ो (खाडू) की बालियाँ दी  जारही हैं.
कुछ समय से प्रशासन यहाँ  लोगों को चेतावनियाँ  देता आ रहा था  कई बार पुलिस बल तैनात भी किये गए कितुं आस्था का सैलाब पुलिस और प्रशासन को बौना कर देता और वे सिर्फ मेले के दर्शक बन कर रह जाते . सुना  है इस बार प्रशासन  ने पहले ही इसके लिए कुछ व्यवस्था बनाई  और किसी सीमा  तक  सफलता भी प्राप्त की  अर्थात कुछ लोगो ने प्रशासन के रुख को देखते हुए अपने कार्यकर्म या   रद्द कर दिए   या उन में परिवर्तन  किया  जो लोग  पशुओं को लेकर वहां पहुचे  उन्हें रोका तो  नहीं  कितु उन्हें परंपरागत  तरीके से बलि देने में परेशानी हुई क्योंकि मुख्य हन्ता ( जो सबसे पहले पशु पर तलवार आंशिक रूप से चलाता  है)  भी अनुपस्थित  रहे .
खबर है की  अब प्रशासन उन पर मुकदमें चलाने की फिराक में है.  अन्ततोगत्वा अब लोग भी धीरे  धीरे  जागरूक होते जा रहे हैं . इस सारी सफलता  के लिए स्थानीय  गाँव के लोग ही स्वयं आगे आये  आशा है भविष्य में इस पर पूरी तरह से रोक लग सके  कानूनी रोक जरूरी नहीं है लोगो की जागृत भावना इस दिशा में काम करे त्तभी सफलता  मिलेगी . बुन्खाल का तो मात्र जिक्र है ऐसी कई जगहे है जहा पर सामूहिक रूप से  इस तरह की  पशु  बलि का आयोजन होता है. और लोग अपने स्वार्थ को सिद्ध करते पाए जाते हैं.
मां काली उन्हें सद बुद्धि प्रदान  करे   और इन पशुओं की अभिवृद्धि  हो सके  जो अब इन बालियों के कारण लुप्त होने के कगार पर हैं.    

बुधवार, 1 दिसंबर 2010

तीन पीढ़ियों की मित्रता का पुरुस्कार - फूट डालो गलत फहमियां पैदा करो

कल ही दिव्या के द्वारा लिखा " क्या आपके पास एक आदर्श मित्र  है ? - श्री कृष्ण जैसा "  आलेख पढ़ा  और संक्षिप्त समीक्षा के बाद अपने कार्यो में लग गया .  आलेख दिमाग में पर यो हावी होता गया की मेरा ध्यान अभी अभी गाँव में हुई एक छोटी  सी घटना पर आ पड़ा . जिसने इस आलेख की विस्तृत समीक्षा, व्याख्या  और प्रकरण जनित  बातें स्पष्ट का दी
.वर्तमान  में हमारे गाँव  के ग्राम प्रधान महोदय , का बचपन  बड़ी ही गरीबी, अभावों और विकटताओं से जूझता हुआ प्रगतिशेल होता है . आस्सम रायफल की नौकरी से प्रारंभ हुई प्रगति  I T B P  की नौकरी तक  निरंतर चलती रही.  आवश्यकता के अनुरूप , खेती, मवेशी, घर, मकान, सभी कुछ जोड़ा  कभी पनघट के पिसे आटा की भगोड़ी ( जब लोग आटा  पीसते हैं  तो लोग  घरात मालिक को दोनों हाथ के हथेलियों पर जितना आटा  आ सके  पारिश्रमिक के रूप में देते हैं ) पर निर्भर जिन्दगी  को बदल दिया .  अपने सबसे छोटे भाई को स्नातकोत्तर की पढाई उपलब्ध करवाई . ये छोटे  साहब बड़े ही कूटनीतिक किस्म के इंसान हैं बचपन में कुत्तों  और बैलों के लड़ाई करवाने वाला  व्यक्ति  आज लोगो की लड़ाई सफाई से करवाता है और बाद में सुलह के लिए भी खुद पहुच जाता  है . प्रधान  जी  I T B P में ड्राइवर  थे  तो द्रैवारी से कमाया   भी खूब .  प्रगति देखते ही सभी की प्रसंसा का पात्र भी बना रहा . रिटायर  होने बाद व्यक्ति ने धनार्जन औ बहु बलिष्ठ होने कारण कुछ अख्खड़ स्वभाव  ग्रहण  कर लिया  यानि कभी भी किसी को कुछ भी कह दो
धन प्रदर्शन  की बारी आयी तब   जब महोदय ग्राम प्रधान के चुनाव के लिए उठे .  हमारे परिवार का और इनके परिवार का तीन पीढ़ियों का प्रेम और मित्रता  रही है  गाँव में कई दंश झेलने की शक्ति उन्हें मेरे दादाजी लोगो से मिलती  रही है  यानि पक्का प्रेम और पक्का साहचर्य . दोनों परिवार एक दूसरे के पूरक रहे है  वर्तमान  तक हम अभी भी इन लोगो को हर भले बुरे काम में पारिवारिक रूप में शामिल करते रहे है. किसी कारण वश प्रधानी के चुनाव हमारे परिवार की नाराजगी का परिणाम उनेह हार से  देखना पड़ा . परन्तु अगली बार  गलती  को सुधारते हुए  महोदय को समर्थन भी मिला और प्रधानी भी . यानी यहाँ पर भी मित्रता का पलड़ा भारी रहा .

