ढोल और दमाओं |
ढोल की थाप पर मनुष्य के तो पैर थिरकते ही हैं, किन्तु स्वर्ग से सोते हुए देवी , देवता और अप्सराये भी धरा पर थिरकने को मजबूर हो जाती हैं। एक थाप पर अनेको लोग देव रूप धारण कर लेते हैं, और एक गलत थाप पर न जाने कौन सी आपदा आ पड़े कोई नहीं जानता।
ढोल बजाने की कई विधियां हैं कई ताल हैं। इस पर पूरा ढोल सागर लिखा गया है, ढोल सागर का मूल संकलन पंडित ब्रह्मानंद थपलियाल ने १९१३ से आरंभ कर श्री बद्रिकेदारेश्वर प्रेस पौड़ी गढ़वाल से १९३२ में प्रकाशित किया था। तत्पश्चात श्री अबोध बंधू बहुगुणा ने इसे आदि गद्य के नाम से "गाड मेटी गंगा" में प्रकाशित किया। तथा एक ढोल वादक शिल्पकार केशव अनुरागी ने महान संत गोरख नाथ के दार्शनिक सिद्धांतों के आधार पर विस्तृत व्यख्या एवं संगीतमय लिपि का प्रचार प्रसार भी किया। केशव अनुरागी के विषय में मंगलेश डबराल लिखते हैं :-
ढोल एक समुद्र है साहब केशव अनुरागी कहता था,
इसके बीसियों ताल और सैकड़ों सबद , अरे कई तो मर खप गए पुरखों की तरह,
फिर भी संसार में आने जाने अलग अलग ताल साल,
लोग कहते हैं केशव अनुरागी ढोल के भीतर रहता है.
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स्व शिवा नन्द नौटियाल, उत्तर प्रदेश के पूर्व उच्च शिक्षा मंत्री जिन्होंने ढोल सागर के कई छंदों को गढ़वाल के नृत्य-गीत पुस्तक में सम्पूर्ण स्थान दिया, एवम बरसुड़ी के डा विष्णुदत्त कुकरेती एवम डा विजय दास ने भी ढोल सागर की समुचित व्याख्या की है ।
स्व शिवा नन्द नौटियाल, उत्तर प्रदेश के पूर्व उच्च शिक्षा मंत्री जिन्होंने ढोल सागर के कई छंदों को गढ़वाल के नृत्य-गीत पुस्तक में सम्पूर्ण स्थान दिया, एवम बरसुड़ी के डा विष्णुदत्त कुकरेती एवम डा विजय दास ने भी ढोल सागर की समुचित व्याख्या की है ।
प्रारंभिक जानकारियों के अनुसार ढोल की उत्पति और वाद्य शैली पर शिव और पार्वती के बीच एक लम्बा संवाद होता है। प्राय उत्तराखंड में जब भी किसी शुभ या अशुभ अवसर पर ढोल वादन होता है तो ढोली (ढोल वादक) के मुख से इस सवांद का गायन मुखरित होता है।
ढोल सागर में पृथ्वी संरचना के नौ खंड सात द्वीप और नौ मंडल का वर्णन व्याप्त है। ढोल ताम्र जडित, चर्म पूड़ से मुडाया जाता है। ढोल की उत्पति के बारे में ढोल सागर कहता है " अरे आवजी ढोल किले ढोल्य़ा किले बटोल्य़ा किले ढोल गड़ायो किने ढोल मुडाया , कीने ढोल ऊपरी कंदोटी चढाया अरेगुनी जनं ढोलइश्वर ने ढोल्य़ा पारबती ने बटोल्या विष्णु नारायण जी गड़ाया चारेजुग ढोल मुडाया ब्रह्मा जी ढोलउपरी कंदोटी चढाया इ"आगे कहते है " श्री इश्वरोवाच I I अरे आवजी कहो ढोलीढोल का मूलं कहाँ ढोली ढोल कको शाखा कहाँ ढोली ढोली का पेट कहाँ ढोली ढोल का आंखा II श्री पारबत्युवाच II अरे आवजी उत्तर ढोलीढोल का मूलं पश्चिम ढोली ढोल का शाखा दक्षिण ढोल ढोली का पेट पूरब ढोल ढोली का आंखा I "।
ढोल सागर में वर्णित है ढोल शिव पुत्र है, डोरीका ब्रह्मा पुत्र ,पूड़ विष्णु पुत्र, कुण्डलिया नाग पुत्र, कन्दोतिका कुरु पुत्र, गुनिजन पुत्र कसणिका, शब्दध्वनि आरंभ पुत्र, और भीम पुत्र गजाबल।
ढोल सागर में वर्णित है ढोल शिव पुत्र है, डोरीका ब्रह्मा पुत्र ,पूड़ विष्णु पुत्र, कुण्डलिया नाग पुत्र, कन्दोतिका कुरु पुत्र, गुनिजन पुत्र कसणिका, शब्दध्वनि आरंभ पुत्र, और भीम पुत्र गजाबल।
