मस्तिष्क और ह्रदय से संयोजित होते हुए विचार प्रकट होते है . इस तरह जब विचार मन में उदेव्लित हो रहे हो बाढ़ की तरह, तब उन्हें सकलित करने की आवश्यकता जान पड़ती है, इसीलिए संभतः लेखन का कार्य भी प्रारंभ हुआ . इस उद्वेलन को सँभालने के लिए उसी क्षण लेखन सामग्री की भी आवश्यकता होती है यदि कुछ विलम्ब हुआ तो तारतम्य बिगड़ जाता है .
जब व्यक्ति लेखन प्रारंभ करता है तो गद्य या पद्य की भाषा में से किसी एक का चुनाव करता है . जिसमे वह सहज होता है वही से धारा प्रस्फुटित होने लगती है . गद्य को तो कवियों की निष्कर्ष की वाणी कहा गया है , गद्य को समझना भी कुछ आसान सा लगता है कितु पद्य में कभी कभी शाब्दिक क्लिष्टता के कारण भाव अभिव्यंजना को स्पष्ट कर पाना कठिन सा लगता है यो तो पद्य में गेयात्मकता, स्वर बद्धता, चपलता, और सौम्य सा निखरता है और पढने में सुगम हो जाता है किन्तु पाठक को भाव स्पष्ट करने में कठिनाई भी होती है. लिखते समय तो संभवत कविगण अपने भाव में बह कर निरंतर लिखते चले जाते है और यह भी ख्याल नहीं रह जाता है कि शब्दों का चयन किस प्रकार से किया जाय.और कभी - कभी उत्कृष्टता का भी विचार पीछे छूट जाता है .
विशेष कर ब्लॉग जगत में मैंने कई कवि एवं कवियत्रियो को पढ़ा , कुछ लोग तो वास्तव में साहित्यिक दृष्टी से रचना कर रहे है परन्तु कई ब्लोगों में विचरण करने पर मात्र समय को धकेलने वाला काम हो रहा है . इतना ही नहीं खड़ी बोली का भी सम्यक प्रयोग नहीं हो पा रहा है . अनेको कविताये उर्दू मय हो चुकी है. लेश मात्र भी उनमे कविता के गुण नहीं देखने को मिलते है . गद्य कविता का जन्म भी हुआ परन्तु उत्कृष्ट था कितु आज तो ब्लॉग में कहानी कविता दृष्टि गोचर होती है बाजारी एवं चलताऊ शब्दों का अत्यधिक प्रयोग कविताओं में हो रहा है . साहित्य भी चलताऊ सा लगने लगा . और कविता रुग्णित .
इससे यह प्रतीत होता है कि ब्लॉग पर लिखना मात्र टाइम पास है उसका साहित्य से कुछ लेना देना नहीं . रहस्य वाद और छायावाद के बाद प्रगति वाद का जन्म हुआ और इस युग की देंन रही छंद मुक्त कविता अर्थात गद्य कविता . इसीका परिणाम है अनेको अनेक कवि गणों का जन्म .
अभी कुछ दिन से प्रतुल वशिष्ठ जी ने साहित्यिक दृष्टिकोण से एक सार्थक प्रयास प्रारंभ किया है जिसमे छंद शास्त्र की वे शिक्षा अपने ब्लॉग के माध्यम से दे रहे है. जो अनुकरणीय है . मेरा अभिप्राय यह बिलकुल नहीं की आप छंद युक्त कविताये ही लिखिए मैं स्वयम भी ऐसा नहीं कर पाता हूँ. कितु इतना अवश्य होना चाहिए कि विषय के अनुसार शब्द चयन , भाषा की सटीकता हो एवं पुनरावृति दोषों से तो कम से कम दूर रहे . कविता का अर्थ यह भी नहीं है कि कठिन एवं संस्कृत निष्ठ शब्दों का प्रयोग किया जाय किन्तु सरल, और हिंदी के शब्द तो कम से कम अवश्य हों . दूसरी भाषा के शब्द का प्रयोग तो तभी हो जब आप के पास कोई विकल्प न बचा हो या उस शब्द की सार्थकता से कविता की गति और भी सरल व समोहन करती हो .
संभवतः कई विचारक मेरी बात से सहमत न हों कितुं लेखकीय धर्मं के अनुकूल जो दृष्टिगत होता रहा मात्र उसे चिन्हित करने का प्रयास कर रहा हूँ. अन्यथा कविता का हाल ठीक उसी तरह हो जायेगा जिस तरह W H O की रिपोर्ट में एंटी बायो टिक दवाए बेमौत मर रही रही है कारण डाक्टरों द्वारा अत्यधिक और अनावश्यक प्रयोग .