१७ नवम्बर  को मेरी भतीजी कि  शादी संपन्न हुई और २२ नवम्बर को हमारी जेष्ठ  स्वर्गीय भाभी  का वार्षिक पिंडदान था  पिंडदान में हमारे यहाँ तीन दिन तक परिक्रिया चलती रहती है  अर्थात २० नवम्बर से निकट पारिवारिक मेहमानों का आगमन शुरू हो गया था  २१ ता को अन्य परिचित मित्र रिस्तेदार  आदि लोग सम्मिलित होते हैं . तो बात २० नम्बर की है  मैं दिन में ही काम काज के देख भाल  के लिए नीचे बड़े भाई के घर में चले गया ( हमारा  घर गाँव में सबसे ऊपर है आने जाने में लगभग दस से पंद्रह मिनट  लगते हैं ) मेरे साथ मेरा भतीजा कपिल भी था सारे काम , बैठने की व्यवस्था , खाने पीने के व्यवस्था आदि सभी कार्यों को निपटाने लगे .
प्रधान जी बड़े भाई जी के निकटतम पडोसी भी हैं , शाम को मित्रगनो के लिए कुछ विशेष प्रबंध किये जा रहे थे , और प्रधान जी सादर आमंत्रित थे . जैसे प्रधान जी का आगमन हुआ और बैठते ही  प्रधान जी बड़े भाई से कहते है " दाताराम देखो मोहन (मेरे अपने सगे दूसरे नम्बर के भाई का नाम है ) के परिवार वाले तो सब ऊपर में गप्पें लड़ा रहे है. मैंने  अभी आते समय उन्हें फटकार लगायी तो वे अब  पहुंचे " आगे कि बात को भापते हुए मैंने उन्हें  टोक दिया उन्हें अँधेरे में मेरी उपस्थिति का भान नहीं था  यानि हमारे पारिवारिक मामलेमें  दखल देकर  मित्रताका  अनूठा  नारदीय  परिचय  देना था  जिसे परिवार के बीच फूट  और गल्फह्मियाँ  पैदा हो सकें . मेरे अवरोध और विरोध के बाद श्रीमान जी उठ कर चल दिए  किसी  ने भी   नहीं रोका .
तो ये था तीन पीढ़ियों कि  मित्रता का परिणाम और पुरूस्कार  फूट डालो  और राज करो . घरों में आग लगावो  और फिर पानी भी दिखाओ बुझाने  के लिए .

