शुक्रवार, 24 जून 2011

अनुशासन की कीमत - अपराध बोध

अनुशासन  मनुष्य के जीवन के  लिए  महत्व पूर्ण   है  अनुशासन को बनाये  रखने के लिए व्यक्ति तरह तरह  के यत्न करता रहता है  कभी इसे बनाये  रखने के लिए अनुशासन तोड़ता भी है . और न जाने किस किस को कितनी सजा देता है  इसकी कोई मानक सीमा तय नहीं है,  कभी स्वयंम को , तो कभी  बच्चों को, कभी समाज के किसी वर्ग को, या अपने अधीनस्थ  व्यक्ति को, कही न कही अनुशासन का डंडा चलता रहता है. हमें ये भी न पता चलता की सजा किसे, क्यों और कितनी दी जा रही है, चाहे इसके आगे बच्चे ही क्यों न हों. परन्तु अनुशासन शब्द ही ऐसा है  झेलना पड़ता है. इस शब्द की परिधि में जो आता है बच नहीं पाता है. और कई बार तो सजा देने वाला इस सजा के नाम पर स्वयंम अपराध कर बैठता है . जब पता चलता तब तक देर हो चुकी होती है, तत्पश्चात स्वविवेकी मनुष्य के पास शेष रहता सिर्फ अपराध बोध .  

अभी अभी ब्लाग पर मोनिका शर्मा का एक लेख पढ़ा जिसमें उन्होंने बच्चों पर होने वाले दंडात्मक कार्यवाहियों    का विश्लेषण किया है.  ये सारे काम लगभग सभी  अभिभावक,   अनुशासित होने के दंभ पर, यदा  कदा कर ही जाते है . पहले की पीढियां  भी करती आई  हैं, और आज की भी  जारी  रखे हुए है किन्तु आगे कुछ परिवर्तन की आशा बनी हुई दिखाई देती है.
 अरस्तु ने लिखा था बच्चे पर अपनी अभिलाषा मत थोपिए उसे छोड़  दीजिये और स्वयं ही उसके अंदर का मनुष्य विकसित  होकर बाहर निकलेगा. किन्तु हम है की पैदा होते ही उसे बड़ा देखने लगते है थोपने लगते है अपनी  आकांक्षाएं और फिर हो  शरू हो जाता है सजाओं का दौर, घर में, स्कूल में, खेलते पढ़ते,  और बोलते हुए अनुशासन के नाम पर.

इन सजाओं के बाद जो अपराध बोध होता है वह अति विकट होता है  बजाय कि सजा देने के बाद मिली ख़ुशी के.  मैं स्वयम इस अपराध बोध का शिकार हूँ . कई बार तो सोचने के बाद निराशा सी होने लगती है  आखिर मैंने ऐसा क्यों किया  परन्तु अब कुछ नहीं हो सकता भूत काल के विषय में . वर्तमान  में सुधार कि प्रक्रिया जारी है. आदमी समय के अनुसार अपनी अक्ल लगता रहता है  और अक्ल और उम्र का मिलन नहीं हो पाता जीवन भर.
मेरे भी दो बेटे है  बड़ा बेटा अभी १२ वी का छात्र है छोटा पांचवी  में. बड़ा बेटा बचपन से ही थोडा चुस्त था  उसके साथ मुझे  अधिक समय  नहीं लगाना पड़ा  पढने में भी ठीक ठाक था थोडा शरारती अवश्य था  थोड़ी बहुत कभी पढाई पर मारा होगा किन्तु याद नहीं है  परन्तु तीन घटनाये  अच्छी तरह याद है जब उसने साथ के बच्चो के साथ एक शब्द सीखा  था " कुटा"  परन्तु उसके मुंह से सुनाई   पड़ता था " कुता" कई बार समझाने का यत्न  किया किन्तु जारी रहा कुटा. मुझे तब तक समझ  नहीं आया  था  असल कहता क्या है  कई बार तो आने जाने वालो को  भी परोस दिया गया था  यह शब्द . फिर एक दिन मुझे गुस्सा आया और माचिस  जला कर उसके मुंह पर ले गया, बस  उस दिन के बाद इसकी पुनरावृति बंद हो गयी.  परन्तु मुझे बाद  में बताया गया कि ये तो बच्चे नाराज होने पर ऐसा शब्द प्रयोग कर लेते है  तब बड़ी आत्म ग्लानि हुई.  दूसरा मौका था  जब वह अपनी बुआ के घर से खिलौना उठा लाया  और बाद में पता चला कि उन्होंने नहीं दिया बल्कि महोदय स्वयं लेकर आ गए  तब  भी मार पड़ी थी  किन्तु परिणाम सकारात्मक  रहे. तीसरी बार पांचवी में था घर में कुछ मेहमान आये थे, उनके बच्चों के साथ दूर चौराहे  तक चले गया परन्तु जब मार पड़ी तो आज तक कहीं भी जाता है तो पूछ कर या बता कर जाता है .
नितीश  और सार्थक
छोटे बेटे की  अजब कहानी है पहले दो साल तो वह न बोलता था न चलता था  डर था कही अपंग  न हो जाय. जब स्कूल भेजा तो अगले दो साल तक तो स्कूल से लगातार शिकायत रही कि यह न तो बोलता है न ही काम  करता है  घर में भी इसी तरह का सिलसिला था  अब पढाना भी था, जब सारे थक जाते तो मुझे बुला लाते, मैं हाथ उठाने के कारण  थोडा दूर ही रहता था . उसके लिए थप्पड़ का प्रयोग नहीं क्या किन्तु एक रस्सी थी मैं उससे बाँधने  का प्रयास करता  कि वह काम पर जुट जाता और होम वर्क  समाप्त . उसके बाद धीरे धीरे सुधार भी हुआ परन्तु आज भी स्थिति लचर है कुछ दिन तक ही यह प्रक्रिया रही परन्तु उसके बाद से याद नहीं है कि कभी  हाथ उठाया हो बिना  वजह के . आज भी जब पढने बिठाते है तो कभी लेट जायेगा, बैठेगा  तो पेन्सिल खो जायेगी,  या प्यास लग  जाएगी, फिर रबड़, कुछ देर बाद कापी भी मिलनी मुश्किल जाती है. धीरे धीरे भूख सताने  लगती है और " मम्मी भूख लग रही है "  और फिर कुछ देर बाद सब कुछ अगली  सुबह तक  के लिए  खो जाता है  बच्चा गहरी नींद में होता है  जगाने से भी नहीं जगता . पहाड़े  याद करने के नाम पर मैंने एडी  चोटी का जोर मार लिया किन्तु दस से आगे नहीं बढ़ पाए यद्यपि बुधि का स्तर तो तेज  है किन्तु स्तेमाल नहीं हो  पा रही है.   अब तो पिछले डेढ़ साल से मैं दिल्ली में और वे देहरादून  में, दूरी बनी हुई है.  इसके साथ मुझे कई प्रयोग करने पड़े , पढने और पढ़ाने  के लिए .
अब इतनी  दूरी पर हूँ  फोन पर ही संवाद बन रहता है दो एक महीने में मिलना हो पाता है   तब उन्हें  दी हुई सजा का मुझे अपराध बोध बना रहता है . बड़े बेटे को प्रेरित करता रहता  हूँ उसे भी पढ़ाने के लिए.  यही विकल्प टुय्सन से अच्छा  लगता है.              

