शुक्रवार, 26 नवंबर 2010

संस्कार विहीन बनता शादियों का बदलता स्वरूप

दिल्ली से उत्तराखंड जाना अपने में एक सुखद अनुभूति होती है गृह  प्रदेश में पदार्पण  की खुशियाँ छलकती रहती है . किन्तु बच्चों में ऐसा प्रतीत नहीं होता है वे यही के परिवेश में पले बढे . मैं १३.११.२०१० को  दिल्ली से देहरादून के लिए निकला , पुनः दूसरे ही दिन मुझे  परिवार के साथ गढ़वाल के लिए रवाना होना था  सीधी बस के इन्तजार में काफी भीड़ इकठी हो गयी थी . कंडक्टर  महोदय  परिचित होने के कारण मुझे थोड़ी से सुविधा  मिली  और ड्राईवर के पीछे की सीट मिल गयी जिससे रास्ता आसान हो गया . नहीं तो मुझे रास्ते में उल्टियाँ होने कारण परशानी होती . बस अपने गंतब्य के लिए प्रातः ८ बजे चल पड़ी और ऋषिकेश के बाद सड़क सर्पीली आकर लेने लगती है  किन्तु गंगा के किनारे से होते हुए सड़क मार्ग का रोचक दृश्य मन को रोमांचित करता रहता है गंगा का छलकता धवल  निर्मल जल, राफ्टिंग करते हुए नाविक , भाव विभोर करते रहते हैं. . देव प्रयाग के पुल को पार करते ही  रोमाच जैसे गायब हो जाता है  क्योंकि यहाँ से धीरे  धीरे गंगा का साथ छूटने  लगता  है और पहाड़ियां भी कुछ  बीहड़ सी लगती है .
ठीक दो बजे पौड़ी में थे  अनुमान से हम पांच बजे तक अपने गंतब्य तक पहुँच जाते किन्तु रास्ते में एक जगह ( सान्कर्सैन) में मुख्यमंत्री जी के कार्यकर्म के कारण लगभग एक घंटे  का  विलम्ब हुआ  अब हम अपने गंतब्य तक ६.३० बजे पहुचे  अँधेरा हो चूका था  बस से उतरते हुए मेरे बड़े बेटे के हाथ से मोबाइल फ़ोन भी गिर गया  जिसका अभी तक पता नहीं चल सका .
गाँव में हम अपनी भतीजी के शादी  में गए थे .   जब हम छोटे थे तो तब शादियों का माहोल बहुत आकर्षक लगता था बारात रात को आती थी , घर को सजाया जाता था रंग बिरंगे कागज के पतंगों से . या फिर पयां ( एक पेड़ होता है इसकी पत्तियों को शुद्ध माना जाता है इसका बोटानिकल नाम मैं नहीं जानता ) की पत्तियों  से  गेट की खूबसूरती के लिए हरी रिंगाल और केले के तनो से भी सजाया जाता था  रात में महफिल में हारमोनियम ढोलक तबला  की थाप से संगीतमय वातावरण तैयार होता था बाराती हों या घराती महफिल के शौक़ीन इन वाद्य यंत्रो  की तरफ लपकते थे गाने वाले भी  पीछे  नहीं रहते . बरात का स्वागत स्कूली  बच्चे करते,  चाय आदि का प्रबंध  भी  इन्ही के जिम्मे होता था  एक अलग ही आकर्षण बनता था .
 लोग भी शादी ब्याह के समय सारा काम मिल जुल कर करते  खाने से लेकर सोने तक का प्रबंध सभी आपसी तालमेल से करते  . पहाड़ों में आज भी शादियों में गैस  का प्रयोग बहुत कम होता है जंगली लकड़ी से ही सारा खाना तैयार होता है  गाँव के लोग ही जंगल से लकड़ी घर तक लेकर आते थे  भोज जमीन में बैठ कर मालू के पतों की  पत्तल में या फिर केले के पत्तों में परोसा  जाता था  जब भोजन परोसा जा रहा हो तो परोसने वालों के अलावा किसी दूसरे का पंगत में जाना निषेध होता था
सारे रस्ते मैं इन्ही कल्पनाओं और यादों को समेटने में लगा रहा . हमारे बच्चों ने तो ऐसा परिद्रश्य  देखा ही नहीं .
बदलते परिदृश्य ने करवट ली  और सारी परम्पराए दरकिनार होती चली गयी जैसे युगों पुरानी, कथा कहानी की बात हो. वहां भी एक दिवसीय शादियों का प्रचलन चल पड़ा . जब मैं १९८२ में  लुधियाना  गया था तब मुझे वहां पर एक दिवसीय शादियाँ देखने को मिली  और यह मेरे लिए आश्चर्य की बात थी.  धीरे धीरे यही चलन सभी जगह  पहुँच गया  और अब गढ़वाल में भी .  यहाँ पर भी दिल्ली , देहरादून की तरह आपको स्टेंडिंग  भोज की प्रचुरता  मिल रही है
घर जाते समय जब मेरे  बड़े भाई ने मुझे स्टेंडिंग भोज , और एक दिवसीय शादी का प्रोगाम  बताया तो मैंने उनसे एतराज जताया  तब उन्होंने मुझे इसके कुछ कारण भी बताये   जिनके कारण आज पहाड़ों में  अपरिहार्य होते हुए भी एक दिवसीय शादियों का  प्रचलन   तेजी से  बढ़ रहा है. कारण निम्न प्रकार से हैं:

१. रात्री कालीन शादियों में शराब का बढ़ता चलन . जिससे शराबियों पर काबू पाना कठिन हो जाता है  और अक्षर मार पिटाई तक  की नौबत आ जाती है.
२ बारातियों की संख्या रात्रि कालीन शादियों में अधिक होती है  उनका समुचित प्रबंध कठिन हो चला  क्योंकि गाँव में भी शहरी पन आ गया है कोई भी अपने यहाँ  बारातियों को सुलाने के लिए तैयार नहीं होते  ऐसे मौके पर अपराधी प्रवृति भी बलवती रहती है. कुछ लोग शरारते भी करने लगते हैं
३  एक रात  का भोज का खर्च भी कम हो जाता है .
४ स्टेंडिंग भोज  अब ठेके पर हलवाई तैयार  करते हैं  गाँव के लोगों में सहायता भाव  समाप्त हो चूका है  इतना ही नहीं समय पर गाँव वाले खाने के लिए पहुँच जाये तो गनीमत समझे . अन्य सहयोग तो दूर की कौड़ी हो चुकी है .
 कारण और भी होते है  चाहे व्यवस्था से जुड़े हों या आर्थिक  रूप से . किन्तु बदलाव  आ चुका है  जिनकी आर्थिक स्थिति बिलकुल डामाडोल है  वे भी इसी माडल  को अपना रहे हैं   एक दिवसीय शादी  कुल मिला कर एक युद्ध जनित कार्य बन गया है
सिर्फ शादी हो गयी . संस्कार , रस्म अदायगी के रूप में फिस्सडी काम हो गया है यानि चलताऊ शादी हो रही है. हर  कोई जल्दी में है  सर्दियों में तो और भी टेढ़ी खीर सी  बन गयी है  पंडित जी से भी बाराती यह कहते हुए सुने जा रहे हैं पंडीजी जल्दी करे . महासंकल्प और वेदी में फेरों के समय की चुटकियाँ तो अब ईद का चाँद हो गयी है वधु पक्ष की लड़कियों और बारातियों के बीच होने वाले वाद विवाद, नोक झोंक   की रस्मे कथा चित्रों में शामिल हो चुकी हैं  अब कहाँ  वो शादियाँ .
बदलते परिवेश ने सभी कुछ बदला डाला  हाँ आर्थिक परिदृश्य  भी गढ़वाल का बहुत मजबूत हुआ है शायद इन्ही बातों ने बदलाव को स्वीकार किया हो
मेरी भतीजी की शादी भी इसी तरह  संपन हुई  महसूस ही नहीं हुआ की शादी दिल्ली , देहरादून में हो रही है या मेरे घर सिमाड़ी ( गढ़वाल ) में .
 रस्मों  और संस्कारों की बलि  लेता हुआ बदलाव को नमस्कार . सब कुछ यादें बन कर रह गया .

बुधवार, 24 नवंबर 2010

खिलाडी कैसे प्रयोग करते है राष्ट्रीय ध्वज का !!!