शुक्रवार, 26 नवंबर 2010

संस्कार विहीन बनता शादियों का बदलता स्वरूप

दिल्ली से उत्तराखंड जाना अपने में एक सुखद अनुभूति होती है गृह  प्रदेश में पदार्पण  की खुशियाँ छलकती रहती है . किन्तु बच्चों में ऐसा प्रतीत नहीं होता है वे यही के परिवेश में पले बढे . मैं १३.११.२०१० को  दिल्ली से देहरादून के लिए निकला , पुनः दूसरे ही दिन मुझे  परिवार के साथ गढ़वाल के लिए रवाना होना था  सीधी बस के इन्तजार में काफी भीड़ इकठी हो गयी थी . कंडक्टर  महोदय  परिचित होने के कारण मुझे थोड़ी से सुविधा  मिली  और ड्राईवर के पीछे की सीट मिल गयी जिससे रास्ता आसान हो गया . नहीं तो मुझे रास्ते में उल्टियाँ होने कारण परशानी होती . बस अपने गंतब्य के लिए प्रातः ८ बजे चल पड़ी और ऋषिकेश के बाद सड़क सर्पीली आकर लेने लगती है  किन्तु गंगा के किनारे से होते हुए सड़क मार्ग का रोचक दृश्य मन को रोमांचित करता रहता है गंगा का छलकता धवल  निर्मल जल, राफ्टिंग करते हुए नाविक , भाव विभोर करते रहते हैं. . देव प्रयाग के पुल को पार करते ही  रोमाच जैसे गायब हो जाता है  क्योंकि यहाँ से धीरे  धीरे गंगा का साथ छूटने  लगता  है और पहाड़ियां भी कुछ  बीहड़ सी लगती है .
ठीक दो बजे पौड़ी में थे  अनुमान से हम पांच बजे तक अपने गंतब्य तक पहुँच जाते किन्तु रास्ते में एक जगह ( सान्कर्सैन) में मुख्यमंत्री जी के कार्यकर्म के कारण लगभग एक घंटे  का  विलम्ब हुआ  अब हम अपने गंतब्य तक ६.३० बजे पहुचे  अँधेरा हो चूका था  बस से उतरते हुए मेरे बड़े बेटे के हाथ से मोबाइल फ़ोन भी गिर गया  जिसका अभी तक पता नहीं चल सका .
गाँव में हम अपनी भतीजी के शादी  में गए थे .   जब हम छोटे थे तो तब शादियों का माहोल बहुत आकर्षक लगता था बारात रात को आती थी , घर को सजाया जाता था रंग बिरंगे कागज के पतंगों से . या फिर पयां ( एक पेड़ होता है इसकी पत्तियों को शुद्ध माना जाता है इसका बोटानिकल नाम मैं नहीं जानता ) की पत्तियों  से  गेट की खूबसूरती के लिए हरी रिंगाल और केले के तनो से भी सजाया जाता था  रात में महफिल में हारमोनियम ढोलक तबला  की थाप से संगीतमय वातावरण तैयार होता था बाराती हों या घराती महफिल के शौक़ीन इन वाद्य यंत्रो  की तरफ लपकते थे गाने वाले भी  पीछे  नहीं रहते . बरात का स्वागत स्कूली  बच्चे करते,  चाय आदि का प्रबंध  भी  इन्ही के जिम्मे होता था  एक अलग ही आकर्षण बनता था .
 लोग भी शादी ब्याह के समय सारा काम मिल जुल कर करते  खाने से लेकर सोने तक का प्रबंध सभी आपसी तालमेल से करते  . पहाड़ों में आज भी शादियों में गैस  का प्रयोग बहुत कम होता है जंगली लकड़ी से ही सारा खाना तैयार होता है  गाँव के लोग ही जंगल से लकड़ी घर तक लेकर आते थे  भोज जमीन में बैठ कर मालू के पतों की  पत्तल में या फिर केले के पत्तों में परोसा  जाता था  जब भोजन परोसा जा रहा हो तो परोसने वालों के अलावा किसी दूसरे का पंगत में जाना निषेध होता था
सारे रस्ते मैं इन्ही कल्पनाओं और यादों को समेटने में लगा रहा . हमारे बच्चों ने तो ऐसा परिद्रश्य  देखा ही नहीं .
बदलते परिदृश्य ने करवट ली  और सारी परम्पराए दरकिनार होती चली गयी जैसे युगों पुरानी, कथा कहानी की बात हो. वहां भी एक दिवसीय शादियों का प्रचलन चल पड़ा . जब मैं १९८२ में  लुधियाना  गया था तब मुझे वहां पर एक दिवसीय शादियाँ देखने को मिली  और यह मेरे लिए आश्चर्य की बात थी.  धीरे धीरे यही चलन सभी जगह  पहुँच गया  और अब गढ़वाल में भी .  यहाँ पर भी दिल्ली , देहरादून की तरह आपको स्टेंडिंग  भोज की प्रचुरता  मिल रही है
घर जाते समय जब मेरे  बड़े भाई ने मुझे स्टेंडिंग भोज , और एक दिवसीय शादी का प्रोगाम  बताया तो मैंने उनसे एतराज जताया  तब उन्होंने मुझे इसके कुछ कारण भी बताये   जिनके कारण आज पहाड़ों में  अपरिहार्य होते हुए भी एक दिवसीय शादियों का  प्रचलन   तेजी से  बढ़ रहा है. कारण निम्न प्रकार से हैं:

