बुधवार, 15 जून 2011

एक और घर पर ताला लगा ही दिया है!

  "अस्त्युत्तरस्याम दिशी देवतात्मा .हिमालयो नाम नगाधिराज :,
   पूर्वापरो तोयनिधि वगाह्या ,स्थित :पृथिव्याम एव मानदंड : ||  "
कुमारसंभव का प्रारंभ  करते हुए महा कवि कालिदास ने जिस हिमालय पर्वत को नगाधिराज की उपाधि प्रदान की उस नगाधि राज की प्राकृतिक सम्पदा, सुन्दरता  और वैभव  की असीम  ख्याति पूरे विश्व में फैली हुई है . यह  कालिदास की मात्र कल्पना नहीं थी बल्कि सजीव  और वास्तविक जीवन को धारण करने वाले पर्वत की स्तुति थी. जिस तरह पूरा विश्व आज इस नगपति के जीवन से कुछ न कुछ प्राप्त कर लेना चाहता है अपनी पताकाओं से हर व्यक्ति अपने को इस ऊँचे हिमालय की तरह ऊँचा प्रदर्शित करने की होड़ में लगा हुआ है  तो निसंदेह यह नगपति वैभवशाली  ही है .

पर्यटकों को  आकर्षित करने वाला हिमालय और हिमालयी क्षेत्र  तो पर्यटन  और घुमक्कड़ी के लिए स्वर्ग  है .
अभी जहाँ फरवरी  और मार्च में उत्तराखंड के जंगल  बुरांस के लाल फूलों की  रक्ताभ चादर सी ओढ़े हुआ था  वही आजकल ( मई और जून) में काफल , हिसोरा  और किन्गोड़े  से  लद पद है .  जंगलों में घुमक्कड़ी  करने और इन फलों को पेड़ो से तोड़ कर खाने का  आनंद ही स्वर्गिक  है.  
 हिमालयी क्षेत्र  उत्तराखंड  देव भूमि कहलाता है  यहाँ देवताओं के निवास के लिए  तो सभी सुख उपलब्ध  है . किन्तु मानवीय जीवन  अत्यंत  विकट है .  इस क्षेत्र की बड़ी विडम्बनाएं  है . यहाँ से निकलती हुई गंगा यमुना  पूरे देश को सींचती हुई, प्यास को तृप्त करती हुई, अरब सागर में जा मिलती है शेष जल के निष्पादन  के लिए . यह क्षेत्र इन इठलाती नदियों  पर गर्व भी महसूस  करता है  मैती  होने का. परन्तु पानी तलहटी से बहता चला जाता है  और खेत इन  गाँव के सूखे के सूखे .  वनस्पतीय, एवं औषधीय  सम्पदा का दोहन  का लाभ भी इस क्षेत्र  को  नहीं मिल पाता है. क्योंकि इन पर सरकारी नियंत्रण है .

  जब तक शिक्षा का प्रसार  नहीं था तब से ही क्षेत्र के लोग आजीविका  के लिए मैदानी  शहरो की ओर जाते रहे . यद्यपि खेती से होने वाले उत्पादन से साल भर का अनाज तो उपलब्ध होता था दूध , घी, शहद  की भी प्रचुरता  रही  है   जनसँख्या कम  थी . अब परिस्थितियां बदली हुई है शिक्षा में तो उत्तराखंड देश के सबसे अधिक शिक्षित राज्यों में से एक है किन्तु  बढती जनसँख्या के हिसाब से खेती का उत्पादन,  जो आसमानी बरसात पर निर्भर रहती है,   कम होता चला गया  और शिक्षा के कारण पारंपरिक खेती से युवाओं  की   रूचि और ध्यान हटता चला गया .  और वे रोजगार की खोज में पलायन करते चले गए और शहरों की  अंधी गलियों में गुमनाम  होते चले गए

