निस्तब्ध शून्य के नीचे यह कोलाहल सा कैसा !
अधिकार विकृत जीवन का स्वार्थ कैसा !
निरा सा धुंवा कर्तब्य का कैसा !
माँ भारती ! अपहृता- अनादि योद्धा, हिमगिरी मौन साधे कैसा!
तिरोहित मनः स्थिति में, निर्निमेष अवलोक रहा कैसा !
विक्षिप्त जीवन की व्यथा है, यह प्रलय का द्वार है कैसा!
छा रहा हिमगिरी के नेत्र पटल पर, अन्धकार सा कैसा!
शांत ! नीरव! पवन तपोभूमि थी यह ,
कुरुक्षेत्र सी रणभूमि, यहाँ कोलाहल सा कैसा!
हिंसा के गौरव कुंडली कुरुक्षेत्र के कौरव,
नवजात अभिमन्यु के लिए, धर्मव्यूह रचाया है कैसा!
सभी बन कर योद्धा, एक दूसरे की परछाई,
द्वेष, द्वंद्व, अनीति, घृणा पर सहज उतर आयी!
परन्तु ! न कर्ण वीर शेष हैं, दानव पन अभिशेष है!
धर्मभीरु ! धर्मयुद्ध ! के लिए यह कौरव नृत्य कैसा है!
निरपराध जन द्रोपदी ! चीर हरण अपमान को झेल रही है !
मौन खड़ी साधना में, सहायतार्थ कृष्ण को पुकार रही है!
या फिर स्तब्ध खड़े हिमगिरी को, ढह जाने को कोस रही है !
पापंकी बना दिया इस देश को कैसा !
अराजकता का आधुनिक दुर्योधन कैसा !
माँ भारती ! अश्रुपूरित नयनो का यह माणिक हार कैसा !
रुदित कंठ से भीरु बने, धर्म पुजारी !
यह खंडित खेल, मौन निहारते मधु विहारी !
क्यों ?
अरे ! आदि पुरुष हिमगिरी के सम्मुख यह निर्मम नाटक कैसा !
(कविता २१ फरवरी १९८४ को लुधियाना में लिखी थी कितु प्रकाशित न करवा सका. संभतः मेरे तब का आशय और की आज स्थिति में समानता है )
अधिकार विकृत जीवन का स्वार्थ कैसा !
निरा सा धुंवा कर्तब्य का कैसा !
माँ भारती ! अपहृता- अनादि योद्धा, हिमगिरी मौन साधे कैसा!
तिरोहित मनः स्थिति में, निर्निमेष अवलोक रहा कैसा !
विक्षिप्त जीवन की व्यथा है, यह प्रलय का द्वार है कैसा!
छा रहा हिमगिरी के नेत्र पटल पर, अन्धकार सा कैसा!
शांत ! नीरव! पवन तपोभूमि थी यह ,
कुरुक्षेत्र सी रणभूमि, यहाँ कोलाहल सा कैसा!
हिंसा के गौरव कुंडली कुरुक्षेत्र के कौरव,
नवजात अभिमन्यु के लिए, धर्मव्यूह रचाया है कैसा!
सभी बन कर योद्धा, एक दूसरे की परछाई,
द्वेष, द्वंद्व, अनीति, घृणा पर सहज उतर आयी!
परन्तु ! न कर्ण वीर शेष हैं, दानव पन अभिशेष है!
धर्मभीरु ! धर्मयुद्ध ! के लिए यह कौरव नृत्य कैसा है!
निरपराध जन द्रोपदी ! चीर हरण अपमान को झेल रही है !
मौन खड़ी साधना में, सहायतार्थ कृष्ण को पुकार रही है!
या फिर स्तब्ध खड़े हिमगिरी को, ढह जाने को कोस रही है !
पापंकी बना दिया इस देश को कैसा !
अराजकता का आधुनिक दुर्योधन कैसा !
माँ भारती ! अश्रुपूरित नयनो का यह माणिक हार कैसा !
रुदित कंठ से भीरु बने, धर्म पुजारी !
यह खंडित खेल, मौन निहारते मधु विहारी !
क्यों ?
अरे ! आदि पुरुष हिमगिरी के सम्मुख यह निर्मम नाटक कैसा !
(कविता २१ फरवरी १९८४ को लुधियाना में लिखी थी कितु प्रकाशित न करवा सका. संभतः मेरे तब का आशय और की आज स्थिति में समानता है )