बुधवार, 15 जून 2011

एक और घर पर ताला लगा ही दिया है!

  "अस्त्युत्तरस्याम दिशी देवतात्मा .हिमालयो नाम नगाधिराज :,
   पूर्वापरो तोयनिधि वगाह्या ,स्थित :पृथिव्याम एव मानदंड : ||  "
कुमारसंभव का प्रारंभ  करते हुए महा कवि कालिदास ने जिस हिमालय पर्वत को नगाधिराज की उपाधि प्रदान की उस नगाधि राज की प्राकृतिक सम्पदा, सुन्दरता  और वैभव  की असीम  ख्याति पूरे विश्व में फैली हुई है . यह  कालिदास की मात्र कल्पना नहीं थी बल्कि सजीव  और वास्तविक जीवन को धारण करने वाले पर्वत की स्तुति थी. जिस तरह पूरा विश्व आज इस नगपति के जीवन से कुछ न कुछ प्राप्त कर लेना चाहता है अपनी पताकाओं से हर व्यक्ति अपने को इस ऊँचे हिमालय की तरह ऊँचा प्रदर्शित करने की होड़ में लगा हुआ है  तो निसंदेह यह नगपति वैभवशाली  ही है .

पर्यटकों को  आकर्षित करने वाला हिमालय और हिमालयी क्षेत्र  तो पर्यटन  और घुमक्कड़ी के लिए स्वर्ग  है .
अभी जहाँ फरवरी  और मार्च में उत्तराखंड के जंगल  बुरांस के लाल फूलों की  रक्ताभ चादर सी ओढ़े हुआ था  वही आजकल ( मई और जून) में काफल , हिसोरा  और किन्गोड़े  से  लद पद है .  जंगलों में घुमक्कड़ी  करने और इन फलों को पेड़ो से तोड़ कर खाने का  आनंद ही स्वर्गिक  है.  
 हिमालयी क्षेत्र  उत्तराखंड  देव भूमि कहलाता है  यहाँ देवताओं के निवास के लिए  तो सभी सुख उपलब्ध  है . किन्तु मानवीय जीवन  अत्यंत  विकट है .  इस क्षेत्र की बड़ी विडम्बनाएं  है . यहाँ से निकलती हुई गंगा यमुना  पूरे देश को सींचती हुई, प्यास को तृप्त करती हुई, अरब सागर में जा मिलती है शेष जल के निष्पादन  के लिए . यह क्षेत्र इन इठलाती नदियों  पर गर्व भी महसूस  करता है  मैती  होने का. परन्तु पानी तलहटी से बहता चला जाता है  और खेत इन  गाँव के सूखे के सूखे .  वनस्पतीय, एवं औषधीय  सम्पदा का दोहन  का लाभ भी इस क्षेत्र  को  नहीं मिल पाता है. क्योंकि इन पर सरकारी नियंत्रण है .

