गुरुवार, 2 फ़रवरी 2012

तुम मौन क्यों !


गूगल से साभार


भारत जननी के गौरव हे पर्वत राज !
हे शत युग-युग के इतिहास,
तुम देख रहे हो स्वयं काल काल का राज !                                                
क्यों रो नहीं उठते, मौन क्यों खड़े तुम आज! 
जब प्रवाहित थी गंगा में पावनता,
थी राजश्री पर सुशोभित मानवता,
सद्य  लुप्त हुए सब राष्ट्र देवता,
मानवता लुप्त हुई, अब जागृत है दानवता .


तब देश सौख्य शांति, सम्प्रदाय से  भरपूर,
परहित परसेवा था लक्ष्य सबका अटूट .
वृद्धि सिद्धि होती थी तब पूर्ण,
पर आज यह पथ हो गए  हैं, खंडित भग्न चूर्ण !
अये शत पुरुष! भारत संरक्षक !
बढ़ रहे अत्याचार तेरे अंक पर,
खोकर सब अपनी समृद्धि महान !
बसते है अब यहाँ राष्ट्र भक्षक, करते तेरा अपमान 

पीढितहै असह्य वेदना से भारत जननी का जनजन .
भ्रष्टाचार राजसत्ता को कर रहा नष्ट,
स्वार्थ यों ही लड़ कर बने हैं तप्त,
दूषित बह रहा इसका रक्त !
करो ध्वनित अपने श्रृंगों से वेणु या शंख !
पथ भूल रहे हैं ये सब सत्ता के रंक .

करो आज इन्हीं का पथ प्रदर्शन !
इस देश काल काया में करो फिर से परिवर्तन !
अरे हिमगिरि विराट ! देख रहा  तू यह नृत्य नग्न 
फिर भी समाधि लगाये  मग्न !
क्या तेरे हृदय में ज्वाला अब शेष नहीं ?
या तेरे नयनो में दृष्टि का समावेश नहीं ?

चलाओ प्रगति का तुम अप्रतिम  अभियान 
करो फिर, अपना शिरसा बलिदान .
राजनीति   से बनी समस्या जटिल महान,
अब खोजो ! तुम इसका हल निदान !

हिमालय ! पुनः सुना अपनी अमर कहानी 
युग इतिहासों में जो कभी थी भारत की समृद्धि की निशानी 
स्मृति दिलाओ  तुम! फिर जन्म ले जैसे चन्द्रगुप्त  महान !
या फिर स्वयं अवतार बनो तुम हरने को जनमानस - त्राहि -त्राण!
अब  तो प्रगति का  अभियान चलाना है 
तम्हें मौन नहीं प्रवक्ता बनना है !
हे मेरे हिमगिरि विराट!




प्रकाशित  "हिलांश" मुंबई से  मार्च १९८१  
इस कविता को १९७८-७९ के समय लिखा था तब जनता पार्टी की सरकार थी शाह आयोग बैठा था कुछ ऐसी ही स्थितियां थी तब भ्रष्टाचार की . यही पहली कविता थी जो किसी संपादक ने स्वीकार  की थी,  किन्तु प्रकाशित १९८१ में मुंबई से हुई थी यह मेरी पहली प्रकाशित  रचना है