१. रात्री कालीन शादियों में शराब का बढ़ता चलन . जिससे शराबियों पर काबू पाना कठिन हो जाता है  और अक्षर मार पिटाई तक  की नौबत आ जाती है.
२ बारातियों की संख्या रात्रि कालीन शादियों में अधिक होती है  उनका समुचित प्रबंध कठिन हो चला  क्योंकि गाँव में भी शहरी पन आ गया है कोई भी अपने यहाँ  बारातियों को सुलाने के लिए तैयार नहीं होते  ऐसे मौके पर अपराधी प्रवृति भी बलवती रहती है. कुछ लोग शरारते भी करने लगते हैं
३  एक रात  का भोज का खर्च भी कम हो जाता है .
४ स्टेंडिंग भोज  अब ठेके पर हलवाई तैयार  करते हैं  गाँव के लोगों में सहायता भाव  समाप्त हो चूका है  इतना ही नहीं समय पर गाँव वाले खाने के लिए पहुँच जाये तो गनीमत समझे . अन्य सहयोग तो दूर की कौड़ी हो चुकी है .
 कारण और भी होते है  चाहे व्यवस्था से जुड़े हों या आर्थिक  रूप से . किन्तु बदलाव  आ चुका है  जिनकी आर्थिक स्थिति बिलकुल डामाडोल है  वे भी इसी माडल  को अपना रहे हैं   एक दिवसीय शादी  कुल मिला कर एक युद्ध जनित कार्य बन गया है
सिर्फ शादी हो गयी . संस्कार , रस्म अदायगी के रूप में फिस्सडी काम हो गया है यानि चलताऊ शादी हो रही है. हर  कोई जल्दी में है  सर्दियों में तो और भी टेढ़ी खीर सी  बन गयी है  पंडित जी से भी बाराती यह कहते हुए सुने जा रहे हैं पंडीजी जल्दी करे . महासंकल्प और वेदी में फेरों के समय की चुटकियाँ तो अब ईद का चाँद हो गयी है वधु पक्ष की लड़कियों और बारातियों के बीच होने वाले वाद विवाद, नोक झोंक   की रस्मे कथा चित्रों में शामिल हो चुकी हैं  अब कहाँ  वो शादियाँ .
बदलते परिवेश ने सभी कुछ बदला डाला  हाँ आर्थिक परिदृश्य  भी गढ़वाल का बहुत मजबूत हुआ है शायद इन्ही बातों ने बदलाव को स्वीकार किया हो
मेरी भतीजी की शादी भी इसी तरह  संपन हुई  महसूस ही नहीं हुआ की शादी दिल्ली , देहरादून में हो रही है या मेरे घर सिमाड़ी ( गढ़वाल ) में .
 रस्मों  और संस्कारों की बलि  लेता हुआ बदलाव को नमस्कार . सब कुछ यादें बन कर रह गया .

बुधवार, 24 नवंबर 2010

खिलाडी कैसे प्रयोग करते है राष्ट्रीय ध्वज का !!!

अंतर्राष्ट्रीय खिलाडी सोना तो उगलते हैं अपने देश के लिए , किन्तु राष्ट्रीय झंडे का सम्मान करने से क्यों चूक जाते है  क्या उन्हें इतनी जल्दी , और ख़ुशी होती है कि वे मनको को भूल जाते है या इतने लापरवाह होते है कि मालूम ही नहीं पदता कि झंडे का प्रयोग कैसे किया जाये इस तस्वीर  में कुछ इसी तरह का नज़ारा पेश कर रहे हैं टेनिस  देव
जहाँ ख़ुशी सोना जीतने की है वंही दुःख है झंडे के  अनुचित प्रयोग का  . खेल के साथ इन्हें राष्ट्रीय ध्वज का प्रयोग  भी सिखाना चाहिए  तस्वीर  दैनिक जागरण से ली गयी है.   

