सोमवार, 30 अगस्त 2010

घरेलू हिंसा

कल यानि २९.८.२०१० रविवार का दिन था  रविवार को मेरी छुटि हुआ करती है दिनभर से अपने कार्य कलापों को निपटाने के बाद मैं और मेरा एक दोस्त टेलीविज़न  का दीदार करने लगे . लगभग ४ बजे का समय था  अचानक मेरे सामने  के घर से जोर जोर से आवाजे आने लगी . मैंने चाय बनाने के लिए रखीथी, जब तक उनकीचीख  पुकारें और मार पिटाई कि आवाजे बाहर तक  पहुच गयी . एक व्यक्ति अपनी पत्नी को दे दनादन मार रहा था साथ में छोटे बच्चों को भी पीट रहा था .
जब हम लोग बाहर आये तो उस व्यक्ति कि हैवानियत चरम पर  थी वह कभी डंडे  तो कभी ईंट पत्थर मार रहा था . पड़ोस के लोग तमासा देख रहे थे  किसी कीया तो हिम्मत नहीं हो रही थी या कोई बीच में नहीं पड़ना चाहता था जो भी हो नज़ारा खतरनाक  था  उसका शरीर  भी तो  भीमकाय था  और उपर से पूरी तरह से शराब के नशे में चूर था . परन्तु किसी तरह बाहर आकार मैंने उसे रोकने कि कोशिश की तब जाकर कुछ बचाव हो सका.
हुआ यों था सबेरे सबेर उसने किसी जानने वाली महिला को जिसके साथ दो छोटे बच्चे  थे को पड़ोस के मकान में किराये पर कमरा दिलाया था , महिला अकेली रहती है  उसके पश्चात्  उसकी पत्नी सुबह  काम पर चली गयी थी  उसके काम पर जाने के बाद वह उस महिला के साथ मजुनिगिरी  करने लगा  लोगों की खुषर फुषर शुरू हो गयी किसी ने उसके बेटे को बताया तो वह उसे बहाने से लेकर घर में आया इसी बीच बेटे ने अपनी मा  को भी बुला लिया . बस यही से उनकी फसाद शुरू हो गयी. और इतने आगे बड़ गयी कि जान के लाले पड़ गए
  आगे यह भी बता दूँ  कि ये महाशय सिर्फ बीबी कि रोटियों पर खड़े हैं  ये  तो न काम के न काज के नो मन अनाज के वाली कहावत पर खरे उतरते हैं . बावजूद इसके पुरे रोब से रोटियां तोड़ते हैं और दिनभर बिस्तर तोड़ते है. यदि कोई काम करता हो तो थोड़ी बहुत उसकी धौंस को नयाचित भी ठहराएँ  किन्तु ऐसा व्यकित जो कुछ न करे ऊपर से मजुनी गिरी  वह भी बड़े बच्चो के साथ में रह कर .  सरासर  अन्याय  नहीं तो क्या है. जिस सबाब में में उसने बीबी को ढके मारे और  घर का सारा सामान बाहर फेंका उससे  तो देखने वाले को लगेगा कि बीबी निकम्मी है किन्तु यंहां  तो कहानी उलटी है.
किसी तरह से इन महाशय  को रोका और शांत किया इतने में उसकी पत्नी अपने बेटे और बेटी को लेकर बाहर चली गयी . फिर हम लोगों ने उसकी खूब क्लास ली जब जाकर उसने खुद वही सामन उठा कर रखा . पत्नी कि मजबूरी कहो या हिम्मत वह  दूसरी शिफ्ट काम पर चली गयी और फिर रात में  वापस वहीँ  आ गयी .
मैनी अखबारों में , रेडियो  टी वी  में घरेलू हिंसा के बारे में पढ़ा  और सुना किन्तु उसका भयानक , रोद्र रूप पहली बार  क़ल देखने को मिला.
ये लोग पढ़े लिखे नहीं है शयद अनपढ़ अज्ञानता भी इसका एक कारण हो सकती है  जिसके साथ यह व्यक्ति नशे में चूर होकर बीभत्स रूप धारण कर लेता है. जब आदमी के सर पर खून शरू हो जाता है तो वह कुछ नहीं देखता है  और यही एक बिंदु होता है जहाँ पर जहाँ पर किसी की जान भी चली जाती है .
इसके बाद शुरू हुआ लोगों का विचार विमर्श. अधितर की राय यही थी की बीह बचाव करने वाला या तो पित जाता है या फँस जाता है  नहीं जाना चैये लोगों को बीच बचाव करने . सिर्फ मैंने ही उस व्यक्ति को रोकने की कोशिस की थी इसलिए मेरी राय तो यही थी वचावकरना चाहिए  शयद किसी की जान बच जाय . हो सकता था की हम बीच बीच में अदने से पीछे हट जाते  तो कोई बड़ी दुर्घटना होने में देर नहीं थी परन्तु लोगों के विचार जान कर हैरानी भी हुई और दुख भी . कभी तो स्वयं को भी कोसने लगा था की मुझे चोट आ जाती  या कुछ  और .संभवतः लोग बचाव कार्यो में दिलचस्पी नहीं रखते इसीलिए देश में इतनी दुर्घनाये जन्म ले लेती हैं यदि वचाव  की  निति अपनाई जाय तो घरेलू हिंसा के शिकार में जान जाने मामले कम हो सकते हैं

शनिवार, 7 अगस्त 2010

तुम माँ हो ! !

माँ एक शब्द नहीं !
माँ ब्रम्हांड है !
माँ पृथ्वी   है!
माँ अनंत है, आकाश है !
माँ शील है, विराट है शक्ति है !

माँ एक शब्द नहीं!
माँ  केवल नारी नहीं !
वह तो छांव है 
वटवृक्ष है !
वह पत्नी है बेटी  है
बहिन है !
दादी है या नानी है
वह   तो माँ है !
माँ कि कोख में आने के लिए ,
उसे पूछना  नहीं पड़ता !
वह  तो धन्य मानती है  सौभाग्य समझती है !
जन्म लेने वाला तो धन्य हो ही जाता है !
कि उसे माँ मिल जाती है !
आशीर्वचन ग्रहण करती है जीवन भर
सौभाग्यवती, संततिवती  या चिरंजीवी!
वह  व्रती है ! दृढ है और क्षमाशील है!
निश्छल है , निर्विकार है !
नि:शब्द है !
यह तो प्रकृति का वरदान है !
माँ को शिकायत नहीं ,
सभी को बराबर देती
आंचल में प्यार और दुलार !
तुम तो समुद्र हो !
शांत हो गहराइयों तक !
तुम जननी हो !
तुम वन्दनीय हो !
तुम अतुलनीय हो !
तुम नमनीय हो !
तुम नारी ही नहीं !
तुम एक शब्द नहीं !
तुम माँ हो ! !

( मैंने लगभग बीस साल बाद इस कविता कि रचना कि है. इसकी परिणिति  घुगुती बासूती में "माँ" कविता है जिसने मुझे भी झक्जोर दिया है  यह उनकी कविता कि प्रतिक्रिया कहें या एक नया जागरण. मुझे उनकी कविता में यह महसूस हुआ है एक नारी कही दमनीय, दयनीय , कमजोर है  ऐसा उन्होंने माँ कविता में भाव दिया है किन्तु मैं माँ को दुनिया कि सबसे शक्तिशाली  भाग्यशाली  मानता हूँ  )- गिरधारी खंकरियाल