सर्व मंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके , शरण्यं त्रयम्बके गौरी नारायणी नमोस्तुते .
उत्तराखंड देव भूमि कहलाती है तमाम देवी देवताओं का निवास स्थल है उत्तराखंड . मान्यताएं और आस्था का अनुपमन संगम .
प्राकृतिक सुन्दरता और वैभव से सुसज्जित . किन्तु इसके साथ हैं कुछ अभिशप्त करने वाली आस्थाएं जैसे विभिन्न देवी देवताओं को प्रसन्न करने के लिए की गयी पशु बलि मनोतियां .
पशु बलि वंहा पर अक्षर सभी देवी देवताओं को चढ़ाई जाती है किन्तु माँ काली के सम्मुख तो असंख्य पशुओं को एक साथ निर्मम संहार होता है माँ काली का प्रभाव तो सबसे अधिक पशिचिमी बंगाल में था परन्तु आज वहां पर बलि प्रथा समाप्त हो चुकी है. प्रतीकात्मक बलि तो आज भी दी जाती है पशु हत्या पर रोक लग चुकी है. . उत्तराखंड ने अभी भी इस प्रथा को कायम रखा है.
गढ़वाल क्षेत्र में, बुन्खाल में काली माँ का थाल है यहाँ पर हर वर्ष मार्गशीर्ष के महीने में भव्य मेला लगता है दूर दूर तक के लोग यहं मेला देखने, अपनी मनोती मनाने और पूर्ण हुई मनोती की पूर्णाहुति देने पहुँचते हैं .
घटना कुछ सत्य बातों पर आधारित है, उनिस्व्वी शताब्दी के उतरार्ध में किसी समय कुछ गाँव के बच्चे इन खेतों के पास गाय बछियों के साथ खेलते रहे किसी विवाद या खेल के कारण इन बच्चों ने किसी लड़की को गढ़े में गाढ़ दिया और सारे बच्चे घर चले गए किन्तु उस लड़की को बाहर निकालना भूल गए फलस्वरूप उसकी म्रत्यु हो गयी जब घर में खोज की गयी तो उसका कही पता नहीं चला . कहते है उस लड़की ने अपनी माँ को सपने में अपने मरने की व्यथा सुनाई और ये भी कहा की मुझे वहां से मत निकालना मैं देवी के रूप में परवर्तित हो चुकी हूँ . कहते है कभी देर रात्रि तक जो लोग घर नहीं पहुँच पाते थे या किसी प्रकार का खतरा होता था तो वह आवाज देकर उन्हें सचेत करती थी जंगली जानवरों से , लुटेरों डाकुओं आदि खतरों से स्थानीय लोगो को सचेत करती रहती थी . सचेत ही नहीं सुरक्षा भी करती थी
बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में गढ़वाल में गोरखे आततायी बन कर आये इसी समय गढ़वाल की सुरक्षा के लिए गढ़वाल नरेश ने ब्रिटिश शासन से मदद मांगी थी . उस समय भी काली ने लोगों को सुरक्षा के लिए सचेत किया था उसकी आवाज गोरखों के कानो में पड़ी और उन्होंने उसे गढ़े से निकालकर उसी गढ़े में उल्टा गाढ़ दिया तब से उसकी आवाजे लगनी बंद हो गयी .
इसी महत्व के कारण यहाँ पर प्रारंभ से ही मेला लगता रहा और पशु बलिया होती चली आ रही हैं. सैकणों निरीह भैसा ( बागी) और मेढ़ो (खाडू) की बालियाँ दी जारही हैं.
कुछ समय से प्रशासन यहाँ लोगों को चेतावनियाँ देता आ रहा था कई बार पुलिस बल तैनात भी किये गए कितुं आस्था का सैलाब पुलिस और प्रशासन को बौना कर देता और वे सिर्फ मेले के दर्शक बन कर रह जाते . सुना है इस बार प्रशासन ने पहले ही इसके लिए कुछ व्यवस्था बनाई और किसी सीमा तक सफलता भी प्राप्त की अर्थात कुछ लोगो ने प्रशासन के रुख को देखते हुए अपने कार्यकर्म या रद्द कर दिए या उन में परिवर्तन किया जो लोग पशुओं को लेकर वहां पहुचे उन्हें रोका तो नहीं कितु उन्हें परंपरागत तरीके से बलि देने में परेशानी हुई क्योंकि मुख्य हन्ता ( जो सबसे पहले पशु पर तलवार आंशिक रूप से चलाता है) भी अनुपस्थित रहे .
खबर है की अब प्रशासन उन पर मुकदमें चलाने की फिराक में है. अन्ततोगत्वा अब लोग भी धीरे धीरे जागरूक होते जा रहे हैं . इस सारी सफलता के लिए स्थानीय गाँव के लोग ही स्वयं आगे आये आशा है भविष्य में इस पर पूरी तरह से रोक लग सके कानूनी रोक जरूरी नहीं है लोगो की जागृत भावना इस दिशा में काम करे त्तभी सफलता मिलेगी . बुन्खाल का तो मात्र जिक्र है ऐसी कई जगहे है जहा पर सामूहिक रूप से इस तरह की पशु बलि का आयोजन होता है. और लोग अपने स्वार्थ को सिद्ध करते पाए जाते हैं.
मां काली उन्हें सद बुद्धि प्रदान करे और इन पशुओं की अभिवृद्धि हो सके जो अब इन बालियों के कारण लुप्त होने के कगार पर हैं.
इस सौन्दर्य के बीच जघन्यता।
जवाब देंहटाएंकालिंका देवी के बारे में बहुत अच्छी पौराणिक जानकारी प्रस्तुति हेतु आभार!
जवाब देंहटाएंइस बार कुछ लोगों ने बलि की कोशिश की लेकिन सख्ती के कारण रोक लगने में सफलता मिली है ..यद्यपि लोगों ने पहाड़ की चोटियों में जाकर जहाँ से देश का निशान दिखता है उसे देख बलि के खाडू, भैसों की बलि दी. अगले वर्ष ऐसी नौबत नहीं आये ऐसी उम्मीद है ..
उत्तम रचना
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