शनिवार, 7 अगस्त 2010

तुम माँ हो ! !

माँ एक शब्द नहीं !
माँ ब्रम्हांड है !
माँ पृथ्वी   है!
माँ अनंत है, आकाश है !
माँ शील है, विराट है शक्ति है !

माँ एक शब्द नहीं!
माँ  केवल नारी नहीं !
वह तो छांव है 
वटवृक्ष है !
वह पत्नी है बेटी  है
बहिन है !
दादी है या नानी है
वह   तो माँ है !
माँ कि कोख में आने के लिए ,
उसे पूछना  नहीं पड़ता !
वह  तो धन्य मानती है  सौभाग्य समझती है !
जन्म लेने वाला तो धन्य हो ही जाता है !
कि उसे माँ मिल जाती है !
आशीर्वचन ग्रहण करती है जीवन भर
सौभाग्यवती, संततिवती  या चिरंजीवी!
वह  व्रती है ! दृढ है और क्षमाशील है!
निश्छल है , निर्विकार है !
नि:शब्द है !
यह तो प्रकृति का वरदान है !
माँ को शिकायत नहीं ,
सभी को बराबर देती
आंचल में प्यार और दुलार !
तुम तो समुद्र हो !
शांत हो गहराइयों तक !
तुम जननी हो !
तुम वन्दनीय हो !
तुम अतुलनीय हो !
तुम नमनीय हो !
तुम नारी ही नहीं !
तुम एक शब्द नहीं !
तुम माँ हो ! !

( मैंने लगभग बीस साल बाद इस कविता कि रचना कि है. इसकी परिणिति  घुगुती बासूती में "माँ" कविता है जिसने मुझे भी झक्जोर दिया है  यह उनकी कविता कि प्रतिक्रिया कहें या एक नया जागरण. मुझे उनकी कविता में यह महसूस हुआ है एक नारी कही दमनीय, दयनीय , कमजोर है  ऐसा उन्होंने माँ कविता में भाव दिया है किन्तु मैं माँ को दुनिया कि सबसे शक्तिशाली  भाग्यशाली  मानता हूँ  )- गिरधारी खंकरियाल