  जब तक शिक्षा का प्रसार  नहीं था तब से ही क्षेत्र के लोग आजीविका  के लिए मैदानी  शहरो की ओर जाते रहे . यद्यपि खेती से होने वाले उत्पादन से साल भर का अनाज तो उपलब्ध होता था दूध , घी, शहद  की भी प्रचुरता  रही  है   जनसँख्या कम  थी . अब परिस्थितियां बदली हुई है शिक्षा में तो उत्तराखंड देश के सबसे अधिक शिक्षित राज्यों में से एक है किन्तु  बढती जनसँख्या के हिसाब से खेती का उत्पादन,  जो आसमानी बरसात पर निर्भर रहती है,   कम होता चला गया  और शिक्षा के कारण पारंपरिक खेती से युवाओं  की   रूचि और ध्यान हटता चला गया .  और वे रोजगार की खोज में पलायन करते चले गए और शहरों की  अंधी गलियों में गुमनाम  होते चले गए

पलायन से  कई लोग तो इन शहरों में पूर्णतया रच बस गए और कुछ दो नावो में पैर रख कर अपने को संभाले हुए हैं . उतराखंड को राज्य बने हुए लगभग दस वर्ष पूरे हो चुके है कितु  पलायन  को अभी भी रोका न जा सका. समस्या इतनी गंभीर है की गाँव के आस पास  सरकारी नौकरी करने वाले लोग भी गाँव छोड़ कर राज्य की राजधानी  देहरादून में जाकर बस जाना चाहते हैं . गाँव के गाँव खाली होते चले जा रहे हैं.  कई गाँव तो ऐसे मिलेगे जहाँ पुरुष  नाम की  चीज नहीं  है  शव दाह तक का कार्य महिलाओं को करना पड़ता है .  जब कोई व्यक्ति शहर में नौकरी  करता है तो उसका वहां पर मकान खरीदना, बच्चों की परवरिश हेतु धीरे धीरे बस जाना  तो कुछ समझ आता है किन्तु जो लोग गाँव से जायदाद बेच कर, पास के स्कूल में नौकरी करते हुए शहर में बसने की चाहत लिए हुए हैं या बस गए है मेरी समझ से परे है . यद्यपि जीवन वहां पर अति विकट है परन्तु ये कैसी समझदारी ?
अब कुछ इसी तरह के शिकार मेरे परिवार  के लोग भी होते जा रहे है  पांच चाचा ताउओं के हम पंद्रह भाई है  दो तीन को छोड़ कर  सभी नौकरी  पेशा है  कुछ उत्तराखंड से बाहर है तो कुछ घरेलु जनपद में ही . सभी में पूज्य बड़े भाई  सभी पारिवारिक कार्यों  जैसे विवाह समारोहों, पूजा  आदि सभी  में अग्रणी रहा करते हैं सभी उन्हें समादर  भी करते है. उन्होंने पूरा जीवन डाक विभाग में  E D A कर्मचारी की तरह  वही के लिए समर्पित कर दिया  पढ़े लिखे थे  उस समय पर विभागीय परीक्षाओं के द्वारा वे भी बाहर जा सकते थे किन्तु    नहीं  गए  . उनके दो पुत्र है बड़े वाले गाँव में ही आजीविका  का जुगाड़ करता है किन्तु  छोटा मुंबई में रहता है . बड़े बेटे  से सम्बन्ध भी थोडा ढीले  हैं भाभी जी का भी देहांत हो गया है . अब  वे छोटे बेटे के बच्चों की देखभाल में व्यस्त थे  किन्तु उसने भी अपनी समस्याओं  के मद्देनजर बच्चों  को मुंबई ले जाने की ठान ली.  अब समस्या  थी बड़े भाई साहब की खान पान की  व्यवस्था   का, तो वे साथ  में जाने को तैयार हुए चाहे वेमन  से ही .
इस बात की मुझे पहले खबर मिली  किन्तु एकाएक विश्वास सा नहीं हुआ  किन्तु अभी दो दिन पूर्व देहरादून में  जाकर पाता चला की वे सचमुच  चले  गए है  भाई  साहब की उम्र  लगभग ७६ वर्ष की होगी  अर्थात अब वे हर पारिवारिक  कार्य से भी वंचित रह जायेंगे  एक तो वृद्ध  शरीर और दूसरा आर्थिक  पहलु . दोनों ही भारी पड़ेगें.
 और आखिर कर इस विभीषिका ने एक और घर पर ताला लगा ही  दिया है.  हम लोग भी न जाने कब मिल पाएंगे  यह पता नहीं है .