शुक्रवार, 5 नवंबर 2010

प्रकाश पर्व दीपावली

आज दीपावली है  मैंने  आज सवेरे हिंदी के प्रख्यात लेखक  श्री लीलाधर जुगुड़ी का हिंदुस्तान में एक लेख पढ़ा जिसमें उन्होंने श्री राम द्वारा अमावश्य को घर लोटने पर कुछ रौशनी डाली है वे कहते हैं कि जब अँधेरा होता है तो लोग प्रकाश की खोज करते है . अँधेरा यदि प्रज्वलित होता है तो प्रकाश जगमग करने लगता है वास्तव में उन्होंने बहुत ही दार्शनिक एवं वैज्ञानिक  ढंग से दीपावली के त्यौहार  पर सुन्दर मार्मिक वर्णन  किया है राम ने वन से लोटने पर अँधेरे का चुनाव किया  कि अँधेरे में उनके प्रकाश से वे अपनी प्रजा को भली भांति देख सकेंगे अथवा प्रजा उनको श्री राम कि कांति में अच्छी तरह पहचान सकेंगे . अँधेरा उजाले से प्राचीन है  और प्रकाश अँधेरे कि आवश्यकता बन गयी है .
आज जब मै बाजार  में था तो लगभग ४-५ बजे का समय था कुछ  सामान खरीदना  था  एक दुकान से दूसरी  देखते हुए काफी समय व्यतीत हो गया  दुकानों में रौशनी जगमगा रही थी रात का एहसास  सा हो रहा था  जब बाजार से निवृत  हुए और बाहर सड़क पर पहुंचे  तो सड़क सुनसान सी नजर आई .मुझे कुछ पल के लिए ऐसा भ्रम बना कि लगभग रात कि ९ बज चुके है  मेरे मुह  से अनायास ही निकल पड़ा कि हमें बस नहीं मिलेगी क्योंकि आज दीपावली  है  सभी बसे अपने गंतब्य तक पहुच कर छुटि कर चुके होंगे  किन्तु ऐसा था नहीं चूँकि सडको पर त्रास्फिक कम हो चूका था और दीवाली मानाने  की सभी को जल्दी थी तो लोग घरों को लौट रहे  थे  इतने में  बस आ गयी  हम बस में चढ़ गए पुनः  जब बस से उतरे तो  तब मैंने समय देखा तो अभी ६.५० बज रहे थे . तो मुझे यकायक सबेरे   ही माननीय जुगुड़ी  जी का लेख का ध्यान आ गया
मेरे अपने घर में दीपावली का पर्व इस वर्ष वर्जित है क्योंकि  अभी हमारे एक जेष्ठ भ्राता  का २८ सितम्बर को देहावसान हुआ मेरी  बड़ी दीदी  यही रहती है उनके घर चले आये  तब आकाश में अधेरा अपना साम्राज्य कायम कर चूका था  और पूरा भारत दीप जला कर , विजली की लडिया लगा कर , पटाखों  से आतिश बाजी से आकाश जगमग होने लगा था, जैसे सभी अँधेरे को तोड़ कर प्रकाश का  साम्राज्य कायम कर रहे हों .
.बस यही था उनके लेख का  भी सारांश . सभी लोग मानो बुराईयाँ  छोड़ कर एक सुगम , सुंदर और प्रकाशित  मार्ग पर गमन करना चाहते हों . सभी बच्चे और बड़े प्रश्न्चित है . खुशिया  ही खुशिया चारो ओर दिखाए दे रही थी


अंत में आप सभी को दीपावली प्रकाश  पर्व की  शुभ कामनाएं .   

गुरुवार, 28 अक्तूबर 2010

kashmir aur arundhati roy

बुकर पुरूस्कार  से समान्नित  लेखिका अरुंधती रॉय अचानक समाचारों की सुर्खियाँ बन गयी हैं. अभी कुछ ही दिन पूर्व  सैद गिलानी के साथ  उन्होंने  कश्मीर मुद्दे पर एक कटु सत्य को पुरजोर तरीके से कह दिया . सच तो वही जो उन्होंने कहा  किन्तु कहने के तरीके से थोडा चूक गयी  और यही अब उनके लिए गले की phaans  बन गयी . उन्होंने कहा था " कश्मीर का विलय भारत में कभी नहीं हुआ " इस बयां ने tool  पकड लिया और  राजनितिक दलों ने उनके  राष्ट्रविरोधी होने का फतुआ jaari  कर दिया  और गिरफ्तार करने की मांग करने लगे.
अब प्रश्न उठता  है कि रॉय ने सार्वजानिक मंच से एक संवेदन शील मुद्दे पर गिलानी जैसे अलगाववादी के साथ क्यों  कही ?  क्या अरुंधती जी इसकी संवेदन शीलता से  परिचित नहीं थी  या  उन्हें सुखियाँ बटोरनी थी ?  क्या यह एक कटु सत्य  है जो उन्होंने कहा / यदि ऐसा है तो फिर राजनितिक दल क्यों परेशान है. अथवा  श्रीमती रॉय ने जानबूझ कर ऐसा बयां दिया .
अब बात आती है अभिव्यक्ति कि स्वंत्रता की. आप के कहने मात्र से किसी भी व्यक्ति की स्वतंत्रता में बाधा  तो नहीं पड़ती है यदि खlal  पदता है तो इसे स्वतंत्रत का हनन  कहा जायेगा  शायद संवेदन शील mudde  पर बोल कर उन्होंने ऐसा ही किया है.  कितु उन्होंने तो सिर्फ सच कह दिया है  तो उस पर इतना  बवाल कि उन्हें जेल  भेजने की तैयारी गृहमंत्रालय  कर रहा है.  परन्तु आज तक जिन्होंने हम्मारी संसद पर हमला किया , कई पुलिस , सेना  के जवानों को maar  गिराया , निर्दोषों की हत्या कर दी  , कनिष्क विमान को समुद्र में मार गिराया, उन्हें तो अभी तक सजा भी नहीं हुई  और वे लगातार aisi  हरकते करते जा रहे हैं. उन्हें देश द्रोह  के बजाय मुख्यधारा का अंग बनाने के प्रयास किये जाते रहे हैं.  तो  रॉय ने कौन सा पहाड़ इस देश में तोड़ डाला है.  अभी इससे पहले कश्मीर की विधान सभा में तो यही बयान umar  अब्दुल्लाह ने भी  दिया  जबकि वह तो राजनितिक प्रदेश का मुखिया है  तो unhe  क्यों नहीं देश द्रोही कहा गया .
 यदि कश्मीर  विवादस्पद  राज्य नहीं है तो फिर बार बार सरकार को  इसे  " भारत का अभिन्न अंग" क्यों कहा जाता है  ऐसा अन्य प्रदेशों के मामले में नहीं होता है.   तो क्या  अब रॉय के बयान के बाद बर्ताकारों का विषय भी बदल जायेगा  और इस मुद्दे के  वास्तव में हल करने के गंभीर प्रयास किये जायंगे ?  या रॉय को जेल में daal  दिया जायेगा और मुद्दे को फिर से दबा दिया  jayega  .?  या फिर कश्मीर हमेशा की तरह सुलगता रहेगा ?   ये बहुत सरे प्रश्न खड़े है जिनका उत्तर अब कश्मीर की जनता और भारत सरकार  निकालने होंगे .
  apne  vichaar bhi rakhe  ek mahaan lekhak ko kaisi saja milni chahiye