पलायन से  कई लोग तो इन शहरों में पूर्णतया रच बस गए और कुछ दो नावो में पैर रख कर अपने को संभाले हुए हैं . उतराखंड को राज्य बने हुए लगभग दस वर्ष पूरे हो चुके है कितु  पलायन  को अभी भी रोका न जा सका. समस्या इतनी गंभीर है की गाँव के आस पास  सरकारी नौकरी करने वाले लोग भी गाँव छोड़ कर राज्य की राजधानी  देहरादून में जाकर बस जाना चाहते हैं . गाँव के गाँव खाली होते चले जा रहे हैं.  कई गाँव तो ऐसे मिलेगे जहाँ पुरुष  नाम की  चीज नहीं  है  शव दाह तक का कार्य महिलाओं को करना पड़ता है .  जब कोई व्यक्ति शहर में नौकरी  करता है तो उसका वहां पर मकान खरीदना, बच्चों की परवरिश हेतु धीरे धीरे बस जाना  तो कुछ समझ आता है किन्तु जो लोग गाँव से जायदाद बेच कर, पास के स्कूल में नौकरी करते हुए शहर में बसने की चाहत लिए हुए हैं या बस गए है मेरी समझ से परे है . यद्यपि जीवन वहां पर अति विकट है परन्तु ये कैसी समझदारी ?
अब कुछ इसी तरह के शिकार मेरे परिवार  के लोग भी होते जा रहे है  पांच चाचा ताउओं के हम पंद्रह भाई है  दो तीन को छोड़ कर  सभी नौकरी  पेशा है  कुछ उत्तराखंड से बाहर है तो कुछ घरेलु जनपद में ही . सभी में पूज्य बड़े भाई  सभी पारिवारिक कार्यों  जैसे विवाह समारोहों, पूजा  आदि सभी  में अग्रणी रहा करते हैं सभी उन्हें समादर  भी करते है. उन्होंने पूरा जीवन डाक विभाग में  E D A कर्मचारी की तरह  वही के लिए समर्पित कर दिया  पढ़े लिखे थे  उस समय पर विभागीय परीक्षाओं के द्वारा वे भी बाहर जा सकते थे किन्तु    नहीं  गए  . उनके दो पुत्र है बड़े वाले गाँव में ही आजीविका  का जुगाड़ करता है किन्तु  छोटा मुंबई में रहता है . बड़े बेटे  से सम्बन्ध भी थोडा ढीले  हैं भाभी जी का भी देहांत हो गया है . अब  वे छोटे बेटे के बच्चों की देखभाल में व्यस्त थे  किन्तु उसने भी अपनी समस्याओं  के मद्देनजर बच्चों  को मुंबई ले जाने की ठान ली.  अब समस्या  थी बड़े भाई साहब की खान पान की  व्यवस्था   का, तो वे साथ  में जाने को तैयार हुए चाहे वेमन  से ही .
इस बात की मुझे पहले खबर मिली  किन्तु एकाएक विश्वास सा नहीं हुआ  किन्तु अभी दो दिन पूर्व देहरादून में  जाकर पाता चला की वे सचमुच  चले  गए है  भाई  साहब की उम्र  लगभग ७६ वर्ष की होगी  अर्थात अब वे हर पारिवारिक  कार्य से भी वंचित रह जायेंगे  एक तो वृद्ध  शरीर और दूसरा आर्थिक  पहलु . दोनों ही भारी पड़ेगें.
 और आखिर कर इस विभीषिका ने एक और घर पर ताला लगा ही  दिया है.  हम लोग भी न जाने कब मिल पाएंगे  यह पता नहीं है .  

गुरुवार, 19 मई 2011

पुस्तक पढने का उद्देश्य

जब आप कोई पुस्तक  पढ़ते है  तो पुस्तक का मुख पृष्ठ  अपनी आत्म कथा वर्णित करने का प्रयास करता है. तब कोई व्यक्ति आपको पढ़ते हुए देखता है  या किताब के पन्नो पर ताक झांक कर  पढने की कोशिश करता है, तो वह सहज ही इस  बात का निर्णय ले लेता है कि आप क्या  और क्यों पढ़ रहे हो . विशेष  कर जब आप धार्मिक आवरण की तथा संस्कृत की पुस्तक पढ़ रहे हों .  जैसे श्रीमद भगवत  गीता,  हनुमान चालीसा, उपनिषद, या कोई सहस्रनाम स्तोत्र . देखने वाले आपकी भक्ति और आस्था   पर नत मस्तक हो, पढने के प्रयोग  भी बताने लग जायेंगे, पुस्तक कब और कैसे , किस मुद्रा में, तथा किस ध्वनि में  पढनी चाहिए .

मैंने  कुछ दिन पूर्व गीता प्रेस की गाड़ी से गोपाल सहस्रनाम स्तोत्रंम  की पुस्तक खरीदी किन्तु पढने का कोई निश्चित  समय नहीं  है इसलिए घर से कार्यालय आते हुए एक घंटा मेट्रो ट्रेन में बिताना  पढता  है  अतः इस समय में आधे घंटे का समय पढने के लिए नियत किया , बाकि का समय दो अन्य ट्रेने बदलने में बाधित होता रहता है इसलिए प्रथम चरण के आधा घंटा का समय उपयुक्त  लगा . इस समय या तो अख़बार पढता हूँ या फिर यह पुस्तक . पुस्तक में  कुल मिलाकर२१४ श्लोक  हैं  एक आवृति पूरी कर चुका हूँ  किन्तु पल्ले कुछ नहीं पड़ा . न तो भाषाई और न ही अध्यात्मिक ज्ञानार्जन हो सका . परन्तु पढ़ते समय एक महाशय से परिचय यों हुआ  " रोज़ भगवन जी दर्शन  हो जाते है  कल भी हुए थे  प्रभु ही सबके तारण हार हैं....... आदि "  मैंने भी उनके सुर में सुर मिलाया . किन्तु  मेरी तो नहीं,  उनकी इश्वर के प्रति सदाशयता का परिचय अवश्य मिला .  


