बुधवार, 15 जून 2011

एक और घर पर ताला लगा ही दिया है!

  "अस्त्युत्तरस्याम दिशी देवतात्मा .हिमालयो नाम नगाधिराज :,
   पूर्वापरो तोयनिधि वगाह्या ,स्थित :पृथिव्याम एव मानदंड : ||  "
कुमारसंभव का प्रारंभ  करते हुए महा कवि कालिदास ने जिस हिमालय पर्वत को नगाधिराज की उपाधि प्रदान की उस नगाधि राज की प्राकृतिक सम्पदा, सुन्दरता  और वैभव  की असीम  ख्याति पूरे विश्व में फैली हुई है . यह  कालिदास की मात्र कल्पना नहीं थी बल्कि सजीव  और वास्तविक जीवन को धारण करने वाले पर्वत की स्तुति थी. जिस तरह पूरा विश्व आज इस नगपति के जीवन से कुछ न कुछ प्राप्त कर लेना चाहता है अपनी पताकाओं से हर व्यक्ति अपने को इस ऊँचे हिमालय की तरह ऊँचा प्रदर्शित करने की होड़ में लगा हुआ है  तो निसंदेह यह नगपति वैभवशाली  ही है .

पर्यटकों को  आकर्षित करने वाला हिमालय और हिमालयी क्षेत्र  तो पर्यटन  और घुमक्कड़ी के लिए स्वर्ग  है .
अभी जहाँ फरवरी  और मार्च में उत्तराखंड के जंगल  बुरांस के लाल फूलों की  रक्ताभ चादर सी ओढ़े हुआ था  वही आजकल ( मई और जून) में काफल , हिसोरा  और किन्गोड़े  से  लद पद है .  जंगलों में घुमक्कड़ी  करने और इन फलों को पेड़ो से तोड़ कर खाने का  आनंद ही स्वर्गिक  है.  
 हिमालयी क्षेत्र  उत्तराखंड  देव भूमि कहलाता है  यहाँ देवताओं के निवास के लिए  तो सभी सुख उपलब्ध  है . किन्तु मानवीय जीवन  अत्यंत  विकट है .  इस क्षेत्र की बड़ी विडम्बनाएं  है . यहाँ से निकलती हुई गंगा यमुना  पूरे देश को सींचती हुई, प्यास को तृप्त करती हुई, अरब सागर में जा मिलती है शेष जल के निष्पादन  के लिए . यह क्षेत्र इन इठलाती नदियों  पर गर्व भी महसूस  करता है  मैती  होने का. परन्तु पानी तलहटी से बहता चला जाता है  और खेत इन  गाँव के सूखे के सूखे .  वनस्पतीय, एवं औषधीय  सम्पदा का दोहन  का लाभ भी इस क्षेत्र  को  नहीं मिल पाता है. क्योंकि इन पर सरकारी नियंत्रण है .

  जब तक शिक्षा का प्रसार  नहीं था तब से ही क्षेत्र के लोग आजीविका  के लिए मैदानी  शहरो की ओर जाते रहे . यद्यपि खेती से होने वाले उत्पादन से साल भर का अनाज तो उपलब्ध होता था दूध , घी, शहद  की भी प्रचुरता  रही  है   जनसँख्या कम  थी . अब परिस्थितियां बदली हुई है शिक्षा में तो उत्तराखंड देश के सबसे अधिक शिक्षित राज्यों में से एक है किन्तु  बढती जनसँख्या के हिसाब से खेती का उत्पादन,  जो आसमानी बरसात पर निर्भर रहती है,   कम होता चला गया  और शिक्षा के कारण पारंपरिक खेती से युवाओं  की   रूचि और ध्यान हटता चला गया .  और वे रोजगार की खोज में पलायन करते चले गए और शहरों की  अंधी गलियों में गुमनाम  होते चले गए

पलायन से  कई लोग तो इन शहरों में पूर्णतया रच बस गए और कुछ दो नावो में पैर रख कर अपने को संभाले हुए हैं . उतराखंड को राज्य बने हुए लगभग दस वर्ष पूरे हो चुके है कितु  पलायन  को अभी भी रोका न जा सका. समस्या इतनी गंभीर है की गाँव के आस पास  सरकारी नौकरी करने वाले लोग भी गाँव छोड़ कर राज्य की राजधानी  देहरादून में जाकर बस जाना चाहते हैं . गाँव के गाँव खाली होते चले जा रहे हैं.  कई गाँव तो ऐसे मिलेगे जहाँ पुरुष  नाम की  चीज नहीं  है  शव दाह तक का कार्य महिलाओं को करना पड़ता है .  जब कोई व्यक्ति शहर में नौकरी  करता है तो उसका वहां पर मकान खरीदना, बच्चों की परवरिश हेतु धीरे धीरे बस जाना  तो कुछ समझ आता है किन्तु जो लोग गाँव से जायदाद बेच कर, पास के स्कूल में नौकरी करते हुए शहर में बसने की चाहत लिए हुए हैं या बस गए है मेरी समझ से परे है . यद्यपि जीवन वहां पर अति विकट है परन्तु ये कैसी समझदारी ?
अब कुछ इसी तरह के शिकार मेरे परिवार  के लोग भी होते जा रहे है  पांच चाचा ताउओं के हम पंद्रह भाई है  दो तीन को छोड़ कर  सभी नौकरी  पेशा है  कुछ उत्तराखंड से बाहर है तो कुछ घरेलु जनपद में ही . सभी में पूज्य बड़े भाई  सभी पारिवारिक कार्यों  जैसे विवाह समारोहों, पूजा  आदि सभी  में अग्रणी रहा करते हैं सभी उन्हें समादर  भी करते है. उन्होंने पूरा जीवन डाक विभाग में  E D A कर्मचारी की तरह  वही के लिए समर्पित कर दिया  पढ़े लिखे थे  उस समय पर विभागीय परीक्षाओं के द्वारा वे भी बाहर जा सकते थे किन्तु    नहीं  गए  . उनके दो पुत्र है बड़े वाले गाँव में ही आजीविका  का जुगाड़ करता है किन्तु  छोटा मुंबई में रहता है . बड़े बेटे  से सम्बन्ध भी थोडा ढीले  हैं भाभी जी का भी देहांत हो गया है . अब  वे छोटे बेटे के बच्चों की देखभाल में व्यस्त थे  किन्तु उसने भी अपनी समस्याओं  के मद्देनजर बच्चों  को मुंबई ले जाने की ठान ली.  अब समस्या  थी बड़े भाई साहब की खान पान की  व्यवस्था   का, तो वे साथ  में जाने को तैयार हुए चाहे वेमन  से ही .
इस बात की मुझे पहले खबर मिली  किन्तु एकाएक विश्वास सा नहीं हुआ  किन्तु अभी दो दिन पूर्व देहरादून में  जाकर पाता चला की वे सचमुच  चले  गए है  भाई  साहब की उम्र  लगभग ७६ वर्ष की होगी  अर्थात अब वे हर पारिवारिक  कार्य से भी वंचित रह जायेंगे  एक तो वृद्ध  शरीर और दूसरा आर्थिक  पहलु . दोनों ही भारी पड़ेगें.
 और आखिर कर इस विभीषिका ने एक और घर पर ताला लगा ही  दिया है.  हम लोग भी न जाने कब मिल पाएंगे  यह पता नहीं है .