मंगलवार, 21 सितंबर 2010

गंगे कुछ पल रुको !

गंगे कुछ पल रुको !
आक्रोश को रोको
क्रोध को थामो
पीड़ा का क्रंदन , स्पंदन ,
व्यथा ,निश्वास , आह  और कराह
समेट लो सिसकियों  में
गंगे कुछ पल रुको !
तुम्हारे क्रोध से, आक्रोश से
मैती आकुलित हैं
व्यथित, व्याकुल , निस्तब्ध हैं
प्रलयंकारी गर्जन से
माँ कैलाशी प्रार्थना बद्ध  है
बद्री केदार भी नत मस्तक हैं
हिम गिरी  भी व्याकुल है
पुकार रहे हैं
गंगे कुछ पल रुको !
 सदियों से दे रही हो शीतल निर्मल अमृतमयी जल
पाप कष्टों का कर रही हो हरण - प्रबल !
निर्विकार निर्निमेष धरा का पग पग करती हो प्रक्षालन !
तो तुम्हे क्या दे रहे हैं ये मानव जन
मैला ! विष प्रदूषण  !
और  विषमयी बना अमृतमयी जल !
तो यह गर्जन , आक्रोश क्यों न हो !
दमनीय हो चुकी है हिम्पुत्री
कुछ पुत्रियाँ तो सहती हैं 
कुछ प्राण निछावर करती हैं
कितु कुछ  सीमा तोड़ आक्रोशित , क्रोधित  होती है
जीवन सबका है जीवन के लिए !
तुम भी तो आक्रोश में हो
क्रोध में हो
प्रलयंकारी  विनाशकारी रूप लिए हो
सब डरे हुए  है  भयभीत हैं !
गंगे कुछ पल रुको
आक्रोश सहज है
कितु मैती पुकार रहे हैं
नतमस्तक है,
शांत और मौन की प्रार्थना कर रहे है
और पूछ रहे हैं,
ऐसा प्रलय क्यों
ऐसा हाहाकार क्यों
थोडा शांत
थोडा मौन
गंगे कुछ पल रुको !



( वर्ष २०१० अतिवृष्टि के रूप में जाना जायेगा उत्तराखंड में अति वृष्टि ने प्रलय  की स्थिति पैदा कर दी है  यह भी मानव निर्मित विपतियाँ है  गंगा और यमुना  अपने उफान पर है न जाने कितना उबाल आयेगा इन जीवन दायिनी  नदियों में . बाढ़ का प्रकोप ने सभी को भयभीत कर दिया है )
गिरधारी खंकरियाल    

