गुरुवार, 19 मई 2011

पुस्तक पढने का उद्देश्य

जब आप कोई पुस्तक  पढ़ते है  तो पुस्तक का मुख पृष्ठ  अपनी आत्म कथा वर्णित करने का प्रयास करता है. तब कोई व्यक्ति आपको पढ़ते हुए देखता है  या किताब के पन्नो पर ताक झांक कर  पढने की कोशिश करता है, तो वह सहज ही इस  बात का निर्णय ले लेता है कि आप क्या  और क्यों पढ़ रहे हो . विशेष  कर जब आप धार्मिक आवरण की तथा संस्कृत की पुस्तक पढ़ रहे हों .  जैसे श्रीमद भगवत  गीता,  हनुमान चालीसा, उपनिषद, या कोई सहस्रनाम स्तोत्र . देखने वाले आपकी भक्ति और आस्था   पर नत मस्तक हो, पढने के प्रयोग  भी बताने लग जायेंगे, पुस्तक कब और कैसे , किस मुद्रा में, तथा किस ध्वनि में  पढनी चाहिए .

मैंने  कुछ दिन पूर्व गीता प्रेस की गाड़ी से गोपाल सहस्रनाम स्तोत्रंम  की पुस्तक खरीदी किन्तु पढने का कोई निश्चित  समय नहीं  है इसलिए घर से कार्यालय आते हुए एक घंटा मेट्रो ट्रेन में बिताना  पढता  है  अतः इस समय में आधे घंटे का समय पढने के लिए नियत किया , बाकि का समय दो अन्य ट्रेने बदलने में बाधित होता रहता है इसलिए प्रथम चरण के आधा घंटा का समय उपयुक्त  लगा . इस समय या तो अख़बार पढता हूँ या फिर यह पुस्तक . पुस्तक में  कुल मिलाकर२१४ श्लोक  हैं  एक आवृति पूरी कर चुका हूँ  किन्तु पल्ले कुछ नहीं पड़ा . न तो भाषाई और न ही अध्यात्मिक ज्ञानार्जन हो सका . परन्तु पढ़ते समय एक महाशय से परिचय यों हुआ  " रोज़ भगवन जी दर्शन  हो जाते है  कल भी हुए थे  प्रभु ही सबके तारण हार हैं....... आदि "  मैंने भी उनके सुर में सुर मिलाया . किन्तु  मेरी तो नहीं,  उनकी इश्वर के प्रति सदाशयता का परिचय अवश्य मिला .  


मेरा  उद्देश्य तो मात्र अभी ज्ञानार्जन था, आस्था  से जुड़ा तो बिलकुल  नहीं था . परिणाम शून्य था .  और पुनः पुनरावृति प्रारंभ कर दी . और आज भी एक अन्य महाशय से परिचय हुआ.  मुझे पढ़ते हुए देख कर बगल से  स्वयम पढने की कोशिश करने लगे .  कुछ समय बाद वे मुझे सलाह देना नहीं भूले .  कहते है  स्तोत्र का पाठ वाचिक करना चाहिए,   मानसिक करने कोई लाभ नहीं  मिलता .  मैंने साधारणतया टालने की कोशिश की .किन्तु उन्होंने अपना परिचय कर्मकांडी ब्रह्मण तथा ऋषिकेश उत्तराखंड का बताया .  तत्पश्चात मैंने भी अपना परिचय उन्ही के अंदाज में कर्मकांडी ब्रह्मण पौड़ी  गढ़वाल  उत्तराखंड का बताया . तत्काल वे पिछले कोच की तरफ उन्मुख हुए  और शायद उनका स्टेशन आ गया हो और उत्तर गए हों .

किन्तु मेरे लिए कुछ प्रश्न विश्लेषण के लिए छोड़ गए . क्या धार्मिक पुस्तक का  पाठ वाचिक होना चाहिए, या मानसिक अथवा हार्दिक ?  मुझे  तो  सभी प्रश्नों के उत्तर पुस्तक पढने के उद्देश्य में  निहित  लगते हैं . आप पुस्तक किस उद्देश्य  से पढ़ रहे हैं , क्या आप नियमित पूजा स्थान पर बैठ कर पाठ कर रहे है  या कही अन्यत्र मात्र अध्यन  रत है. इन उदेश्यों  और प्रश्नों के उत्तर के अनुकूल पढने की विधि निर्धारित हो सकती है .  एवं मानसिक वाचिक और हार्दिक तीनो यंत्रो का प्रयोग  समुचित रूप से हो सकेगा .

पुस्तक को पढ़ते हुए  किसी भी यंत्र का प्रयोग हो उसका उद्देश्य पुस्तक के सभी उपाख्यानो का सांगो पांग ज्ञानार्जन   और  अन्तः करण  से जुड़ कर आस्था के रूप में परिणिति हो  तभी अध्यन सफल हो सकेगा , मै स्वयं ऐसा कर पाउँगा या नहीं  भविष्य ही बताएगा . फ़िलहाल अध्यन जारी है.