शनिवार, 8 अक्तूबर 2011

ढोल और ढोल सागर - लुप्त होती उतराखंड की लोक कला

ढोल और दमाओं
संगीत और नृत्य  दोनों के लिए वाद्य यंत्रों की आवश्यकता मनुष्य की सदा से बनी रही है. इसीलिए समयानुकूल तरह तरह  के वाद्य यंत्रों का अविष्कार  होता रहा। कुछ यंत्र तो सामयिक रूप से अवतरित होते रहे, किन्तु कुछ पारंपरिक रूप से दीर्घावधि में ज्यों के त्यों बने रहे। उनके स्वरूप और प्रयोग में विशेष परिवर्तन परिलक्षित नहीं हुआ। उन्हीं में से एक यन्त्र है ढोल। जिसके स्वरुप और प्रयोग में कोई परिवर्तन नहीं दिखाई दिया।

ढोल  की थाप पर मनुष्य के तो पैर थिरकते ही हैं, किन्तु स्वर्ग से सोते हुए देवी , देवता और अप्सराये  भी धरा पर थिरकने को मजबूर हो जाती हैं। एक थाप पर  अनेको लोग देव रूप धारण कर लेते हैं, और  एक गलत थाप पर न जाने कौन सी  आपदा आ पड़े  कोई नहीं जानता।

ढोल बजाने की  कई विधियां  हैं कई ताल हैं। इस पर पूरा ढोल सागर लिखा गया है, ढोल सागर का मूल संकलन पंडित ब्रह्मानंद थपलियाल ने १९१३ से आरंभ कर श्री बद्रिकेदारेश्वर प्रेस  पौड़ी गढ़वाल से १९३२ में प्रकाशित किया था। तत्पश्चात श्री अबोध बंधू बहुगुणा ने इसे आदि गद्य के नाम  से "गाड मेटी गंगा" में प्रकाशित  किया। तथा एक ढोल वादक शिल्पकार केशव अनुरागी ने महान संत  गोरख  नाथ के दार्शनिक सिद्धांतों  के आधार पर विस्तृत व्यख्या एवं संगीतमय लिपि का प्रचार प्रसार भी किया। केशव अनुरागी के विषय में मंगलेश डबराल लिखते हैं :-

  ढोल एक समुद्र है साहब केशव अनुरागी कहता था,
  इसके बीसियों  ताल  और सैकड़ों सबद , अरे कई तो मर खप गए पुरखों की तरह,
  फिर भी संसार में आने जाने  अलग अलग ताल साल,
  लोग कहते हैं केशव अनुरागी ढोल के भीतर रहता है.
,
स्व शिवा नन्द नौटियाल, उत्तर प्रदेश के पूर्व उच्च शिक्षा मंत्री  जिन्होंने ढोल सागर के कई छंदों को गढ़वाल के नृत्य-गीत पुस्तक में सम्पूर्ण स्थान दिया, एवम   बरसुड़ी  के डा विष्णुदत्त कुकरेती एवम डा विजय दास ने भी ढोल सागर की समुचित  व्याख्या की है ।
प्रारंभिक जानकारियों के अनुसार ढोल की उत्पति और वाद्य  शैली पर शिव और पार्वती के बीच एक लम्बा संवाद होता है। प्राय उत्तराखंड में जब भी किसी शुभ या अशुभ अवसर पर ढोल वादन होता है तो ढोली (ढोल वादक) के मुख से इस सवांद का गायन मुखरित होता है।

ढोल सागर में पृथ्वी संरचना के नौ खंड सात द्वीप और नौ मंडल का वर्णन व्याप्त है। ढोल ताम्र जडित, चर्म पूड़ से मुडाया जाता है। ढोल की उत्पति के बारे में ढोल सागर कहता है " अरे आवजी ढोल किले ढोल्य़ा   किले बटोल्य़ा किले ढोल गड़ायो किने  ढोल मुडाया , कीने ढोल ऊपरी कंदोटी चढाया अरेगुनी जनं ढोलइश्वर ने ढोल्य़ा पारबती ने बटोल्या विष्णु नारायण जी गड़ाया चारेजुग ढोल मुडाया ब्रह्मा जी ढोलउपरी कंदोटी चढाया इ"आगे कहते है " श्री इश्वरोवाच I I अरे आवजी कहो ढोलीढोल  का मूलं कहाँ ढोली ढोल कको शाखा कहाँ ढोली ढोली का पेट कहाँ ढोली ढोल का आंखा II श्री पारबत्युवाच II  अरे आवजी उत्तर ढोलीढोल का मूलं पश्चिम ढोली ढोल का शाखा दक्षिण ढोल ढोली का पेट पूरब ढोल ढोली का आंखा I "।
ढोल सागर में  वर्णित है ढोल शिव पुत्र है, डोरीका ब्रह्मा पुत्र ,पूड़ विष्णु  पुत्र, कुण्डलिया नाग पुत्र, कन्दोतिका कुरु पुत्र, गुनिजन पुत्र कसणिका, शब्दध्वनि  आरंभ पुत्र, और भीम पुत्र गजाबल।  

ढोल की भाषा का आदि उत्पति अक्षर भी " अरे आवजी शारदा उतपति अक्षर प्रकाश I I  अ ई उ रि ल्रि ए औ ह य व त ल गं म ण न झ घ ढ ध  ज ब ग ड द क प श ष स इति अक्षर प्रकाशम I  इश्वरो वाच I I " ठीक उसी प्रकार है जिस प्रकार पाणिनि के व्याकरण  के आरंभ सूत्र जो कि शिव डमरू से उत्पन्न हुए ।   जब ढोली ढोल को कसता है  तो शब्द त्रिणि त्रिणि ता ता ता ठन ठन, तीसरी बार कसने पर त्रि ति तो कनाथच त्रिणि  ता ता धी धिग ल़ा धी जल धिग ल़ा ता ता के रूप में बज उठता है  इसी तरह बारह बार ढोल को कसने की प्रक्रिया होती है और भिन्न भिन्न ध्वनिया गूंज  उठती हैं।

ढोल सुख, दुःख और पूजा सभी कार्यों में  बजता है उतराई, चढाई, स्वागत प्रस्थान,  आरंभ और समापन सभी के लिए अलग अलग ताल और सबद हैं। ढोली की पांच अंगुलियाँ  और हथेली और दुसरे हाथ से डंडे, जब ढोल पर थाप देते हैं तो भगवन शंकर  कहते हैं "  अरे आवजी प्रथमे अंगुळी में ब्रण बाजती I  दूसरी अंगुली मूल बाजन्ती I तीसरी अंगुली अबदी बाजंती I चतुर्थ अंगुली ठन ठन ठन करती I झपटि झपटि बाजि अंगुसटिका  I  धूम धाम बजे गजाबलम I  पारबत्यु वाच I  अरे आवजी दस दिसा को ढोल बजाई तो I पूरब तो खूंटम . दसतो त्रि भुवनं . नामाम गता नवधम  तवतम ता ता तानम तो ता ता दिनी ता दिगी ता धिग ता दिशा शब्दम प्रक्रित्रित्ता . पूरब दिसा को सुन्दरिका  I बार सुंदरी नाम ढोल बजायिते  I  उत्तर दिसा दिगनी ता ता ता नन्ता झे झे नन्ता उत्तर दिसा को सूत्रिका बीर उत्तर दिसा नमस्तुत्ये I इति उत्तर दिसा शब्द बजायिते I "।

मेरी जानकारी के अनुसार संभवतः किसी भी वाद्य यन्त्र के लिए इतना बड़ा साहित्य न होगा  किन्तु आज इस लोक कला की मृत्यु होती जा रही है जिस ढोल की थाप पर  देवता  और अप्सराएं  थिरकती हों उसी ढोल की  एक गलत ताल या सबद पर आसुरी शक्तियां जाग उठती हैं  जिसे स्थानीय भाषा में वयाल फैलना  कहा जाता है। इसे रोक पाने के लिए अच्छे जानकर ढोली की आवश्यकता होती है नहीं तो अनिष्ट ही सन्निकट होता है। ढोली एक पहाड़ी से दूसरी पहाड़ी पर बजते ढोल - ढोली के साथ भी अपना संवाद स्थापित  करता है.   
आज इस परम्परा  से जुड़े लोग, इस लोक कला से विमुख होते चले गए, कारण कुछ सरकारी नीतियाँ  और पढ़ लिख जाना  रहा  है. क्योंकि इस व्यवसाय से  अनुसूचित जाति के लोग जुड़े हुए थे. जो थोड़े  बहुत बचे हैं  उनमे जानकारियों  की भारी कमियां  हैं ।
  हेमवती ननद बहुगुणा  गढ़वाल विश्व विद्यालय श्रीनगर   के  लोक संस्कृति विभाग  के डारेक्टर श्री डी आर पुरोहित इस कला को बचाने के लिए सक्रिय  हैं। इन्ही के सौजन्य से अमेरिका के सिनसिनाटी विश्वविद्यालय के प्रो स्टीफन सियोल की मुलाकात टिहरी के  एक ढोल वादक सोहन लाल सैनी से हुई. उसकी बाजीगरी को देखते ही स्टीफन स्वयम उनसे प्रेरित हो ढोल बजाना सीखने लगे। परिणाम तह स्टीफन ने सोहन लाल को सिनसिनाटी  में ढोल सिखाने के लिए विजिटिंग  प्रोफ़ेसर के तौर पर अमेरिका आमंत्रित  किया। मुश्किल से छठी क्लास पढ़े हुए सोहन लाल के लिए तो गौरव की बात थी। किन्तु उत्तराखंड और भारत के लिए भी गर्व का विषय है,  और अब उत्तराखंड का ढोल अमेरिका में भी गूंज उठा .