ढोल की भाषा का आदि उत्पति अक्षर भी " अरे आवजी शारदा उतपति अक्षर प्रकाश I I अ ई उ रि ल्रि ए औ ह य व त ल गं म ण न झ घ ढ ध ज ब ग ड द क प श ष स इति अक्षर प्रकाशम I इश्वरो वाच I I " ठीक उसी प्रकार है जिस प्रकार पाणिनि के व्याकरण के आरंभ सूत्र जो कि शिव डमरू से उत्पन्न हुए । जब ढोली ढोल को कसता है तो शब्द त्रिणि त्रिणि ता ता ता ठन ठन, तीसरी बार कसने पर त्रि ति तो कनाथच त्रिणि ता ता धी धिग ल़ा धी जल धिग ल़ा ता ता के रूप में बज उठता है इसी तरह बारह बार ढोल को कसने की प्रक्रिया होती है और भिन्न भिन्न ध्वनिया गूंज उठती हैं।
ढोल सुख, दुःख और पूजा सभी कार्यों में बजता है उतराई, चढाई, स्वागत प्रस्थान, आरंभ और समापन सभी के लिए अलग अलग ताल और सबद हैं। ढोली की पांच अंगुलियाँ और हथेली और दुसरे हाथ से डंडे, जब ढोल पर थाप देते हैं तो भगवन शंकर कहते हैं " अरे आवजी प्रथमे अंगुळी में ब्रण बाजती I दूसरी अंगुली मूल बाजन्ती I तीसरी अंगुली अबदी बाजंती I चतुर्थ अंगुली ठन ठन ठन करती I झपटि झपटि बाजि अंगुसटिका I धूम धाम बजे गजाबलम I पारबत्यु वाच I अरे आवजी दस दिसा को ढोल बजाई तो I पूरब तो खूंटम . दसतो त्रि भुवनं . नामाम गता नवधम तवतम ता ता तानम तो ता ता दिनी ता दिगी ता धिग ता दिशा शब्दम प्रक्रित्रित्ता . पूरब दिसा को सुन्दरिका I बार सुंदरी नाम ढोल बजायिते I उत्तर दिसा दिगनी ता ता ता नन्ता झे झे नन्ता उत्तर दिसा को सूत्रिका बीर उत्तर दिसा नमस्तुत्ये I इति उत्तर दिसा शब्द बजायिते I "।
मेरी जानकारी के अनुसार संभवतः किसी भी वाद्य यन्त्र के लिए इतना बड़ा साहित्य न होगा किन्तु आज इस लोक कला की मृत्यु होती जा रही है जिस ढोल की थाप पर देवता और अप्सराएं थिरकती हों उसी ढोल की एक गलत ताल या सबद पर आसुरी शक्तियां जाग उठती हैं जिसे स्थानीय भाषा में वयाल फैलना कहा जाता है। इसे रोक पाने के लिए अच्छे जानकर ढोली की आवश्यकता होती है नहीं तो अनिष्ट ही सन्निकट होता है। ढोली एक पहाड़ी से दूसरी पहाड़ी पर बजते ढोल - ढोली के साथ भी अपना संवाद स्थापित करता है.
आज इस परम्परा से जुड़े लोग, इस लोक कला से विमुख होते चले गए, कारण कुछ सरकारी नीतियाँ और पढ़ लिख जाना रहा है. क्योंकि इस व्यवसाय से अनुसूचित जाति के लोग जुड़े हुए थे. जो थोड़े बहुत बचे हैं उनमे जानकारियों की भारी कमियां हैं ।
हेमवती ननद बहुगुणा गढ़वाल विश्व विद्यालय श्रीनगर के लोक संस्कृति विभाग के डारेक्टर श्री डी आर पुरोहित इस कला को बचाने के लिए सक्रिय हैं। इन्ही के सौजन्य से अमेरिका के सिनसिनाटी विश्वविद्यालय के प्रो स्टीफन सियोल की मुलाकात टिहरी के एक ढोल वादक सोहन लाल सैनी से हुई. उसकी बाजीगरी को देखते ही स्टीफन स्वयम उनसे प्रेरित हो ढोल बजाना सीखने लगे। परिणाम तह स्टीफन ने सोहन लाल को सिनसिनाटी में ढोल सिखाने के लिए विजिटिंग प्रोफ़ेसर के तौर पर अमेरिका आमंत्रित किया। मुश्किल से छठी क्लास पढ़े हुए सोहन लाल के लिए तो गौरव की बात थी। किन्तु उत्तराखंड और भारत के लिए भी गर्व का विषय है, और अब उत्तराखंड का ढोल अमेरिका में भी गूंज उठा .
सौजन्य (सामग्री संग्रह)- भीष्म कुकरेती ( सेक्रेट्स ऑफ़ ढोल सागर )
चित्र - गूगल से साभार
( लम्बे समय से नेट से अनुपस्थित रहने के कारण न तो ब्लागरों से संपर्क रहा और न ही कोई नयी पोस्ट )