सोमवार, 1 अगस्त 2011

" माँ भैषी पाप शंकी"

प्रायः देखने में आता है कि जब आप किसी प्रिय कि प्रतीक्षा करते है तो जैसे जैसे समय बीतता चला  जाता है, उसी गति से आपका हृदय भी धडकने लगता है .  प्रिय व्यक्ति आपका चेहेता बेटा, बेटी हो सकती है, पति, या पत्नी, भाई या बहिन, अथवा प्रेमी और प्रेमिका, इनमे कोई भी हो सकता है. प्रतीक्षा रत व्यक्ति के चेहरे के हाव भाव प्रतिक्षण बदलते रहते हैं. समय बीतता चला जाता है और आप उद्वेलित होते रहते है. मेरे प्रिय अभी तक क्यों नहीं पहुंचा, अनेको कारणों की सूची मन में बनती रहती है कि फलां कारण से  प्रिय बिलम्बित हो सकता है, नहीं नहीं  ऐसा   नहीं हो सकता, पहुँचाने ही वाला/ वाली होगा/ होगी. कई आशंकायें  घर करने लगती हैं . 
      अनिष्ट की शंकाए बढ़ने लगती हैं. व्यग्रता  पराकाष्ठा  को पहुँच जाती है . रक्त चाप भी घटने बढ़ने लगता है. और यही क्रम तब तक जारी रहता है  जब तक आपका प्रिय व्यक्ति आप तक नहीं पहुँच जाता. और यदि प्रिय की उपस्थिति अपरिहार्य हो गयी तो सन्देश तक न जाने कितने ही अनिष्टकारी, अमंगलकारी बातों को मन में समां लेते  हैं. 
जब आप किसी भी व्यक्ति से  अत्यधिक भावनात्मक  लगाव रखते हों तो उससे प्रेम की भी गहराई भी उतनी ही अधिक हो जाती है. जैसे पिता अपनी बेटी से असीम प्यार करते है यदि बेटी प्रेम संबंधो को सफल बनाने  के लिए प्रेमी के संग भाग जाने में सफल हो जाती है, तो पिता की व्यग्रता और चिंता, प्रतीक्षा रत आंखे, कई अमंगल की आशंकाओ  से घिर जाते हैं. यही पर कभी कभी व्यक्ति अप्रिय समाचारों का सामना ठीक से न कर पाने के बाद, धैर्य के टूटने पर,  हिंसक और उन्मादी भी बन जाते हैं. उन्हें अपने प्रिय का दूर होना  बिलकुल भी अच्छा  नहीं लगता.
 तो तब प्रेमिका की क्या स्थिति होती होगी, जब प्रेमी किन्ही अपरिहार्य कारणों से प्रेमिका तक नहीं पहुँच पाता है. या मुड कर ही उस ओर न जाय तो  प्रेमिका बिना किसी सन्देश के भी किन किन आशंकाओं  को जन्म देती होगी. बड़ा दुष्कर कार्य लगता है. या कोई बीमार हो जाता है तो उसके ठीक होने तक का समय दिल को अधीर कर देता है.
 अभिज्ञान शाकुंतलम में इसी तरह का वर्णन महा कवि काली दास ने भी  शकुंतला के बारे में किया जब राजा दुष्यंत लौट कर नहीं आते. तब कालिदास को लिखना पड़ा था " माँ भैषी  पाप शंकी" . यानि युगों युगों से  ही प्रेम की दूरी पर सभी के  मस्तिष्क में अमंगल के ज्वार आते रहते हैं. . बचपन में जब हम स्कूल से, या कभी जंगल से  देर से घर पहुँचते थे  तो मेरी माँ सायंकालीन समय पर  घर के  आंगन में बैठ प्रतीक्षा रत रहती और बाद में बताती मेरे दिमाग  में न जाने कितनी गालिया निकल रही थी  यानि अमंगल ही अमंगल  की आशंका.

   आखिर हम आशंकित रहते हुए इतना  प्यार    क्यों करते हैं . मानव स्वभाव मानव के प्रति  संवेदन शील तो है ही किन्तु  वह तो अपने पालतू जीव जंतु  के प्रति भी उतना ही संवेदन शील होता है.  और इसी संवेदन शीलता के कारण  मनुष्य प्रेम की पींगे बढाता है.      अपनी व्यग्रता को , अपने रक्त चाप को बढाता चला जाता है.  और अधिक संभव है कि यही  एक कारण हो मनुष्य के विश्व बधुत्व कि ओर बढ़ना.