सौजन्य (सामग्री संग्रह)- भीष्म कुकरेती   ( सेक्रेट्स ऑफ़ ढोल सागर )
चित्र - गूगल से साभार
( लम्बे समय से नेट से अनुपस्थित  रहने  के कारण न तो ब्लागरों से संपर्क रहा और न ही कोई नयी पोस्ट )

सोमवार, 1 अगस्त 2011

" माँ भैषी पाप शंकी"

प्रायः देखने में आता है कि जब आप किसी प्रिय कि प्रतीक्षा करते है तो जैसे जैसे समय बीतता चला  जाता है, उसी गति से आपका हृदय भी धडकने लगता है .  प्रिय व्यक्ति आपका चेहेता बेटा, बेटी हो सकती है, पति, या पत्नी, भाई या बहिन, अथवा प्रेमी और प्रेमिका, इनमे कोई भी हो सकता है. प्रतीक्षा रत व्यक्ति के चेहरे के हाव भाव प्रतिक्षण बदलते रहते हैं. समय बीतता चला जाता है और आप उद्वेलित होते रहते है. मेरे प्रिय अभी तक क्यों नहीं पहुंचा, अनेको कारणों की सूची मन में बनती रहती है कि फलां कारण से  प्रिय बिलम्बित हो सकता है, नहीं नहीं  ऐसा   नहीं हो सकता, पहुँचाने ही वाला/ वाली होगा/ होगी. कई आशंकायें  घर करने लगती हैं . 
      अनिष्ट की शंकाए बढ़ने लगती हैं. व्यग्रता  पराकाष्ठा  को पहुँच जाती है . रक्त चाप भी घटने बढ़ने लगता है. और यही क्रम तब तक जारी रहता है  जब तक आपका प्रिय व्यक्ति आप तक नहीं पहुँच जाता. और यदि प्रिय की उपस्थिति अपरिहार्य हो गयी तो सन्देश तक न जाने कितने ही अनिष्टकारी, अमंगलकारी बातों को मन में समां लेते  हैं. 
जब आप किसी भी व्यक्ति से  अत्यधिक भावनात्मक  लगाव रखते हों तो उससे प्रेम की भी गहराई भी उतनी ही अधिक हो जाती है. जैसे पिता अपनी बेटी से असीम प्यार करते है यदि बेटी प्रेम संबंधो को सफल बनाने  के लिए प्रेमी के संग भाग जाने में सफल हो जाती है, तो पिता की व्यग्रता और चिंता, प्रतीक्षा रत आंखे, कई अमंगल की आशंकाओ  से घिर जाते हैं. यही पर कभी कभी व्यक्ति अप्रिय समाचारों का सामना ठीक से न कर पाने के बाद, धैर्य के टूटने पर,  हिंसक और उन्मादी भी बन जाते हैं. उन्हें अपने प्रिय का दूर होना  बिलकुल भी अच्छा  नहीं लगता.
 तो तब प्रेमिका की क्या स्थिति होती होगी, जब प्रेमी किन्ही अपरिहार्य कारणों से प्रेमिका तक नहीं पहुँच पाता है. या मुड कर ही उस ओर न जाय तो  प्रेमिका बिना किसी सन्देश के भी किन किन आशंकाओं  को जन्म देती होगी. बड़ा दुष्कर कार्य लगता है. या कोई बीमार हो जाता है तो उसके ठीक होने तक का समय दिल को अधीर कर देता है.
 अभिज्ञान शाकुंतलम में इसी तरह का वर्णन महा कवि काली दास ने भी  शकुंतला के बारे में किया जब राजा दुष्यंत लौट कर नहीं आते. तब कालिदास को लिखना पड़ा था " माँ भैषी  पाप शंकी" . यानि युगों युगों से  ही प्रेम की दूरी पर सभी के  मस्तिष्क में अमंगल के ज्वार आते रहते हैं. . बचपन में जब हम स्कूल से, या कभी जंगल से  देर से घर पहुँचते थे  तो मेरी माँ सायंकालीन समय पर  घर के  आंगन में बैठ प्रतीक्षा रत रहती और बाद में बताती मेरे दिमाग  में न जाने कितनी गालिया निकल रही थी  यानि अमंगल ही अमंगल  की आशंका.

   आखिर हम आशंकित रहते हुए इतना  प्यार    क्यों करते हैं . मानव स्वभाव मानव के प्रति  संवेदन शील तो है ही किन्तु  वह तो अपने पालतू जीव जंतु  के प्रति भी उतना ही संवेदन शील होता है.  और इसी संवेदन शीलता के कारण  मनुष्य प्रेम की पींगे बढाता है.      अपनी व्यग्रता को , अपने रक्त चाप को बढाता चला जाता है.  और अधिक संभव है कि यही  एक कारण हो मनुष्य के विश्व बधुत्व कि ओर बढ़ना. 


शुक्रवार, 24 जून 2011

अनुशासन की कीमत - अपराध बोध

अनुशासन  मनुष्य के जीवन के  लिए  महत्व पूर्ण   है  अनुशासन को बनाये  रखने के लिए व्यक्ति तरह तरह  के यत्न करता रहता है  कभी इसे बनाये  रखने के लिए अनुशासन तोड़ता भी है . और न जाने किस किस को कितनी सजा देता है  इसकी कोई मानक सीमा तय नहीं है,  कभी स्वयंम को , तो कभी  बच्चों को, कभी समाज के किसी वर्ग को, या अपने अधीनस्थ  व्यक्ति को, कही न कही अनुशासन का डंडा चलता रहता है. हमें ये भी न पता चलता की सजा किसे, क्यों और कितनी दी जा रही है, चाहे इसके आगे बच्चे ही क्यों न हों. परन्तु अनुशासन शब्द ही ऐसा है  झेलना पड़ता है. इस शब्द की परिधि में जो आता है बच नहीं पाता है. और कई बार तो सजा देने वाला इस सजा के नाम पर स्वयंम अपराध कर बैठता है . जब पता चलता तब तक देर हो चुकी होती है, तत्पश्चात स्वविवेकी मनुष्य के पास शेष रहता सिर्फ अपराध बोध .  

अभी अभी ब्लाग पर मोनिका शर्मा का एक लेख पढ़ा जिसमें उन्होंने बच्चों पर होने वाले दंडात्मक कार्यवाहियों    का विश्लेषण किया है.  ये सारे काम लगभग सभी  अभिभावक,   अनुशासित होने के दंभ पर, यदा  कदा कर ही जाते है . पहले की पीढियां  भी करती आई  हैं, और आज की भी  जारी  रखे हुए है किन्तु आगे कुछ परिवर्तन की आशा बनी हुई दिखाई देती है.
 अरस्तु ने लिखा था बच्चे पर अपनी अभिलाषा मत थोपिए उसे छोड़  दीजिये और स्वयं ही उसके अंदर का मनुष्य विकसित  होकर बाहर निकलेगा. किन्तु हम है की पैदा होते ही उसे बड़ा देखने लगते है थोपने लगते है अपनी  आकांक्षाएं और फिर हो  शरू हो जाता है सजाओं का दौर, घर में, स्कूल में, खेलते पढ़ते,  और बोलते हुए अनुशासन के नाम पर.

