आओ लौट चले प्रकृति की ओर!
कहाँ हिमखंडों का ढेला,
कहाँ नदियों का जल प्रवाह,
हो रहे वन भी कंगाल
देखो ! कहाँ खिचीं जा रही जीवन की डोर,
आओ लौट चले प्रकृति की ओर !
नष्ट हुए खेत खलिहान ,
नग्न हुई पर्वत श्रृंखलाएं,
तोड़ इन्हें, सड़क हुयी परवान,
सूखे जल स्रोत,
और जल दायिनी गंगा यमुना भी रुग्ण है
आओ लौट चले प्रकृति की ओर !
जब हिम था, वर्षा थी, तो था अन्न- धन,
अब सूख गए वृक्ष वनों के, आकुल हुआ मन,
सूखे जल स्रोत, देते हैं पीड़ा मन को प्रति पल,
कहाँ कलनिनाद है जल प्रपातों का, प्राणी है विकल !.