मंगलवार, 14 सितंबर 2010

हिंदी दिवस और राज भाषा

आज हिंदी दिवस है  सभी हिंदी लेखकों, लेखिकाओं  एवं ब्लोगरों  को हिंदी दिवस की शुभ कामनाएं . हिंदी ने विज्ञापनों और फिल्मों के माध्यम से  आज संपर्क भाषा बनने में कामयाबी हासिल  की है . किन्तु बावजूद इसके  यह पूर्णतया ग्राह्य भाषा नहीं बन सकी. फिल्मों में ही देखिये  बहुत सारे  अभिनेता , अभिनेत्रियाँ  हैं जिन्हें हिंदी के नाम से ही परहेज है . जबकि वे सभी हिंदी के ही बलबूते अपना परचम लहरा  रही हैं . उन्हें संवाद रोमन अंग्रेजी में लिख दिया जाता है और फिर वे इसे धारा प्रवाह से बोल दिया कर देते है.  कमोवेश यही स्थिति  विज्ञापनों की भी है  क्योंकि यंहां भी काम करने वाले लोग  इसी श्रेणी के होते हैं.
इतना ही नहीं संविधान में  राजभाषा  का दर्जा प्राप्त भाषा सरकारी कामकाज की भाषा आज तक नहीं बन पाई .यह एक मात्र उत्तर भारत की भाषा बन कर रह गयी है . केंद्रीय सरकारी कार्यालयों में सारा काम अंग्रेजी में होता आ रहा है .  सरकारी अधिकारी और मंत्रिगन तो अंग्रेजी से ही अपना स्तर ऊँचा बनाने पर लगे है  हिंदी बोलने और सुनने वाले की कोई कीमत यहाँ नहीं है. राज्यों ने तो अपने अपने स्थानीय भाषा को राजकीय कार्यों के लिए  प्रयोग किया है  सिर्फ उत्तर भारत के कुछ हिंदी भाषी  राज्य ही सरकारी काम हिंदी में करते हैं
हमारी संसद तक में लगभग सभी चर्चाये  एवें अन्य विधिक  कार्य अंग्रेजी में होते है अधिकांश सदस्य  अंग्रेजी में बोलना पसंद करते हैं. दक्षिण एवं पूर्वोत्तर के सांसद तो हिंदी से गुरेज ही करते हैं  इतना ही नहीं हमारे उत्तर भारतीय प्रधान मंत्री तक हिंदी बोलने से परहेज करते हैं.सभी विधायी  दस्तावेज अंग्रेजी में तैयार  होते हैं  कब समाप्त होगी  ये अंग्रेजी  की गुलामी ?  अधिकारी अग्रेजी बोलते हैं अंग्रेजी लिखते हैं हिंदी में बतियाना उनके कद को नीचे कर देता है .
हाँ श्रीमती सोनिया  गाँधी की दाद देनी पड़ेगी विदेशी महिला होकर भी राजनीति की पारी शुरू करते हुए रोमन हिंदी लिख कर पढना प्रारंभ किया था किन्तु यह महिला आज धारा प्रवाह  हिंदी बोलने लगी है  लगभग सभी भाषणों में चाहे संसद के अन्दर हों या बाहरउन्होंने हिंदी का प्रयोग किया है . हमारे सांसदों को इससे शिक्षा  ग्रहण करनी चाहिए विशेष कर दक्षिण भारतीयों को . जब एक विदेशी व्यक्ति हिंदी बोले सकता है तो अन्य क्यों नहीं .
हमारे देश की माननीय अदालतें भी हिंदी  से गुरेज ही करती हैं . अभी एक दो दिन पूर्व एक अखबार की खबर थी कि माननीय न्यामूर्ति ने किसी याचिका करता को शालीनता का पाठ पढ़ने के लिए  फटकार लगाई क्योंकि वह  व्यक्ति बार बार जबाव "या  या " यानि एस  एस  चलताऊ अंग्रेजी  में दे रहा था . उसे बताया गया कि अदालत में या या के बजाय  मी लोर्ड शिप , माय लोर्ड शिप आदि  सम्मान जनक शब्दों का प्रयोग सिखाया  गया  यह भी बताया गया कि कौन सा शब्द कब और कैसे प्रयोग किया जाता है  हैरानी  कि बात है हमारी आजाद अदालते अंग्रेजी के आगे नतमस्तक हैं . क्या हिंदी में इतने सम्मान  जनक शब्दों का आभाव है की उनसे अदालत की शालीनता में खलल पड़ता हो . क्यों  नहीं माननीय, परम आदरणीय , पञ्च परमेश्वर, न्याय पिता आदि अलंकरण  क्या कम हैं अदालत की शालीनता को बरकरार रखने के लिए !.
हिंदी के लेखक वर्ग से अनुरोध है हिंदी को इतनी रोचक बनायें की दूर देश से भी लोग इसे पढने और सीखने के लिए स्वयम लालायित हो उठे . इसे सिर्फ संवैधानिक  राजभाषा  ही नहीं,  संपर्क और कार्य की राजभाषा एवं राष्ट्रभाषा  के साथ साथ विश्व भाषा बनाना  होगा   अंग्रेजी के किले में सेंध तो लगानी ही होगी