इन सजाओं के बाद जो अपराध बोध होता है वह अति विकट होता है  बजाय कि सजा देने के बाद मिली ख़ुशी के.  मैं स्वयम इस अपराध बोध का शिकार हूँ . कई बार तो सोचने के बाद निराशा सी होने लगती है  आखिर मैंने ऐसा क्यों किया  परन्तु अब कुछ नहीं हो सकता भूत काल के विषय में . वर्तमान  में सुधार कि प्रक्रिया जारी है. आदमी समय के अनुसार अपनी अक्ल लगता रहता है  और अक्ल और उम्र का मिलन नहीं हो पाता जीवन भर.
मेरे भी दो बेटे है  बड़ा बेटा अभी १२ वी का छात्र है छोटा पांचवी  में. बड़ा बेटा बचपन से ही थोडा चुस्त था  उसके साथ मुझे  अधिक समय  नहीं लगाना पड़ा  पढने में भी ठीक ठाक था थोडा शरारती अवश्य था  थोड़ी बहुत कभी पढाई पर मारा होगा किन्तु याद नहीं है  परन्तु तीन घटनाये  अच्छी तरह याद है जब उसने साथ के बच्चो के साथ एक शब्द सीखा  था " कुटा"  परन्तु उसके मुंह से सुनाई   पड़ता था " कुता" कई बार समझाने का यत्न  किया किन्तु जारी रहा कुटा. मुझे तब तक समझ  नहीं आया  था  असल कहता क्या है  कई बार तो आने जाने वालो को  भी परोस दिया गया था  यह शब्द . फिर एक दिन मुझे गुस्सा आया और माचिस  जला कर उसके मुंह पर ले गया, बस  उस दिन के बाद इसकी पुनरावृति बंद हो गयी.  परन्तु मुझे बाद  में बताया गया कि ये तो बच्चे नाराज होने पर ऐसा शब्द प्रयोग कर लेते है  तब बड़ी आत्म ग्लानि हुई.  दूसरा मौका था  जब वह अपनी बुआ के घर से खिलौना उठा लाया  और बाद में पता चला कि उन्होंने नहीं दिया बल्कि महोदय स्वयं लेकर आ गए  तब  भी मार पड़ी थी  किन्तु परिणाम सकारात्मक  रहे. तीसरी बार पांचवी में था घर में कुछ मेहमान आये थे, उनके बच्चों के साथ दूर चौराहे  तक चले गया परन्तु जब मार पड़ी तो आज तक कहीं भी जाता है तो पूछ कर या बता कर जाता है .
नितीश  और सार्थक
छोटे बेटे की  अजब कहानी है पहले दो साल तो वह न बोलता था न चलता था  डर था कही अपंग  न हो जाय. जब स्कूल भेजा तो अगले दो साल तक तो स्कूल से लगातार शिकायत रही कि यह न तो बोलता है न ही काम  करता है  घर में भी इसी तरह का सिलसिला था  अब पढाना भी था, जब सारे थक जाते तो मुझे बुला लाते, मैं हाथ उठाने के कारण  थोडा दूर ही रहता था . उसके लिए थप्पड़ का प्रयोग नहीं क्या किन्तु एक रस्सी थी मैं उससे बाँधने  का प्रयास करता  कि वह काम पर जुट जाता और होम वर्क  समाप्त . उसके बाद धीरे धीरे सुधार भी हुआ परन्तु आज भी स्थिति लचर है कुछ दिन तक ही यह प्रक्रिया रही परन्तु उसके बाद से याद नहीं है कि कभी  हाथ उठाया हो बिना  वजह के . आज भी जब पढने बिठाते है तो कभी लेट जायेगा, बैठेगा  तो पेन्सिल खो जायेगी,  या प्यास लग  जाएगी, फिर रबड़, कुछ देर बाद कापी भी मिलनी मुश्किल जाती है. धीरे धीरे भूख सताने  लगती है और " मम्मी भूख लग रही है "  और फिर कुछ देर बाद सब कुछ अगली  सुबह तक  के लिए  खो जाता है  बच्चा गहरी नींद में होता है  जगाने से भी नहीं जगता . पहाड़े  याद करने के नाम पर मैंने एडी  चोटी का जोर मार लिया किन्तु दस से आगे नहीं बढ़ पाए यद्यपि बुधि का स्तर तो तेज  है किन्तु स्तेमाल नहीं हो  पा रही है.   अब तो पिछले डेढ़ साल से मैं दिल्ली में और वे देहरादून  में, दूरी बनी हुई है.  इसके साथ मुझे कई प्रयोग करने पड़े , पढने और पढ़ाने  के लिए .
अब इतनी  दूरी पर हूँ  फोन पर ही संवाद बन रहता है दो एक महीने में मिलना हो पाता है   तब उन्हें  दी हुई सजा का मुझे अपराध बोध बना रहता है . बड़े बेटे को प्रेरित करता रहता  हूँ उसे भी पढ़ाने के लिए.  यही विकल्प टुय्सन से अच्छा  लगता है.              

बुधवार, 15 जून 2011

एक और घर पर ताला लगा ही दिया है!

  "अस्त्युत्तरस्याम दिशी देवतात्मा .हिमालयो नाम नगाधिराज :,
   पूर्वापरो तोयनिधि वगाह्या ,स्थित :पृथिव्याम एव मानदंड : ||  "
कुमारसंभव का प्रारंभ  करते हुए महा कवि कालिदास ने जिस हिमालय पर्वत को नगाधिराज की उपाधि प्रदान की उस नगाधि राज की प्राकृतिक सम्पदा, सुन्दरता  और वैभव  की असीम  ख्याति पूरे विश्व में फैली हुई है . यह  कालिदास की मात्र कल्पना नहीं थी बल्कि सजीव  और वास्तविक जीवन को धारण करने वाले पर्वत की स्तुति थी. जिस तरह पूरा विश्व आज इस नगपति के जीवन से कुछ न कुछ प्राप्त कर लेना चाहता है अपनी पताकाओं से हर व्यक्ति अपने को इस ऊँचे हिमालय की तरह ऊँचा प्रदर्शित करने की होड़ में लगा हुआ है  तो निसंदेह यह नगपति वैभवशाली  ही है .

पर्यटकों को  आकर्षित करने वाला हिमालय और हिमालयी क्षेत्र  तो पर्यटन  और घुमक्कड़ी के लिए स्वर्ग  है .
अभी जहाँ फरवरी  और मार्च में उत्तराखंड के जंगल  बुरांस के लाल फूलों की  रक्ताभ चादर सी ओढ़े हुआ था  वही आजकल ( मई और जून) में काफल , हिसोरा  और किन्गोड़े  से  लद पद है .  जंगलों में घुमक्कड़ी  करने और इन फलों को पेड़ो से तोड़ कर खाने का  आनंद ही स्वर्गिक  है.  
 हिमालयी क्षेत्र  उत्तराखंड  देव भूमि कहलाता है  यहाँ देवताओं के निवास के लिए  तो सभी सुख उपलब्ध  है . किन्तु मानवीय जीवन  अत्यंत  विकट है .  इस क्षेत्र की बड़ी विडम्बनाएं  है . यहाँ से निकलती हुई गंगा यमुना  पूरे देश को सींचती हुई, प्यास को तृप्त करती हुई, अरब सागर में जा मिलती है शेष जल के निष्पादन  के लिए . यह क्षेत्र इन इठलाती नदियों  पर गर्व भी महसूस  करता है  मैती  होने का. परन्तु पानी तलहटी से बहता चला जाता है  और खेत इन  गाँव के सूखे के सूखे .  वनस्पतीय, एवं औषधीय  सम्पदा का दोहन  का लाभ भी इस क्षेत्र  को  नहीं मिल पाता है. क्योंकि इन पर सरकारी नियंत्रण है .

  जब तक शिक्षा का प्रसार  नहीं था तब से ही क्षेत्र के लोग आजीविका  के लिए मैदानी  शहरो की ओर जाते रहे . यद्यपि खेती से होने वाले उत्पादन से साल भर का अनाज तो उपलब्ध होता था दूध , घी, शहद  की भी प्रचुरता  रही  है   जनसँख्या कम  थी . अब परिस्थितियां बदली हुई है शिक्षा में तो उत्तराखंड देश के सबसे अधिक शिक्षित राज्यों में से एक है किन्तु  बढती जनसँख्या के हिसाब से खेती का उत्पादन,  जो आसमानी बरसात पर निर्भर रहती है,   कम होता चला गया  और शिक्षा के कारण पारंपरिक खेती से युवाओं  की   रूचि और ध्यान हटता चला गया .  और वे रोजगार की खोज में पलायन करते चले गए और शहरों की  अंधी गलियों में गुमनाम  होते चले गए

