वैज्ञानिक विकास की सघन छाया में पलता पोषता आधुनिक जीवन और जीवन की विचारधारा अतीव तीव्र है गति भी और सञ्चालन भी . इस खोजी युग में ना जाने कितने वैज्ञानिक जन्म ले रहे है प्रश्न का उत्तर कठिन है . ऐसे युग में वैज्ञानिक दृष्टिकोण से अवलोकन करने पर प्रतीत होता है कि प्रायः नीरस साहित्य का सृजन होगा . यही एक क्रम प्रारंभ हुआ था जब छायाबाद के उतरोत्तर कवि सभी प्रगतिवादी विचारधारा की कविताये व् अन्य साहित्य का सृजन करने लगे . स्वयं सुमित्रानंदन पन्त उत्तर काल में प्रगति वाद और मार्क्सवाद से अछूते नहीं रहे . अर्थात धीरे धीरे छायावाद का पराभव हो गया.
कविता ने नए रूप में जन्म लिया . छंद मुक्त हुई, बंधन मुक्त हुई . गद्यात्मक पद्य की रचना अपने यौवन पर इठलाने लगी . फली फूली और एक रसदार कविता का पराभव भी हुआ . तत्पश्चात गद्य युक्त, छंद मुक्त, बंधनमुक्त, कवियों और कविताओं की बाढ़ सी आने लगी. यही पता न लग सके की कौन किस पद का स्वामी है. लगभग अलंकारो की बलि चढ़ा ही दी गयी.
पुस्तके छपती रही, पत्र पत्रिकाए भी, साहित्य में भी निरंतरता बनी रही, परन्तु निरंतरता यदि भंग हुई तो मेरी स्वयं की . पढ़ने की रूचि, काम की बोझिल आद्रता, कार्य क्षेत्र का अरुचिकर परिवेश . सब कुछ से बाधित होता रहा . आर्थिकी भी एक कारण रहा . किन्तु यदा कदा समय मिलने पर कुछ संयोजन करते ही चले गए.
पिछले एक डेढ़ वर्ष से ही सीधी तरह से इन्टरनेट का उपयोग कर रहा हूँ इस उपयोग के माध्यम से ब्लॉग तक पंहुच बनायीं . यहाँ आकर अनेक विद्वानों की रचनाओं का रसास्वादन करने लगा . कल्पनातीत है कि जिन व्यवसायिक कार्य क्षेत्र को साहित्य के लिए मैं नीरस समझता रहा उसी क्षेत्र के लोग साहित्य सृजन में अनुपम योग दान कर रहे हैं. जैसे डॉक्टर , इंजिनियर वैज्ञानिक क्षेत्र से जुड़े व्यक्ति , ये सभी उच्च कोटि से , तल्लीन होकर अपने इन कार्य क्षेत्रों के बाहर साहित्य में, कवितायेँ , लेख (सामाजिक, राजीनीतिक , और अध्यात्मिक जैसे विषयों ) कहानियां आदि का निरंतर सृजन कर रहे हैं
कवियों की तो बाढ़ सी आयी हुई है, ब्लॉगजगत कवितामय हो गया है, और इन कविताओं में भी प्रेम गीत गए जा रहे है. अधिकांश कवि या कवियत्रियाँ पुरुष और नारी को ही माध्यम बनाकर, या मानवीयकरण कर छायावादी विचार धारा से ओतप्रोत हैं. कोई झील , कोई गुलाब और कोई नारी कि जुल्फों को ही माध्यम बना रहे है
कभी कुछ अधिकारिता के कारण पुरुष और नारी के विषय को संवेदन शील बना दिया जाता रहा परन्तु जब कविता उमड़ती है तो कलम ( कीबोर्ड ) पर आधिपत्य नहीं रह जाता और वह अनवरत अनायास ही प्रेम, प्यार , पारस्परिक संबंधों के विस्तार को कंठ मुक्त होकर सोछोवास लिखने लगती है छंद रहित, बंधन रहित, छायावादी कविताओं को, बिना ही अलंकारों के भी, तो भी अच्छी लगती है .
क्या हम पुनः छायावाद की ओर मुड रहे हैं या छायावाद वापस आ रहा है ?
कविता ने नए रूप में जन्म लिया . छंद मुक्त हुई, बंधन मुक्त हुई . गद्यात्मक पद्य की रचना अपने यौवन पर इठलाने लगी . फली फूली और एक रसदार कविता का पराभव भी हुआ . तत्पश्चात गद्य युक्त, छंद मुक्त, बंधनमुक्त, कवियों और कविताओं की बाढ़ सी आने लगी. यही पता न लग सके की कौन किस पद का स्वामी है. लगभग अलंकारो की बलि चढ़ा ही दी गयी.
पुस्तके छपती रही, पत्र पत्रिकाए भी, साहित्य में भी निरंतरता बनी रही, परन्तु निरंतरता यदि भंग हुई तो मेरी स्वयं की . पढ़ने की रूचि, काम की बोझिल आद्रता, कार्य क्षेत्र का अरुचिकर परिवेश . सब कुछ से बाधित होता रहा . आर्थिकी भी एक कारण रहा . किन्तु यदा कदा समय मिलने पर कुछ संयोजन करते ही चले गए.
पिछले एक डेढ़ वर्ष से ही सीधी तरह से इन्टरनेट का उपयोग कर रहा हूँ इस उपयोग के माध्यम से ब्लॉग तक पंहुच बनायीं . यहाँ आकर अनेक विद्वानों की रचनाओं का रसास्वादन करने लगा . कल्पनातीत है कि जिन व्यवसायिक कार्य क्षेत्र को साहित्य के लिए मैं नीरस समझता रहा उसी क्षेत्र के लोग साहित्य सृजन में अनुपम योग दान कर रहे हैं. जैसे डॉक्टर , इंजिनियर वैज्ञानिक क्षेत्र से जुड़े व्यक्ति , ये सभी उच्च कोटि से , तल्लीन होकर अपने इन कार्य क्षेत्रों के बाहर साहित्य में, कवितायेँ , लेख (सामाजिक, राजीनीतिक , और अध्यात्मिक जैसे विषयों ) कहानियां आदि का निरंतर सृजन कर रहे हैं
कवियों की तो बाढ़ सी आयी हुई है, ब्लॉगजगत कवितामय हो गया है, और इन कविताओं में भी प्रेम गीत गए जा रहे है. अधिकांश कवि या कवियत्रियाँ पुरुष और नारी को ही माध्यम बनाकर, या मानवीयकरण कर छायावादी विचार धारा से ओतप्रोत हैं. कोई झील , कोई गुलाब और कोई नारी कि जुल्फों को ही माध्यम बना रहे है
कभी कुछ अधिकारिता के कारण पुरुष और नारी के विषय को संवेदन शील बना दिया जाता रहा परन्तु जब कविता उमड़ती है तो कलम ( कीबोर्ड ) पर आधिपत्य नहीं रह जाता और वह अनवरत अनायास ही प्रेम, प्यार , पारस्परिक संबंधों के विस्तार को कंठ मुक्त होकर सोछोवास लिखने लगती है छंद रहित, बंधन रहित, छायावादी कविताओं को, बिना ही अलंकारों के भी, तो भी अच्छी लगती है .
क्या हम पुनः छायावाद की ओर मुड रहे हैं या छायावाद वापस आ रहा है ?