शुक्रवार, 3 सितंबर 2010

जीवन पूर्ति का मर्म



Please read complete mail.
रोजानजो खाना खाते हो वो पसंद नहीं आता ? उकता गये
............ ... ........... .....थोड़ा पिज्जा कैसा रहेगा ? 
www.kute-group.blogspot.com
नहीं ??? ओके ......... पास्ता ?
नहीं ?? .. इसके बारे में क्या सोचते हैं ?
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आज ये खाने का भी मन नहीं ? ... ओके .. क्या इस मेक्सिकन खाने को आजमायें ? 
www.kute-group.blogspot.com
दुबारा नहीं ? कोई समस्या नहीं .... हमारे पास कुछ और भी विकल्प हैं........     
ह्म्म्मम्म्म्म ... चाइनीज ????? ?? 
www.kute-group.blogspot.com
बर्गर्सस्स्स्सस्स्स्स ? ??????? 
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ओके .. हमें भारतीय खाना देखना चाहिए ....... J   दक्षिण भारतीय व्यंजन ना ??? उत्तर भारतीय ? 
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जंक फ़ूड का मन है ? 
www.kute-group.blogspot.com

हमारे  पास अनगिनत विकल्प हैं ..... ..   टिफिन  ? 
www.kute-group..blogspot.com
मांसाहार  ? 
www.kute-group.blogspot.com
ज्यादा मात्रा ? 
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या केवल पके हुए मुर्गे के कुछ  टुकड़े ?
आप इनमें से कुछ भी ले सकते हैं ... या इन सब में से थोड़ा- थोड़ा  ले सकते हैं  ...

अब शेष  बची मेल के लिए  परेशान मत होओ....
 

मगर .. इन लोगों के पास कोई विकल्प नहीं है ...
 
www.kute-group.blogspot.comwww.kute-group.blogspot.comwww.kute-group.blogspot..com   www.kute-group..blogspot.com
इन्हें तो बस थोड़ा सा खाना चाहिए ताकि ये जिन्दा रह सकें .......... 


इनके बारे में  अगली बार तब सोचना जब आप किसी केफेटेरिया या होटल में यह कह कर खाना फैंक रहे होंगे कि यह स्वाद नहीं है !! 
www.kute-group.blogspot.com
 

इनके बारे में अगली बार सोचना जब आप यह कह रहे हों  ... यहाँ की रोटी इतनी सख्त है कि खायी ही नहीं जाती.........
www.kute-group.blogspot.com
कृपया खाने के अपव्यय को रोकिये  
अगर आगे से कभी आपके घर में पार्टी / समारोह हो और खाना बच जाये या बेकार जा रहा हो तो बिना झिझके आप  1098 (केवल भारत में )पर फ़ोन करें  - यह एक मजाक नहीं है - यह चाइल्ड हेल्पलाइन है । वे आयेंगे और भोजन एकत्रित करके ले जायेंगे।
कृप्या इस सन्देश को ज्यादा से ज्यादा प्रसारित करें इससे उन बच्चों का पेट भर सकता है 

कृप्या इस श्रृंखला को तोड़े नहीं ..... 
हम चुटकुले और स्पाम मेल अपने दोस्तों और अपने नेटवर्क में करते हैं ,क्यों नहीं इस बार इस अच्छे सन्देश को आगे से आगे मेल करें ताकि हम भारत को रहने के लिए दुनिया की सबसे अच्छी जगह बनाने में सहयोग कर सकें -   
'
मदद करने वाले हाथ प्रार्थना करने वाले होंठो से अच्छे होते हैं ' - हमें अपना मददगार हाथ देंवे 
 
भगवान की तसवीरें फॉरवर्ड करने से किसी को गुड लक मिला या नहीं मालूम नहीं पर एक मेल अगर भूखे बच्चे तक खाना फॉरवर्ड कर सके  तो यह ज्यादा बेहतर है. कृपया क्रम जारी रखें....  


--
Thanks & Regards,
surjeet
(¨`·.·´¨)
`·.¸(¨`·.·´¨) Keep
(¨`·.·´¨)¸.·´ Smiling!!!
`·.¸.·

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`·.¸.·    मुझे यह मेल से मेरे मित्र द्वारा प्रेषित किया गया  जरा सोचिये और इस दिश में भी कदम उठायें  ताकि ब्लॉगर जगत के लोग भी इन गरीब, निरीह लोगो तक अपना योग दान कर सकें . कितनी बिडम्बना है की कहीं तो आपके पास बहुत से विकल्प हैं भोजन  के लिए वहीँ दूसरी तरफ एक ऐसी दुनिया भी है जिन्हे दो जून की रोटी भी नसीब  नहीं है.वहीँ हमारी सरकार १ करोड़ टन अन्नाज गोदामों और मंडियों में सडा देती है या फिर विदेशों में पशुओं के चारे के लिए बेच देती है. पर इन निर्हों को नहीं बाँटती  है सुप्रीम कोर्ट को आदेश देना पड़ा कितु तब भी ये भूखे ही हैं . बिडम्बना की जय हो!