पलायन से  कई लोग तो इन शहरों में पूर्णतया रच बस गए और कुछ दो नावो में पैर रख कर अपने को संभाले हुए हैं . उतराखंड को राज्य बने हुए लगभग दस वर्ष पूरे हो चुके है कितु  पलायन  को अभी भी रोका न जा सका. समस्या इतनी गंभीर है की गाँव के आस पास  सरकारी नौकरी करने वाले लोग भी गाँव छोड़ कर राज्य की राजधानी  देहरादून में जाकर बस जाना चाहते हैं . गाँव के गाँव खाली होते चले जा रहे हैं.  कई गाँव तो ऐसे मिलेगे जहाँ पुरुष  नाम की  चीज नहीं  है  शव दाह तक का कार्य महिलाओं को करना पड़ता है .  जब कोई व्यक्ति शहर में नौकरी  करता है तो उसका वहां पर मकान खरीदना, बच्चों की परवरिश हेतु धीरे धीरे बस जाना  तो कुछ समझ आता है किन्तु जो लोग गाँव से जायदाद बेच कर, पास के स्कूल में नौकरी करते हुए शहर में बसने की चाहत लिए हुए हैं या बस गए है मेरी समझ से परे है . यद्यपि जीवन वहां पर अति विकट है परन्तु ये कैसी समझदारी ?
अब कुछ इसी तरह के शिकार मेरे परिवार  के लोग भी होते जा रहे है  पांच चाचा ताउओं के हम पंद्रह भाई है  दो तीन को छोड़ कर  सभी नौकरी  पेशा है  कुछ उत्तराखंड से बाहर है तो कुछ घरेलु जनपद में ही . सभी में पूज्य बड़े भाई  सभी पारिवारिक कार्यों  जैसे विवाह समारोहों, पूजा  आदि सभी  में अग्रणी रहा करते हैं सभी उन्हें समादर  भी करते है. उन्होंने पूरा जीवन डाक विभाग में  E D A कर्मचारी की तरह  वही के लिए समर्पित कर दिया  पढ़े लिखे थे  उस समय पर विभागीय परीक्षाओं के द्वारा वे भी बाहर जा सकते थे किन्तु    नहीं  गए  . उनके दो पुत्र है बड़े वाले गाँव में ही आजीविका  का जुगाड़ करता है किन्तु  छोटा मुंबई में रहता है . बड़े बेटे  से सम्बन्ध भी थोडा ढीले  हैं भाभी जी का भी देहांत हो गया है . अब  वे छोटे बेटे के बच्चों की देखभाल में व्यस्त थे  किन्तु उसने भी अपनी समस्याओं  के मद्देनजर बच्चों  को मुंबई ले जाने की ठान ली.  अब समस्या  थी बड़े भाई साहब की खान पान की  व्यवस्था   का, तो वे साथ  में जाने को तैयार हुए चाहे वेमन  से ही .
इस बात की मुझे पहले खबर मिली  किन्तु एकाएक विश्वास सा नहीं हुआ  किन्तु अभी दो दिन पूर्व देहरादून में  जाकर पाता चला की वे सचमुच  चले  गए है  भाई  साहब की उम्र  लगभग ७६ वर्ष की होगी  अर्थात अब वे हर पारिवारिक  कार्य से भी वंचित रह जायेंगे  एक तो वृद्ध  शरीर और दूसरा आर्थिक  पहलु . दोनों ही भारी पड़ेगें.
 और आखिर कर इस विभीषिका ने एक और घर पर ताला लगा ही  दिया है.  हम लोग भी न जाने कब मिल पाएंगे  यह पता नहीं है .  

गुरुवार, 19 मई 2011

पुस्तक पढने का उद्देश्य

जब आप कोई पुस्तक  पढ़ते है  तो पुस्तक का मुख पृष्ठ  अपनी आत्म कथा वर्णित करने का प्रयास करता है. तब कोई व्यक्ति आपको पढ़ते हुए देखता है  या किताब के पन्नो पर ताक झांक कर  पढने की कोशिश करता है, तो वह सहज ही इस  बात का निर्णय ले लेता है कि आप क्या  और क्यों पढ़ रहे हो . विशेष  कर जब आप धार्मिक आवरण की तथा संस्कृत की पुस्तक पढ़ रहे हों .  जैसे श्रीमद भगवत  गीता,  हनुमान चालीसा, उपनिषद, या कोई सहस्रनाम स्तोत्र . देखने वाले आपकी भक्ति और आस्था   पर नत मस्तक हो, पढने के प्रयोग  भी बताने लग जायेंगे, पुस्तक कब और कैसे , किस मुद्रा में, तथा किस ध्वनि में  पढनी चाहिए .

मैंने  कुछ दिन पूर्व गीता प्रेस की गाड़ी से गोपाल सहस्रनाम स्तोत्रंम  की पुस्तक खरीदी किन्तु पढने का कोई निश्चित  समय नहीं  है इसलिए घर से कार्यालय आते हुए एक घंटा मेट्रो ट्रेन में बिताना  पढता  है  अतः इस समय में आधे घंटे का समय पढने के लिए नियत किया , बाकि का समय दो अन्य ट्रेने बदलने में बाधित होता रहता है इसलिए प्रथम चरण के आधा घंटा का समय उपयुक्त  लगा . इस समय या तो अख़बार पढता हूँ या फिर यह पुस्तक . पुस्तक में  कुल मिलाकर२१४ श्लोक  हैं  एक आवृति पूरी कर चुका हूँ  किन्तु पल्ले कुछ नहीं पड़ा . न तो भाषाई और न ही अध्यात्मिक ज्ञानार्जन हो सका . परन्तु पढ़ते समय एक महाशय से परिचय यों हुआ  " रोज़ भगवन जी दर्शन  हो जाते है  कल भी हुए थे  प्रभु ही सबके तारण हार हैं....... आदि "  मैंने भी उनके सुर में सुर मिलाया . किन्तु  मेरी तो नहीं,  उनकी इश्वर के प्रति सदाशयता का परिचय अवश्य मिला .  


मेरा  उद्देश्य तो मात्र अभी ज्ञानार्जन था, आस्था  से जुड़ा तो बिलकुल  नहीं था . परिणाम शून्य था .  और पुनः पुनरावृति प्रारंभ कर दी . और आज भी एक अन्य महाशय से परिचय हुआ.  मुझे पढ़ते हुए देख कर बगल से  स्वयम पढने की कोशिश करने लगे .  कुछ समय बाद वे मुझे सलाह देना नहीं भूले .  कहते है  स्तोत्र का पाठ वाचिक करना चाहिए,   मानसिक करने कोई लाभ नहीं  मिलता .  मैंने साधारणतया टालने की कोशिश की .किन्तु उन्होंने अपना परिचय कर्मकांडी ब्रह्मण तथा ऋषिकेश उत्तराखंड का बताया .  तत्पश्चात मैंने भी अपना परिचय उन्ही के अंदाज में कर्मकांडी ब्रह्मण पौड़ी  गढ़वाल  उत्तराखंड का बताया . तत्काल वे पिछले कोच की तरफ उन्मुख हुए  और शायद उनका स्टेशन आ गया हो और उत्तर गए हों .

किन्तु मेरे लिए कुछ प्रश्न विश्लेषण के लिए छोड़ गए . क्या धार्मिक पुस्तक का  पाठ वाचिक होना चाहिए, या मानसिक अथवा हार्दिक ?  मुझे  तो  सभी प्रश्नों के उत्तर पुस्तक पढने के उद्देश्य में  निहित  लगते हैं . आप पुस्तक किस उद्देश्य  से पढ़ रहे हैं , क्या आप नियमित पूजा स्थान पर बैठ कर पाठ कर रहे है  या कही अन्यत्र मात्र अध्यन  रत है. इन उदेश्यों  और प्रश्नों के उत्तर के अनुकूल पढने की विधि निर्धारित हो सकती है .  एवं मानसिक वाचिक और हार्दिक तीनो यंत्रो का प्रयोग  समुचित रूप से हो सकेगा .

पुस्तक को पढ़ते हुए  किसी भी यंत्र का प्रयोग हो उसका उद्देश्य पुस्तक के सभी उपाख्यानो का सांगो पांग ज्ञानार्जन   और  अन्तः करण  से जुड़ कर आस्था के रूप में परिणिति हो  तभी अध्यन सफल हो सकेगा , मै स्वयं ऐसा कर पाउँगा या नहीं  भविष्य ही बताएगा . फ़िलहाल अध्यन जारी है.


मंगलवार, 10 मई 2011

आओ लौट चले प्रकृति की ओर !

 आओ लौट  चले प्रकृति  की ओर!
कहाँ हिमखंडों का ढेला,
कहाँ नदियों का जल प्रवाह,
हो रहे वन भी कंगाल 
देखो ! कहाँ खिचीं जा रही जीवन की डोर,
आओ  लौट चले प्रकृति की ओर !
नष्ट हुए खेत खलिहान ,
नग्न हुई पर्वत श्रृंखलाएं,
तोड़ इन्हें, सड़क हुयी परवान,
सूखे जल स्रोत, 
और जल दायिनी  गंगा यमुना भी रुग्ण है 
 आए हम छोड़ इन्हें, चल पड़े न जाने किस ओर !
आओ लौट चले प्रकृति की ओर !
 जब हिम था, वर्षा थी, तो था अन्न- धन,  
अब सूख गए वृक्ष वनों के, आकुल हुआ मन,
सूखे जल स्रोत, देते हैं पीड़ा मन को प्रति पल,
कहाँ कलनिनाद है जल प्रपातों का, प्राणी है विकल !.