मेरा  उद्देश्य तो मात्र अभी ज्ञानार्जन था, आस्था  से जुड़ा तो बिलकुल  नहीं था . परिणाम शून्य था .  और पुनः पुनरावृति प्रारंभ कर दी . और आज भी एक अन्य महाशय से परिचय हुआ.  मुझे पढ़ते हुए देख कर बगल से  स्वयम पढने की कोशिश करने लगे .  कुछ समय बाद वे मुझे सलाह देना नहीं भूले .  कहते है  स्तोत्र का पाठ वाचिक करना चाहिए,   मानसिक करने कोई लाभ नहीं  मिलता .  मैंने साधारणतया टालने की कोशिश की .किन्तु उन्होंने अपना परिचय कर्मकांडी ब्रह्मण तथा ऋषिकेश उत्तराखंड का बताया .  तत्पश्चात मैंने भी अपना परिचय उन्ही के अंदाज में कर्मकांडी ब्रह्मण पौड़ी  गढ़वाल  उत्तराखंड का बताया . तत्काल वे पिछले कोच की तरफ उन्मुख हुए  और शायद उनका स्टेशन आ गया हो और उत्तर गए हों .

किन्तु मेरे लिए कुछ प्रश्न विश्लेषण के लिए छोड़ गए . क्या धार्मिक पुस्तक का  पाठ वाचिक होना चाहिए, या मानसिक अथवा हार्दिक ?  मुझे  तो  सभी प्रश्नों के उत्तर पुस्तक पढने के उद्देश्य में  निहित  लगते हैं . आप पुस्तक किस उद्देश्य  से पढ़ रहे हैं , क्या आप नियमित पूजा स्थान पर बैठ कर पाठ कर रहे है  या कही अन्यत्र मात्र अध्यन  रत है. इन उदेश्यों  और प्रश्नों के उत्तर के अनुकूल पढने की विधि निर्धारित हो सकती है .  एवं मानसिक वाचिक और हार्दिक तीनो यंत्रो का प्रयोग  समुचित रूप से हो सकेगा .

पुस्तक को पढ़ते हुए  किसी भी यंत्र का प्रयोग हो उसका उद्देश्य पुस्तक के सभी उपाख्यानो का सांगो पांग ज्ञानार्जन   और  अन्तः करण  से जुड़ कर आस्था के रूप में परिणिति हो  तभी अध्यन सफल हो सकेगा , मै स्वयं ऐसा कर पाउँगा या नहीं  भविष्य ही बताएगा . फ़िलहाल अध्यन जारी है.


मंगलवार, 10 मई 2011

आओ लौट चले प्रकृति की ओर !

 आओ लौट  चले प्रकृति  की ओर!
कहाँ हिमखंडों का ढेला,
कहाँ नदियों का जल प्रवाह,
हो रहे वन भी कंगाल 
देखो ! कहाँ खिचीं जा रही जीवन की डोर,
आओ  लौट चले प्रकृति की ओर !
नष्ट हुए खेत खलिहान ,
नग्न हुई पर्वत श्रृंखलाएं,
तोड़ इन्हें, सड़क हुयी परवान,
सूखे जल स्रोत, 
और जल दायिनी  गंगा यमुना भी रुग्ण है 
 आए हम छोड़ इन्हें, चल पड़े न जाने किस ओर !
आओ लौट चले प्रकृति की ओर !
 जब हिम था, वर्षा थी, तो था अन्न- धन,  
अब सूख गए वृक्ष वनों के, आकुल हुआ मन,
सूखे जल स्रोत, देते हैं पीड़ा मन को प्रति पल,
कहाँ कलनिनाद है जल प्रपातों का, प्राणी है विकल !.


लुप्त प्रायः  है स्निग्ध जीवन धारा,
टूट गया है प्रकृति का मनोरम,
वायु शीतल नहीं, बढ़ रहा है पारा,
न जाने कौन खीच रहा  है,
अविरल विनाश की डोर ! 
आओ लौट चलें प्रकृति की ओर!