अंतर्राष्ट्रीय खिलाडी सोना तो उगलते हैं अपने देश के लिए , किन्तु राष्ट्रीय झंडे का सम्मान करने से क्यों चूक जाते है  क्या उन्हें इतनी जल्दी , और ख़ुशी होती है कि वे मनको को भूल जाते है या इतने लापरवाह होते है कि मालूम ही नहीं पदता कि झंडे का प्रयोग कैसे किया जाये इस तस्वीर  में कुछ इसी तरह का नज़ारा पेश कर रहे हैं टेनिस  देव
जहाँ ख़ुशी सोना जीतने की है वंही दुःख है झंडे के  अनुचित प्रयोग का  . खेल के साथ इन्हें राष्ट्रीय ध्वज का प्रयोग  भी सिखाना चाहिए  तस्वीर  दैनिक जागरण से ली गयी है.   

शुक्रवार, 5 नवंबर 2010

प्रकाश पर्व दीपावली

आज दीपावली है  मैंने  आज सवेरे हिंदी के प्रख्यात लेखक  श्री लीलाधर जुगुड़ी का हिंदुस्तान में एक लेख पढ़ा जिसमें उन्होंने श्री राम द्वारा अमावश्य को घर लोटने पर कुछ रौशनी डाली है वे कहते हैं कि जब अँधेरा होता है तो लोग प्रकाश की खोज करते है . अँधेरा यदि प्रज्वलित होता है तो प्रकाश जगमग करने लगता है वास्तव में उन्होंने बहुत ही दार्शनिक एवं वैज्ञानिक  ढंग से दीपावली के त्यौहार  पर सुन्दर मार्मिक वर्णन  किया है राम ने वन से लोटने पर अँधेरे का चुनाव किया  कि अँधेरे में उनके प्रकाश से वे अपनी प्रजा को भली भांति देख सकेंगे अथवा प्रजा उनको श्री राम कि कांति में अच्छी तरह पहचान सकेंगे . अँधेरा उजाले से प्राचीन है  और प्रकाश अँधेरे कि आवश्यकता बन गयी है .
आज जब मै बाजार  में था तो लगभग ४-५ बजे का समय था कुछ  सामान खरीदना  था  एक दुकान से दूसरी  देखते हुए काफी समय व्यतीत हो गया  दुकानों में रौशनी जगमगा रही थी रात का एहसास  सा हो रहा था  जब बाजार से निवृत  हुए और बाहर सड़क पर पहुंचे  तो सड़क सुनसान सी नजर आई .मुझे कुछ पल के लिए ऐसा भ्रम बना कि लगभग रात कि ९ बज चुके है  मेरे मुह  से अनायास ही निकल पड़ा कि हमें बस नहीं मिलेगी क्योंकि आज दीपावली  है  सभी बसे अपने गंतब्य तक पहुच कर छुटि कर चुके होंगे  किन्तु ऐसा था नहीं चूँकि सडको पर त्रास्फिक कम हो चूका था और दीवाली मानाने  की सभी को जल्दी थी तो लोग घरों को लौट रहे  थे  इतने में  बस आ गयी  हम बस में चढ़ गए पुनः  जब बस से उतरे तो  तब मैंने समय देखा तो अभी ६.५० बज रहे थे . तो मुझे यकायक सबेरे   ही माननीय जुगुड़ी  जी का लेख का ध्यान आ गया
मेरे अपने घर में दीपावली का पर्व इस वर्ष वर्जित है क्योंकि  अभी हमारे एक जेष्ठ भ्राता  का २८ सितम्बर को देहावसान हुआ मेरी  बड़ी दीदी  यही रहती है उनके घर चले आये  तब आकाश में अधेरा अपना साम्राज्य कायम कर चूका था  और पूरा भारत दीप जला कर , विजली की लडिया लगा कर , पटाखों  से आतिश बाजी से आकाश जगमग होने लगा था, जैसे सभी अँधेरे को तोड़ कर प्रकाश का  साम्राज्य कायम कर रहे हों .
.बस यही था उनके लेख का  भी सारांश . सभी लोग मानो बुराईयाँ  छोड़ कर एक सुगम , सुंदर और प्रकाशित  मार्ग पर गमन करना चाहते हों . सभी बच्चे और बड़े प्रश्न्चित है . खुशिया  ही खुशिया चारो ओर दिखाए दे रही थी


अंत में आप सभी को दीपावली प्रकाश  पर्व की  शुभ कामनाएं .