लुप्त प्रायः  है स्निग्ध जीवन धारा,
टूट गया है प्रकृति का मनोरम,
वायु शीतल नहीं, बढ़ रहा है पारा,
न जाने कौन खीच रहा  है,
अविरल विनाश की डोर ! 
आओ लौट चलें प्रकृति की ओर!


शुक्रवार, 22 अप्रैल 2011

रुग्ण होती कविता !

मस्तिष्क  और ह्रदय  से संयोजित होते हुए विचार प्रकट होते है . इस तरह जब विचार मन में उदेव्लित हो रहे हो बाढ़  की तरह,  तब उन्हें सकलित करने की आवश्यकता जान पड़ती है, इसीलिए संभतः  लेखन का कार्य भी प्रारंभ हुआ . इस उद्वेलन को सँभालने के लिए उसी क्षण लेखन सामग्री की भी आवश्यकता होती  है  यदि कुछ विलम्ब हुआ तो  तारतम्य बिगड़ जाता है .  
जब व्यक्ति लेखन प्रारंभ  करता है तो गद्य या पद्य की  भाषा में से किसी एक का चुनाव करता है . जिसमे वह सहज होता है वही से धारा प्रस्फुटित होने लगती है . गद्य को तो कवियों की निष्कर्ष की वाणी कहा गया है , गद्य को समझना भी कुछ आसान  सा लगता है  कितु पद्य में कभी कभी शाब्दिक क्लिष्टता के  कारण भाव अभिव्यंजना  को स्पष्ट कर पाना कठिन  सा लगता है  यो तो पद्य में गेयात्मकता, स्वर बद्धता, चपलता, और सौम्य सा निखरता है और पढने  में सुगम हो जाता है  किन्तु पाठक को भाव स्पष्ट करने में  कठिनाई भी होती है. लिखते समय तो संभवत कविगण अपने भाव में बह कर  निरंतर लिखते चले जाते है  और यह भी ख्याल नहीं रह जाता है  कि शब्दों का चयन किस प्रकार से किया जाय.और कभी - कभी   उत्कृष्टता का भी विचार पीछे छूट जाता  है .

विशेष कर ब्लॉग जगत में मैंने कई कवि एवं कवियत्रियो  को  पढ़ा , कुछ लोग तो वास्तव में  साहित्यिक  दृष्टी से रचना कर रहे है  परन्तु  कई ब्लोगों में विचरण करने पर मात्र समय  को धकेलने वाला काम हो रहा है . इतना ही नहीं खड़ी बोली का भी सम्यक प्रयोग नहीं हो पा रहा है . अनेको कविताये उर्दू मय हो चुकी है. लेश मात्र भी उनमे कविता के गुण नहीं देखने  को मिलते है . गद्य कविता का जन्म भी हुआ  परन्तु उत्कृष्ट था कितु आज तो ब्लॉग  में कहानी कविता दृष्टि गोचर होती है   बाजारी एवं चलताऊ  शब्दों का अत्यधिक प्रयोग कविताओं  में हो रहा है . साहित्य  भी चलताऊ सा  लगने लगा . और कविता रुग्णित .
इससे यह प्रतीत होता है कि ब्लॉग पर लिखना  मात्र  टाइम पास  है उसका साहित्य से कुछ लेना देना नहीं . रहस्य वाद और छायावाद के बाद   प्रगति वाद का जन्म हुआ  और इस युग की देंन  रही छंद मुक्त  कविता  अर्थात गद्य कविता . इसीका परिणाम है अनेको अनेक  कवि गणों का जन्म . 
अभी कुछ दिन से प्रतुल वशिष्ठ  जी ने साहित्यिक दृष्टिकोण  से एक सार्थक  प्रयास   प्रारंभ किया है  जिसमे छंद शास्त्र की वे शिक्षा अपने ब्लॉग के माध्यम से  दे रहे है. जो अनुकरणीय है . मेरा अभिप्राय यह बिलकुल नहीं  की आप छंद युक्त कविताये ही लिखिए  मैं  स्वयम भी ऐसा नहीं कर पाता हूँ. कितु इतना अवश्य होना चाहिए कि विषय  के अनुसार   शब्द चयन , भाषा की सटीकता  हो एवं  पुनरावृति दोषों से तो कम से कम   दूर रहे .  कविता का अर्थ यह भी नहीं है कि कठिन एवं संस्कृत निष्ठ  शब्दों का प्रयोग किया जाय किन्तु  सरल, और हिंदी के शब्द तो कम से कम अवश्य हों . दूसरी भाषा के शब्द का प्रयोग तो तभी हो जब आप के पास  कोई विकल्प न बचा हो  या उस शब्द की सार्थकता से  कविता की गति  और भी सरल व समोहन  करती हो . 

संभवतः कई विचारक मेरी  बात से सहमत न हों  कितुं लेखकीय धर्मं के अनुकूल जो दृष्टिगत होता  रहा मात्र उसे चिन्हित करने का प्रयास कर  रहा  हूँ.   अन्यथा  कविता का हाल ठीक उसी तरह हो जायेगा जिस तरह  W H O की रिपोर्ट में एंटी बायो टिक  दवाए  बेमौत मर रही  रही  है  कारण डाक्टरों द्वारा अत्यधिक  और अनावश्यक प्रयोग .

शुक्रवार, 25 मार्च 2011

एक थी गौरा देवी !

गौरा देवी

नेतृत्व क्षमता  और विवेक शील बुद्धिमता सिर्फ शिक्षित लोगों  में ही नहीं 
पनपती  है, यह तो ह्रदय से अनुकंपित, स्नेह, और लगाव तथा मस्तिष्क की वैचारिक चपल  अनुगूँज  से प्रस्फुटित होती है, व्यक्ति की वैचारिक क्षमता, कार्यशीलता और अनुभूति की गति  पर सदा निर्भर  करता है, जितनी अधिक कार्यशीलता होती है उतनी अधिक वैचारिक  क्षमता और अनुभूति की व्यग्रता  बढती चली जाती है. यही कार्यशीलता उसे कार्य की दक्षता  से नेतृत्व की ओर अग्रसर करती है.  इसी का परिणाम क्रांति में स्पंदित हो उठता है.  प्रायः क्रांतियाँ शांति और उपकारी दृष्टिकोणों से ही कार्यशील होती है.  तब इस कार्य का नेतृत्व कौन  कर रहा है इसके निर्धारण  का कोई मानदंड शिक्षा में  ही निहित नहीं होता है,  बल्कि अनपढ़ और अशिक्षित  व्यक्ति भी इतना संवेदन शील होता है किउनकी अभिव्यंजना पर पूरी सफल  क्रांति आ जाती है.

इसी तरह कि अभिब्यंजना से अनुकंपित, और अभिभूत थी शैल पुत्री गौरादेवी . पूर्णतया अशिक्षित, व् अनपढ़ एक निर्धन एवं हिमालयी जनजातीय परिवार  में,  चमोली जिले कि नीती घाटी के लातागाँव में १९२५ जन्म हुआ था इस हिम पुत्री का.  गौरा के जीवन की गाथा भी बड़ी संघर्ष पूर्ण है .१२ वर्ष की आयु में विवाह, १९ वर्ष में एक पुत्र को जन्म देकर मातृत्व कि सुखानुभूति के बाद, २२ वर्ष की ही आयु में पति का आकस्मिक स्वर्गवास .विधवा का जीवन यों तो आज भी विकटहै किन्तु  ५० के दशक में स्थिति कितनी भयावह रही होगी कल्पनातीत है,  और तब सयम, और विवेक के साथ जीवटता से जीना आसान काम नहीं . अपने अटल विश्वास, और संघर्ष शील रहकर  कभी हार नहीं मानी इस वीरांगना नें, जिसने देश नहीं पूरे विश्व में  एक पर्यावरण कि क्रांति ला दी .                                                                                                                              
चिपको के दृश्य
  ७० के दशक में सरकार नें जंगलों से वनों के कटान की भारी योजना बनायीं इस तरह से सरकार व्यापारिक  लाभ  कमाना चाहती थी. तब श्री चंडी प्रसाद भट ने १९६४ में दशोली ग्राम स्वराज्य  संस्था की स्थापना की . तत्पश्चात मार्च १९७३ में सरकार नेचमोली जिले के  मंडल फाटा के जंगलों में कटान का  आदेश दिया, मार्च से ही ठेकेदार जंगलों में डेरा डालने लगे. तब २४ अप्रैल १९७३ को दशोली  ग्राम स्वराज्य  के कार्य कर्ताओं के साथ ग्राम वासियों ने भारी विरोध किया था जंगलों  के कटान  का. तब श्री चंडी प्रसाद  के नेतृत्व में लोगो ने पेड़ो से चिपक जंगलों को बचाया यही से जन्म हुआ था चिपको आन्दोलन का. सरकार ने अपने आदेश जन विरोध के कारण वापस ले लिए.

