शनिवार, 31 जुलाई 2010

chitthi aayi hai

आज ३१ जुलाई है और इसे  चिट्ठी दिवस के रूप में मनाया जा रहा है . इस बात कि खबर आज के अखबार में छपी हुई थी . अर्थात आज के दिन भूले बिसरे  चिट्ठी को दुबारा लिखने का एक प्रयास .  क्या वास्तव में लोग एसा करेंगे . यदि एसा हुआ तो डाक विभाग कि चांदी  हो जायगी. क्योंकि  जब से इ मेल का जमाना आया तो लोगो नें  अपनों को हस लिखित ख़त  लिखना बंद कर दिए हैं. . मैंने स्वयं १९९३ के बाद शयद ही कोई पत्र लिखा हो , याद  नहीं आता . अब इसी तरह अन्य लोगों ने भी लिखना छोड़ दिया हो तो हजारों लाखो लोगों ने लिखना छोड़ा होगा . जबकि मेरा जैस आदमी आज भी अपनों के लिए ईमेल जैसा साधन का इस्तेमाल नहीं कर पाता.
हाँ अखबार में एक बात जो रोचक  लिखी थी वह पहली चिट्ठी का इतिहास .  अखबार के अनुसार  चिट्ठी पहली बार इंग्लैंड में ३१ जुलाई कोई ही पोस्ट कि गयी थी किन्तु दुःख इस बात का है कि इंग्लैंड का इतिहास रखने वालों को अपने देश का इतिहास नहीं मालूम . कि पहली चिट्ठी इस देश कब पोस्ट हुई  कहाँ पोस्ट हुई . इसका कुछ  भी पता नहीं मालूम . इंलैंड में जन्मी चिट्ठी का जन्म दिवस मानाने के लिए हम पलक  पांवड़े  बिछा के बैठे हुए हैं .
 इससे भी कोई अंतर नहीं आता है कम से कम चिट्ठी कि याद तो आई .  शयद कई लोगों ने आज इस खबर पढने के बाद चिट्ठी लिखी भी हो . यह एक अच्छी खबर हो सकती है. कुल मिलाकर हमें चिठ्ठी लिखना जारी रखना चाहिए इसके पीछे बहुत से कारण हैं. जैसे हस्त लिखित से भावना के आदान  प्रदान से गूढता बढती है संबधों में प्रगाढ़ता आती है , सुसुप्त  पड़ा  डाक विभाग के कर्चारियों के रोजगार बढ   सकेगा . चिट्ठियों के प्रचालन बंद होने कारण डाक विभाग के पास काम की  भारी कमी हो गयी है. और इसके चलते विभाग को अन्य कार्यों जैसे बैंकिंग , इंश्योरेंस  में लगना पड़ा और अपने कर्मचारियों के लिए वेतन का जुगाड़ करना पड़ा .

आशा है सभी लोग इस दिशा में पुन: थोड़ी दिलचस्पी लेकर पुरानी यादों को साकार करने का कष्ट करेगे  और  फिर गाने लगें डाकिया डाक लाया , डाकिया डाक लाया !!!!!!.

