सोमवार, 12 जुलाई 2010

band ka prakop

अभी ५ जुलाई को मैं देहरादून में था सभी विपक्षी पार्टियों ने बंद का आवाहन किया हुआ था . बंद सफल हुआ लग रहा था क्योंकि उस दिन देहरादून में भरी मात्रा में बारिश हो रही थी  मानो  प्रकृति  भी उनका साथ दे रही हो, या उन्हें यह कह कर तरसा रही हो कि कहो कैसा रहा आपका बंद!  उन्हें मुंह चिढ़ा रही हो .  थोड़ी सी परेशानी मुझे भी हुई क्योंकि मैं उस दिन दिल्ली  से छुटि लेकर  बेटे का  श्कूल में अद्मिस्सिओन करवाने गया हुआ था, कुछ स्कूल तो खुले मिले किन्तु जो पसंदीदा स्कूल थे वे बंद थे . इस लिए भी मेरा कम अगले दिन  के लिए स्थगित हो गया.
बंद  के कारण कई शहरों में स्थिति ख़राब थी इसी खबरें सुनाई दी  . मैं बचपन में भी कुछ लिखने का शौक  रखता  था  तब भी में एक लेख  लिख था कि ७२ घंटे का बंद  देश को ७२ वर्ष पीछे  धकेल देता है.  यद्यपि यह लेख प्रकशित न हो सका. किन्तु मेरा मानना आज भी यही है. देश में बंद करने का कोई औचित्य नहीं है . शक्ति प्रदर्शन का कोई भी उचित औजार नहीं  है.
 आखिर बंद के बाद आपको क्या क्या मिला ? लाखो  करोड़ों का कारोबार  संगठित  और असंगठित क्षेत्र से  नुकसान हुआ . बकिंग क्षेत्र में भी समाशोधन रुकने कारण अरबों का व्यापार ठप्प रहा .  हजारों कर्मचारियो काम पर न जा सके धिहादी मजदूर, त्ठेली वाले रेहड़ी वाले पान वाले आदि इस प्रकार के कई वर्ग  जो रोज कुंवा खोदते हैं और रोज पानी पीते हैं का क्या बुरा हाल हुआ होगा . इसका आकलन करना बहुत कठिन है.
संभतः तेल की कीमतें इतनी  भी न बढ़ी हो जितना की बंद ने नुसान कर दिया है. अब आप यह मत कहें कि कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है.  बंद एक दिन का एक बर्ष तक उसकी भरपाई नहीं हो पाती है.  महगाई को रोकने के बजाय आग में घी डालने वाला काम हो गया है.
आतंक बाद के समय पंजाब में भी aye  दिन उग्र्बादी संगठन कोई न कोई बंद करके रखते थे किन्तु मैं उस समय भी बंद के दिन कभी छुटि नहीं करता था .
यदि राजनितिक पार्टियों  को महगाई रोकने के समिलित उपाय करने हों तो सिर्फ मंत्रियों  को ही क्यों न बंधक बना लेते हैं . इससे त्वरित  कार्यवाही होगी. किन्तु इसका एक और दुष्परिणाम भी होगा कि कल आतंकवादी लोग भी इस तरह का काम राजनितिक पार्टियों के द्वारा  करवाने लगेंगे .  इस लिए सबसे अच्छा तो संसद ही है यहाँ  पर आप पूरी शक्ति दिखा कर सरकार को झुका सकते हैं.  प्रजातान्त्रिक तरीके  ही इन बातों में कारगर सिद्ध होते है.
हड़ताल या बंद ( असहयोग आन्दोलन) इसकी उत्पति महात्मा गाँधी जी ने अंग्रेजों के खिलाफ  कि थी. आज यही अपना स्वरुप बदल चूका है. पार्टियाँ अपना हित देख कर इसका इस्तेमाल कर रहे हैं.
अंत में  मैं तो इतना कहना चौंग कि देश को नुक्सान नहीं उसकी तरक्की में साथ देना चाहिए . बंद जैसा हथियार हर प्रकार से अवनति का रास्ता  तैयार करता है .