पुनः जनवरी १९७४ में सरकार ने चमोली जिले के नीती घाटी के जंगलों  में कटान  की योजना बनायीं  और तब मंडल फाटा की मुहिम पैन्खाडा  ब्लाक के नीती घाटी के रैणी गाँव के जंगलों  में फ़ैल गयी.   यहाँ  इसकी  सूत्रधार थी गौर देवी. २६  मार्च १९७४ को जंगलों में कटान का कार्य शरू होना था. गांववासियों  को पता चलने पर उन्होंने भारी विरोध दर्ज किया. ठेकेदारों ने विरोध में कार्य स्थगित कर रात में कटान की योजना बनायीं. किन्तु   शाम को गावं की एक लड़की  को इसकी भनक लग गयी. और तब उसने यह  सूचना गौरादेवी को दी. गौरा देवी  रैणी गावं की महिला समिति की अध्यक्षा भी थी. इस समय गावं में पुरुष वर्ग भी मौजूद न था

गौरा ने गाँव की महिलाओं को  एकत्रित कर जंगल  की ओर कूच किया. और पेड़ों को आलिंगन बध कर एक चेतावनी दे डाली ठेकेदारों को . कुल्हाड़ी पहले हम पर चलेगी फिर इन पेड़ों पर.  अपने आंचल की छाया से इन वृक्षों  को बचाया आततायियों के चंगुल से  और पूरी रात निर्भय और बेखोफ होकर जग्वाली की अपने शिशुवत पेड़ों की.  यही से आन्दोलन की भूमिका तेज हो गयी और आग की तरह पूरे उत्तराखंड  में फ़ैल गयी  .



तब इसी चिपको आन्दोलन को पुनः दिशा दी श्री चंडी प्रसाद भट्ट ने .तदुपरांत भट्ट जी को श्री सुंदर लाल बहुगुणा का  सानिध्य प्राप्त हुआ और इन दोनों के नेतृत्व में  चिपको आन्दोलन सिर्फ उत्तराखंड तक ही नहीं सीमित रहा   बल्कि पूरे विश्व पटल पर  पर्यावरण को नयी दिशा मिली . यदि गौरा देवी अपनी जीवटता और अदम्य सहस का परिचय  न देती तो शायद आज ग्लोवल वार्मिंग की स्थिति और भी भयावह होती. उत्तराखंड में  औषधीय गुणों की वनस्पतिया आज देखने को भी न मिलती.  इसी के प्रतिफल में इन दोनों नेताओं को मैग्सेसे  पुरुष्कार से भी सम्मानित किया गया .  

जब रैणी के जंगलों में तहकीकात के लिए तहसीलदार एवं अन्य वन कर्मी गए तो उन लोगों ने गाँव वासियों का समर्थन  करते हुए  ठेकेदार के आदमियों को बंदी बनाना चाहा तो  गौरा देवी ने  कहा था "  साहब इन लोगों का कोई कसूर नहीं ये तो सिर्फ आदेश का पालन कर रहे है  इन्हें छोड़ दो "    आप कल्पना कीजिये की क्षमा दान की भी कितनी उच्च अवस्था थी इस महिला की. वृक्षों को तो बचाया ही किन्तु अपराध करने वालों को क्षमादान दिया. साक्षात् हिम पुत्री गौरी  थी.
चिपको आन्दोलन को २६ मार्च २०११ को पूरे ३७  वर्ष हो जायेंगे  मुझे याद नहीं आता कि कभी   इस आन्दोलन  का भी वार्षिक  दिवस मनाया जाता हो या फिर  कभी किसी ने चिपको कि जननी गौरा को याद किया हो ! इस महान वीरांगना को शत शत नमन ! 
  चिपको के उद्घोष सूत्र थे :-        
          क्या है जंगल के उपकार, मिटटी पानी और वयार,
         मिटटी पानी और वयार, जिन्दा रहने के आधार .                                                  


शुक्रवार, 11 मार्च 2011

दम तोड़ रही है !



यमुना !
वृद्धाकार !
तटबंधों पर रेत के टीले !
और उन पर उगते
सफ़ेद कांस केश !
रुग्णित, विक्लांत !
                                   दिल्ली में,
जीवनदान या इच्छा मृत्यु की
भीख मांगती !
चौमासा में
यौवन, इठलाती बलखाती
और आवेशित रोष  भी दिखाती !
परन्तु
पतझड़ तक न जाने
क्यों बुढ़ापा घेर लेता
जल, जल नहीं, विषज़ हो जाता  है
दिल्ली के परनालो से भी
होता विष  अवसिंचन !
तब यह अचेत, अति रुग्ण,
बड़े अस्पतालों के अस्तित्व पर
प्रश्न चिन्ह छोडती
क्योंकि यह तो
बिना औषधि
दम तोड़ रही है !


















मंगलवार, 8 मार्च 2011

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस

        
            सभी  महिला ब्लोगरों को 

                     अंतर्राष्ट्रीय

                महिला दिवस  की               

                       हार्दिक 

                   शुभकामनाएं 

 

शुक्रवार, 4 मार्च 2011

असमय मृत्यु का प्रति फल - पुनर्जन्म या पुनर्जीवित होना

संसार परिवर्तन शील है यह एक ब्रह्म सत्य है जन्म मृत्यु के चक्र में प्राणी घूमता रहता  है . तरह तरह की व्याख्याएं  परिभाषित है, प्राणी जीवन के वृत्त चित्र की .धर्म भी अलग अलग मान्यताएं प्रदान करते हैं . उस एकाकार  नियंता की निर्माण कार्यदायिनी में  निर्माण, उत्पादन, विपणन और निष्पादन  सभी कुछ  अबाध गति से चलता रहता है बिना कुछ समय बिताये   और बाधित हुए .  धर्म ग्रंथो  की गणना, परिकल्पना  को मैं नकार तो नहीं सकता, क्योंकि उनकी भी कुछ अपनी सार्वभौमिकता तो अवश्य होगी . उसकी इस निर्माण कार्यदायिनी में जन्म पूर्व ही मृत्यु का दिनांक  भी अंकित हो जाता है .
असमय मृत्यु वाले प्राणी को तो यमराज के कार्यालय  में प्रवेश भी वर्जित होता है . उसके असमय आने का कारण तथा उसके जीवन की पूरी पड़ताल कर दी जाती है  और तुरंत ही उसे वापस भेज दिया जाता है , किन्तु इन सब बातों से बेखबर हम लोग मृतक शरीर को, अपनी मान्यताओं के अनकूल,   अधिक देर  न रख कर, दाह संस्कार कर देते हैं , लौटते  हुए क्षणिक विलम्ब  या हमारी अति  शीघ्रता उस आत्मा को संवाहक विहीन कर देती है , और उसे अधोगति प्राप्त होती है .
कई बार मृत्यु  को प्राप्त  व्यक्ति को पुनः जीवित होते हुए भी सुना गया  ऐसा  तभी हो पाता है जब असमय मृत्यु आत्मा के लौटने तक संवाहक शरीर का दाह संस्कार नहीं हुआ होता है  और आत्मा पुनः उसी शरीर में संचारित हो जाती है . अभी कुछ दिन पूर्व ब्लॉग में  आत्मा और पुनर्जन्म के बारे में बहस हो रही थी  संयोगवश आज मुझे अपने एक सहयोगी से ऐसी ही जानकारी प्राप्त हुई . जिसमे आत्मा का पुनः संचार  भी हुआ, और पुर्जन्म भी . सत्यता तो प्रभु ही जाने . 
किसी सन्दर्भ में वे बताने लगे मेरी दादी  को, जब उनके पिताजी, हाथो में मालिश कर रहे थे तो दादी की मृत्यु हो गयी बात सायंकालीन थी , इसलिए दाह संस्कार  प्रातः ही संभव था, दादी की आयु  १०५  वर्ष थी, किन्तु कुछ समय बाद उनमें पुनः जीवन का संचार हो गया. होश में आने पर दादी ने जो अनुभव सुनाया  और उसका प्रतिफल प्रत्यक्ष दर्शनीय था वे बताती है कि उन्हें असमय आने पर गर्म चिमटों से मारा गया और तत्पश्चात देखने पर उनके शरीर में घाव स्पष्ट नजर आने लगे, किन्तु तीन दिन बाद उनकी पुनः मृत्यु हो गयी .
इसी तरह वे एक किस्सा और सुनाते है कि उन्ही की रिश्तेदारी में एक व्यक्ति की खेत जोतते समय दुर्घटना वश अकारण  असमय  मृत्यु हो गयी. दिन का वक्त था तो दाह संस्कार समय पर कर दिया गया. परन्तु इन्हें लौटा दिया गया था यमराज के दरबार से . इन्ही दिनों पास के ही गाँव में एक बालक का जन्म हुआ  जब यह बालक चार वर्ष का था तो उसने सारा वृतांत सुनाया और अपने मूल गाँव आया . वहां  पर उसने उसी तरह बात की जैसे पहले से करता था. मेंरा  सस्कार करने में आप लोगों ने जल्दी क्यों की ? ऐसे ही कई लोगों से उन्हें रूपये वापस  लेने थे  तो उस बालक के  बताने पर सभी रुपयों की वसूली हो सकी.  इस प्रकार कई सारी प्रमाणिकता देते हुए व अब वहीँ  पर अपने पूर्व लोगो के साथ ही रह रहा है .
 उसे जब यमराज के पास ले जाया गया  तो बताता है कि उन्होंने असमय आने  के कारण वापस भेज दिया था किन्तु दाह संस्कार हो जाने के कारण संवाहक न मिल पाने के कारण उसे वापस लेकर गए , यमराज ने उसे दूत के साथ विष्णु के पास भेजा परन्तु विष्णु ने निदान के लिए पुनः  ब्रह्मा जी  के पास भेजा. चूँकि उसकी आयु लगभग १५ वर्ष शेष थी इसलिए नए संवाहक को जन्म देकर उसे वापस भेज दिया . इस तरह पुर्जन्म ही नहीं बल्कि वह तो पुरानी आयु को ही भोगने के लिए भी जन्मित हुआ .
इस तरह मनुष्य व् प्राणी  सभी अपने कृत्य, अकृत्य एवं कुकृत्य  का प्रत्यक्ष फल प्राप्त करता है इस व्यक्ति को तो तीन  देवताओं के साकार दर्शन हुए , वहां सभी का लेखा जोखा पलभर में प्रस्तुत हो जाता है  यह एक सत्य है  