बुधवार, 14 जुलाई 2010

shiksha aur bharat

 पढ़ते सहस्रों शिष्य हैं, पर फीस ली जाती नहीं
उच्च शिक्षा तुच्छ धन पर बेच दी जाती नहीं .
ये शब्द हैं राष्ट्र कवि मैथलीशरण  गुप्त की.   भारत देश विश्व गुरु था . और अब विदेशी संस्थाएं  भारत को पढ़ने के लिए तैयार  बैठी हैं.   कल यह विश्व गुरु  विश्व शिष्य कहलायेगा .  कण्वाश्रम, तक्षशिला, और नालंदा विश्वविदालय  अब सिर्फ इतिहास बन कर भुला दिए जायेंगे.  याद करने के लिए आक्सफोर्ड , कम्ब्रिज़ आदि युनिवार्सित्यां  हमारे समक्ष पेश हो जायेंगे .
अब ऐसा  तो होगा ही . जब प्राथमिक विदालयों में पढाई का स्तर नगण्य हो चूका है. ग्रामीण क्षेत्र में  कक्षाओं में अध्यापक अपने घरेलु कार्यों में व्यस्त रहते  हैं . और जब वे उपलब्ध होते हैं तब सरकारी कम इतना अधिक हो जाता है कि पढ़ना उनके लिए टेढ़ी खीर  बन जाती है . आज कल  भी ऐसा ही हो रहा है. भारत में जनगणना का कर चल रहा है स्कूल खु चुके हैं किन्तु गुरूजी लोग जनगणना के कार्य  में व्यस्त हैं.  और जो समाया बचता है उसमे  भी अब चुनाव पहचान पत्र , एवं वोटर लिस्ट बनाने में  बीत रहा है. तो गुरु लोग भी करें तो करें क्या ?  इस तरह इनका पढ़ने का मुहूर्त ही नहीं निकल पता है. अब बच्चे  भी क्या करें स्कूल जाकर  इतिश्री कर आते हैं. किसी तरह साल बीत  जाता है और बच्चों को अगली कक्षा में प्रोनत कर दिया  जाता है.
विभिन्न  राज्य सरकारें  कन्या शिक्षा पर भी धन खर्च कर रही हैं फिर भी  उत्साह जनक परिणाम नहीं देखने को मिलते हैं.  यद्यपि विद्यालयों में संख्या तो बढ़ी है  परन्तु गुणवता शुन्य स्तर पर चली गयी है.  इसी कारण लोग पुलिस स्कूलों में महगी शिक्षा देने के लिए मजबूर हैं. और सरकारी हील हवाली   के कारण   ही शिक्षा का व्यवासयिकी करण हो चूका है. और इस परिपाटी आम आदमी  इन स्कूलों पढ़ा भी नहीं सकता . क्योंकि इनके खर्चे अत्यधिक हैं. एवं धिकल परिक्रिया में बच्चे और साथ में माँ बाप का इंटरव्यू  लिया जाता  है . और फिर अनपढ़ माँ बाप के बच्चे  पढने से बंचित रह जाते है.  इन पब्लिक स्कूलों कि परिक्रिया मूल अधिकारों के विपरीत है.
आज केंद्र सरकार शिक्षा का नया अधिनियम घोप्षित कर चुकी है परन्तु इन खामियों को क्या इस अधिनियम के तहेत चाक चोबंद कर दिया गया है. सरकार तो नियम और कानून बनाती है  किन्तु नौकरशाही  इसका दुरुप्युओग कर व्यवस्था को चोपट कर देते है.  हमरे देश कि नौकर शाही देश के लिए दीमक बन गयी है. इसे सुधरने कि आवश्यकता है.
शयद इन सब कारणों को देखते हुए उच्च शिक्षा के लिए सरकार ने विदेशी शिक्षा स्संस्थानों को देश में बुलाने इरादा बनाया हो .
प्रतिष्ठाओं कि इस देश में कमी नहीं रही, न है , किन्तु उपयोग नहीं हो पता है. विदेशो में जा कर हमारी प्रतिष्ठाएं अपना लोहा मनवा चुकी है.
इसलिए इसतरह कि व्यवस्था होनी चाहिए जिस में हर गरीब परिवार को आसानी से शिक्षा गुन्वातापरक मिल सके. अध्यापकों को सिर्फ शिक्षा के कार्यों में ही लगाना चाहिए . जनगणना मतगणना मतदान , आदि सरकारी सर्वे  में प्रायमरी अध्यापकों को बिलकुल  नहीं लगाना चाहिए . सबसे पहले प्रायमरी शिक्षा के स्तर को ही ठीक करना पड़ेगा.  तभी उच्च  शिक्षा कि बारी आती है.