मंगलवार, 15 फ़रवरी 2011

हिमगिरी के सम्मुख यह निर्मम नाटक कैसा !

निस्तब्ध शून्य के नीचे यह कोलाहल सा कैसा !
अधिकार विकृत जीवन का स्वार्थ कैसा !
निरा  सा धुंवा  कर्तब्य का कैसा !
माँ  भारती !  अपहृता- अनादि योद्धा, हिमगिरी मौन साधे कैसा!
तिरोहित  मनः स्थिति  में, निर्निमेष अवलोक रहा  कैसा !
विक्षिप्त जीवन की व्यथा है, यह प्रलय का द्वार है कैसा!
छा रहा  हिमगिरी  के नेत्र पटल पर, अन्धकार सा कैसा!
शांत ! नीरव! पवन तपोभूमि थी यह ,
कुरुक्षेत्र सी रणभूमि, यहाँ कोलाहल सा कैसा!
हिंसा के गौरव कुंडली कुरुक्षेत्र के कौरव,
नवजात अभिमन्यु के लिए, धर्मव्यूह रचाया है कैसा!
सभी बन कर योद्धा, एक दूसरे की परछाई,
द्वेष, द्वंद्व, अनीति, घृणा पर सहज उतर आयी!
परन्तु ! न कर्ण वीर शेष हैं, दानव पन अभिशेष  है!
धर्मभीरु ! धर्मयुद्ध ! के लिए  यह कौरव नृत्य कैसा है!
निरपराध जन द्रोपदी ! चीर हरण अपमान को झेल रही है !
मौन खड़ी साधना में, सहायतार्थ कृष्ण को पुकार रही है!
या फिर स्तब्ध  खड़े हिमगिरी को, ढह जाने को कोस रही है !
पापंकी बना  दिया इस देश को कैसा !
अराजकता का आधुनिक दुर्योधन कैसा !
माँ भारती ! अश्रुपूरित नयनो का यह माणिक हार कैसा !
रुदित कंठ से भीरु  बने, धर्म पुजारी !
यह खंडित खेल, मौन निहारते मधु विहारी !
क्यों ?
अरे ! आदि पुरुष हिमगिरी के सम्मुख  यह निर्मम नाटक कैसा ! 


(कविता २१ फरवरी १९८४ को लुधियाना में लिखी  थी कितु प्रकाशित न करवा सका. संभतः मेरे तब का आशय और की आज  स्थिति  में समानता है )

आजा बचपन एक बार फिर

 सुभद्रा कुमारी चौहान  पंक्तियाँ  सार्थक  हैं - आजा बचपन  एक बार फिर .................


सोमवार, 24 जनवरी 2011

क्या छायावाद वापस आ रहा है ?

वैज्ञानिक विकास की   सघन छाया में पलता पोषता आधुनिक जीवन  और जीवन की विचारधारा  अतीव तीव्र है गति भी और सञ्चालन भी . इस खोजी युग में ना जाने कितने वैज्ञानिक जन्म ले रहे है प्रश्न का उत्तर कठिन है . ऐसे युग में  वैज्ञानिक दृष्टिकोण  से  अवलोकन करने पर  प्रतीत  होता है कि प्रायः नीरस साहित्य का  सृजन होगा .  यही एक क्रम प्रारंभ हुआ था जब छायाबाद   के उतरोत्तर कवि सभी प्रगतिवादी विचारधारा की कविताये व् अन्य साहित्य का सृजन करने लगे . स्वयं  सुमित्रानंदन पन्त उत्तर काल में   प्रगति वाद और मार्क्सवाद  से अछूते नहीं रहे . अर्थात धीरे धीरे छायावाद का पराभव हो गया.
   

कविता ने नए रूप में जन्म लिया . छंद मुक्त हुई, बंधन मुक्त हुई . गद्यात्मक पद्य की रचना  अपने यौवन पर इठलाने लगी . फली फूली और  एक रसदार कविता का पराभव भी हुआ . तत्पश्चात गद्य युक्त, छंद मुक्त, बंधनमुक्त, कवियों और कविताओं की बाढ़ सी आने लगी.  यही पता न लग  सके की कौन किस पद का स्वामी है. लगभग अलंकारो की बलि चढ़ा ही दी गयी.

पुस्तके छपती रही, पत्र पत्रिकाए  भी, साहित्य में  भी निरंतरता  बनी  रही,  परन्तु निरंतरता यदि भंग हुई तो  मेरी स्वयं की . पढ़ने की रूचि, काम  की बोझिल आद्रता, कार्य क्षेत्र  का  अरुचिकर  परिवेश .  सब कुछ से बाधित होता रहा . आर्थिकी भी एक कारण रहा . किन्तु यदा कदा समय मिलने पर कुछ संयोजन करते ही चले गए.
           पिछले एक डेढ़ वर्ष से ही सीधी तरह से इन्टरनेट का उपयोग कर रहा हूँ  इस उपयोग के माध्यम से ब्लॉग तक पंहुच बनायीं . यहाँ आकर अनेक विद्वानों की रचनाओं का रसास्वादन करने लगा . कल्पनातीत  है कि जिन व्यवसायिक कार्य क्षेत्र को साहित्य के लिए  मैं नीरस  समझता रहा  उसी क्षेत्र के लोग साहित्य सृजन में अनुपम योग दान कर रहे हैं.  जैसे  डॉक्टर , इंजिनियर  वैज्ञानिक क्षेत्र से जुड़े व्यक्ति , ये सभी उच्च कोटि से , तल्लीन होकर अपने  इन कार्य क्षेत्रों के बाहर साहित्य में, कवितायेँ , लेख (सामाजिक, राजीनीतिक , और अध्यात्मिक जैसे विषयों ) कहानियां  आदि का निरंतर सृजन कर रहे हैं
         कवियों की तो बाढ़  सी आयी हुई है,  ब्लॉगजगत कवितामय हो गया है,   और इन कविताओं में भी प्रेम गीत गए जा रहे है.  अधिकांश कवि या कवियत्रियाँ पुरुष और नारी को ही माध्यम बनाकर, या मानवीयकरण कर छायावादी विचार धारा से ओतप्रोत  हैं. कोई झील , कोई गुलाब और कोई नारी कि जुल्फों को ही माध्यम बना  रहे है

कभी कुछ अधिकारिता के कारण पुरुष और नारी के विषय को संवेदन शील बना दिया जाता रहा परन्तु जब कविता उमड़ती  है तो  कलम ( कीबोर्ड  ) पर आधिपत्य  नहीं रह जाता और वह अनवरत अनायास ही प्रेम, प्यार ,  पारस्परिक संबंधों के विस्तार को कंठ मुक्त होकर  सोछोवास लिखने लगती है छंद रहित, बंधन रहित, छायावादी कविताओं  को, बिना ही अलंकारों के भी,  तो भी  अच्छी लगती है .
क्या हम पुनः छायावाद की   ओर मुड रहे हैं या  छायावाद वापस आ रहा है ?

मंगलवार, 4 जनवरी 2011

हिमालय के अंतराल में छिपे कुछ दर्शनीय एवं पौराणिक स्थल

यों तो गढ़वाल ही नहीं अपितु सारे उत्तराखंड में तीर्थ स्थलों, मंदिरों एवं सुरम्य पर्यटक स्थलों की भरमार है । इस धरोहर के लिए भारत ही नहीं पूरे विश्व में प्रसिद्द है इसी कारण हजारों तीर्थ यात्री एवं पर्यटक उत्तराखंड पहुँचते हैं।
प्रायः लोग मुख्य स्थानों , बदरीनाथ केदारनाथ , नैनीताल, कौसानी, मसूरी, हरिद्वार, ऋषिकेश, एवं गंगोत्री यामोत्री धाम की ओर रुख करते हैं। जो हमेशा के लिए अपने दर्शकों का मन मोह लेते हैं। परन्तु कई छोटे छोटे व् दुर्गम तीर्थ एवं पौराणिक , पर्यटक स्थल हैं जिनसे स्थानीय लोगों के सिवाय बाहर की दुनिया अभी भी अनभिज्ञ हैं।
आइये ऐसे ही कुछ स्थलों से आपका परिचय कराता हूँ :-

त्रिकुटी सरोवर ( तारा कुण्ड) - उत्तराखंड में कमलेश्वर ( पौड़ी गढ़वाल ) से लेकर बागेश्वर (कुमांऊ) तक फैला हुआ राष्ट्रकूट नामक पर्वत श्रृखला है । इस पर त्रिकुट नामक श्रेणी है । इस श्रेणी पर अकल्पनीय एक सुन्दर जलाशय एवं शिव मंदिर है जिसे तारकुंड या त्रिकुटी सरोवर भी कहते हैं। विरानेश्वर( विन्देश्वर या बिनसर ) भी इसी पर्वत श्रृखला पर स्थित है। इसका वर्णन स्कन्द पुराण में भी उपलब्ध है। लोगों के मतानुसार इस क्षेत्र का नाम राठ भी इसी पर्वत के नाम का विकृत रूप है।

तारा कुण्ड पौड़ी से लगभग ६० से ७० किलो मीटर की दूरी समुद्र ताल से १६०० मीटर की उचाई पर पट्टी धैज्युली ग्राम बडेथ के ठीक ऊपर चोटी पर स्थित है। यहाँ तक पहुचने के लिए पौड़ी से पैठाणी-चाकिसैन तक मोटर मार्ग तथा चकिसैन से पैदल सीधी खड़ी चढ़ाई लगभग ७- ८ किलोमीटर । चाकिसैन समुद्र तल से लगभग १५३० मी की उचाई पर स्थित है । दूसरा मार्ग पैठाणी से मोटर मार्ग होता हुआ सिर्तोली , पल्ली होते हुए ठीक बडेथ गाँव तक पहुंचा जा सकता है।
इस शिखर पर एक शिव मंदिर एवं सुन्दर जलाशय व् एक कुंवा है जिसकी गहराई १०-१२। मी बताई जाती है इस शिखर से दोनों ओर के सभी गाँव दृष्टिगोचर होते हैं। इतनी ऊँचाई पर होने के बावजूद पानी की उपलब्धता , एक तालाब और कुण्ड के रूप में अकल्पनीय लगती है। परन्तु यहाँ हर मौषम में पूरे साल पानी उपलब्ध रहता है।
भाद्रपद कृष्ण जन्माष्टमी एवं phalgun शिवरात्रि पर मेले के आयोजन भी होता है। कृष्ण जन्माष्टमी पर इस सरोवर में प्रायः नील कमल खिले रहते हैं मन भावनी बरसात की हरियाली और वसंत पर खिलते लाल बुरांश इन मेलों की शोभा पर चार चाँद लगा देते हैं प्रकृति का यह मनोरम दृश्य बरबस मन को मोह लेता है।
मंदिर से कुछ ही दूरी पर एक छोटी से गुफा नुमा सुरंग सी है कुछ वर्ष पहले यहं एक योगिनी रहा करती थी जब श्रद्धालु गुफा के आगे चावल या भेट स्वरूप पैसे रखते थे तो तो चूहे आकर वस्तुओं को उठाकर योगिनी तक ले जाते थे ऐसा योगिनी स्वयं बताती थी
किंवदंतियों के अनुसार भागीरथ जब आकाश मार्ग से गंगा को पृथ्वी पर लाने का प्रयास कर रहे थे कुछ छोटी सी जल धारा यहाँ पर पदार्पित हुई और और पानी का बहाव इतना तेज था किआज भी नीचे के गांवों ( ऐन्गार , कुटकांडई,) में स्पष्ट दिखाई देता है कि कभी यहाँ बढ़ जैसी आपदा आयी होगी बड़े बड़े शिलाखंड इस बात कि ओर कुछ तो इशारा करते हैं ।
कुटकांडई महदेव के ठीक ऊपर एक बहुत बड़ा शिलाखंड है जो दूर से देखने पर शीघ्र गिर जाने कि संभावना प्रतीत होती है कई वर्षोंसे यह एक छोटे पत्थर की ओट पर टिका हुआ है।
तारा कुण्ड की विशेषता तालाब और कुण्ड के पानी की है । बरसात में प्रायः तालाब का पानी गन्दा हो जाता है किन्तु साथ में ही कुण्ड का पानी बिलकुल स्वच्छ रहता है। कुण्ड के पानी को लोग गंगा जल की तरह घरों को लेकर जाते हैं निकासी के रूप में कुण्ड का पानी दो श्रोतो से कोटेश्वर( कुट कांडई ) महादेव तथा राहू के मंदिर पैठाणी में निकलता है।

राहू का मंदिर - त्रिकुट पर्वत की घाटी में , श्योलिगड़( रथ वाहिनी) एवं पश्चिमी नयार ( नवालिका ) के पुनीत संगम पर पैठाणी गाँव स्थित है। यहाँ पर राहू का मंदिर है । कुछ लोगों के मतानुसार यह मंदिर पांडवों तथा कुछ शंकराचार्य द्वारा निर्मित बताते है। इस मंदिर की उपरी शिखा कुछ झुकी हुई प्रतीत होती है। इस स्थान का नाम पैठाणी राहू के गोत्र पैठानासी के कारण पड़ा । "राठेनापुरादेभव पैठानासी गोत्र राहो इहागच्छेदनिष्ठ " और राहू के मंदिर के कारण संभवतः इस समूचे क्षेत्र का नाम राठ पड़ा । यहाँ के लोग पहले काले वस्त्र पहना करते थे चूँकि राहू को काले वस्तुए एवं वस्त्र पसंद है इसीलिए संभवतः काले वस्त्र प्रचलन में आये हों ।

पौड़ी से पैठाणी की दूरी लगभग ५०की मी है यहाँ तक सीधे मोटर मार्ग उपलब्ध है। मंदिर का निर्माण काल तथा बनावट के निश्चय हेतु पुरातत्वा वेताओं का अध्यन आवश्यक है। फिलहाल यह मदिर भारतीय पुरातत्वा विभाग के संरक्षण में है। सरकार को चाहिए ऐसे स्थलों की ओर ध्यान देकर उनका पुनरुधार तथा संदार्यी करण एवं विकास करना चाहिए।


शिन्गोड़-इसी राष्ट्रकूट पर्वत श्रृखला पर दूधातोली वन प्रखंड में शिन्गोड़ नामक स्थान है। जिसे रिस्ती की भरवाडी भी कहते है रिस्ती रथ क्षेत्र का आखिरी गाँव है। चाकी सैन से रिस्ती की दूरी लगभर ३५-४० कि मी
है। यहं के लिए माना जाता है कि रामायण कालीन महर्षि श्रृंग का आश्रम है यह क्षेत्र प्राकृतिक सम्पदा एवं सुन्दरता के लिए अलोकिक रूप से धनी है।

स्कन्द पुराण के अनुसार इस आश्रम के पास से ही वहां की तीन प्रमुख नदियों का उदगम स्थल है।ये नदियाँ रथवाहिनी , नावालिका , तथा व्यास गंगा कहलाती हैं । रथ वाहिनी ( स्योलिगड़ ) तथा नावालिका ( पश्चिमी नयार ) दोनों पैठाणी में संगम करती हैं तथा ये दोनों मिलकर व्यास गंगा( पूर्वी नयार) के साथ सतपुली संगम करते हैं ।
इस क्षेत्र में अन्न और दूध, घी तथा शहद कि प्रचुरता पाई जाती है।

इतने पौराणिक स्थलों एवं प्राकृतिक सुन्दरता की अनुपम छटा लिए हुए होने पर भी ये सभी स्थान विकास की गति से दूर हैं यदि यहाँ पर सुविधाएं एवं संरक्षण सरकार द्वारा प्रदान किया जाय तो ये सभी स्थल पर्यटन और तीर्थ के रूप में उभर सकते हैं। इन स्थानों पर पर्याप्त शोध की आवश्यकता है। जिससे पर्यटन में नया अध्याय जुड़ सके ।