सोमवार, 12 जुलाई 2010

band ka prakop

अभी ५ जुलाई को मैं देहरादून में था सभी विपक्षी पार्टियों ने बंद का आवाहन किया हुआ था . बंद सफल हुआ लग रहा था क्योंकि उस दिन देहरादून में भरी मात्रा में बारिश हो रही थी  मानो  प्रकृति  भी उनका साथ दे रही हो, या उन्हें यह कह कर तरसा रही हो कि कहो कैसा रहा आपका बंद!  उन्हें मुंह चिढ़ा रही हो .  थोड़ी सी परेशानी मुझे भी हुई क्योंकि मैं उस दिन दिल्ली  से छुटि लेकर  बेटे का  श्कूल में अद्मिस्सिओन करवाने गया हुआ था, कुछ स्कूल तो खुले मिले किन्तु जो पसंदीदा स्कूल थे वे बंद थे . इस लिए भी मेरा कम अगले दिन  के लिए स्थगित हो गया.
बंद  के कारण कई शहरों में स्थिति ख़राब थी इसी खबरें सुनाई दी  . मैं बचपन में भी कुछ लिखने का शौक  रखता  था  तब भी में एक लेख  लिख था कि ७२ घंटे का बंद  देश को ७२ वर्ष पीछे  धकेल देता है.  यद्यपि यह लेख प्रकशित न हो सका. किन्तु मेरा मानना आज भी यही है. देश में बंद करने का कोई औचित्य नहीं है . शक्ति प्रदर्शन का कोई भी उचित औजार नहीं  है.
 आखिर बंद के बाद आपको क्या क्या मिला ? लाखो  करोड़ों का कारोबार  संगठित  और असंगठित क्षेत्र से  नुकसान हुआ . बकिंग क्षेत्र में भी समाशोधन रुकने कारण अरबों का व्यापार ठप्प रहा .  हजारों कर्मचारियो काम पर न जा सके धिहादी मजदूर, त्ठेली वाले रेहड़ी वाले पान वाले आदि इस प्रकार के कई वर्ग  जो रोज कुंवा खोदते हैं और रोज पानी पीते हैं का क्या बुरा हाल हुआ होगा . इसका आकलन करना बहुत कठिन है.
संभतः तेल की कीमतें इतनी  भी न बढ़ी हो जितना की बंद ने नुसान कर दिया है. अब आप यह मत कहें कि कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है.  बंद एक दिन का एक बर्ष तक उसकी भरपाई नहीं हो पाती है.  महगाई को रोकने के बजाय आग में घी डालने वाला काम हो गया है.
आतंक बाद के समय पंजाब में भी aye  दिन उग्र्बादी संगठन कोई न कोई बंद करके रखते थे किन्तु मैं उस समय भी बंद के दिन कभी छुटि नहीं करता था .
यदि राजनितिक पार्टियों  को महगाई रोकने के समिलित उपाय करने हों तो सिर्फ मंत्रियों  को ही क्यों न बंधक बना लेते हैं . इससे त्वरित  कार्यवाही होगी. किन्तु इसका एक और दुष्परिणाम भी होगा कि कल आतंकवादी लोग भी इस तरह का काम राजनितिक पार्टियों के द्वारा  करवाने लगेंगे .  इस लिए सबसे अच्छा तो संसद ही है यहाँ  पर आप पूरी शक्ति दिखा कर सरकार को झुका सकते हैं.  प्रजातान्त्रिक तरीके  ही इन बातों में कारगर सिद्ध होते है.
हड़ताल या बंद ( असहयोग आन्दोलन) इसकी उत्पति महात्मा गाँधी जी ने अंग्रेजों के खिलाफ  कि थी. आज यही अपना स्वरुप बदल चूका है. पार्टियाँ अपना हित देख कर इसका इस्तेमाल कर रहे हैं.
अंत में  मैं तो इतना कहना चौंग कि देश को नुक्सान नहीं उसकी तरक्की में साथ देना चाहिए . बंद जैसा हथियार हर प्रकार से अवनति का रास्ता  तैयार करता है .