शुक्रवार, 22 अप्रैल 2011

रुग्ण होती कविता !

मस्तिष्क  और ह्रदय  से संयोजित होते हुए विचार प्रकट होते है . इस तरह जब विचार मन में उदेव्लित हो रहे हो बाढ़  की तरह,  तब उन्हें सकलित करने की आवश्यकता जान पड़ती है, इसीलिए संभतः  लेखन का कार्य भी प्रारंभ हुआ . इस उद्वेलन को सँभालने के लिए उसी क्षण लेखन सामग्री की भी आवश्यकता होती  है  यदि कुछ विलम्ब हुआ तो  तारतम्य बिगड़ जाता है .  
जब व्यक्ति लेखन प्रारंभ  करता है तो गद्य या पद्य की  भाषा में से किसी एक का चुनाव करता है . जिसमे वह सहज होता है वही से धारा प्रस्फुटित होने लगती है . गद्य को तो कवियों की निष्कर्ष की वाणी कहा गया है , गद्य को समझना भी कुछ आसान  सा लगता है  कितु पद्य में कभी कभी शाब्दिक क्लिष्टता के  कारण भाव अभिव्यंजना  को स्पष्ट कर पाना कठिन  सा लगता है  यो तो पद्य में गेयात्मकता, स्वर बद्धता, चपलता, और सौम्य सा निखरता है और पढने  में सुगम हो जाता है  किन्तु पाठक को भाव स्पष्ट करने में  कठिनाई भी होती है. लिखते समय तो संभवत कविगण अपने भाव में बह कर  निरंतर लिखते चले जाते है  और यह भी ख्याल नहीं रह जाता है  कि शब्दों का चयन किस प्रकार से किया जाय.और कभी - कभी   उत्कृष्टता का भी विचार पीछे छूट जाता  है .

विशेष कर ब्लॉग जगत में मैंने कई कवि एवं कवियत्रियो  को  पढ़ा , कुछ लोग तो वास्तव में  साहित्यिक  दृष्टी से रचना कर रहे है  परन्तु  कई ब्लोगों में विचरण करने पर मात्र समय  को धकेलने वाला काम हो रहा है . इतना ही नहीं खड़ी बोली का भी सम्यक प्रयोग नहीं हो पा रहा है . अनेको कविताये उर्दू मय हो चुकी है. लेश मात्र भी उनमे कविता के गुण नहीं देखने  को मिलते है . गद्य कविता का जन्म भी हुआ  परन्तु उत्कृष्ट था कितु आज तो ब्लॉग  में कहानी कविता दृष्टि गोचर होती है   बाजारी एवं चलताऊ  शब्दों का अत्यधिक प्रयोग कविताओं  में हो रहा है . साहित्य  भी चलताऊ सा  लगने लगा . और कविता रुग्णित .
इससे यह प्रतीत होता है कि ब्लॉग पर लिखना  मात्र  टाइम पास  है उसका साहित्य से कुछ लेना देना नहीं . रहस्य वाद और छायावाद के बाद   प्रगति वाद का जन्म हुआ  और इस युग की देंन  रही छंद मुक्त  कविता  अर्थात गद्य कविता . इसीका परिणाम है अनेको अनेक  कवि गणों का जन्म . 
अभी कुछ दिन से प्रतुल वशिष्ठ  जी ने साहित्यिक दृष्टिकोण  से एक सार्थक  प्रयास   प्रारंभ किया है  जिसमे छंद शास्त्र की वे शिक्षा अपने ब्लॉग के माध्यम से  दे रहे है. जो अनुकरणीय है . मेरा अभिप्राय यह बिलकुल नहीं  की आप छंद युक्त कविताये ही लिखिए  मैं  स्वयम भी ऐसा नहीं कर पाता हूँ. कितु इतना अवश्य होना चाहिए कि विषय  के अनुसार   शब्द चयन , भाषा की सटीकता  हो एवं  पुनरावृति दोषों से तो कम से कम   दूर रहे .  कविता का अर्थ यह भी नहीं है कि कठिन एवं संस्कृत निष्ठ  शब्दों का प्रयोग किया जाय किन्तु  सरल, और हिंदी के शब्द तो कम से कम अवश्य हों . दूसरी भाषा के शब्द का प्रयोग तो तभी हो जब आप के पास  कोई विकल्प न बचा हो  या उस शब्द की सार्थकता से  कविता की गति  और भी सरल व समोहन  करती हो . 

संभवतः कई विचारक मेरी  बात से सहमत न हों  कितुं लेखकीय धर्मं के अनुकूल जो दृष्टिगत होता  रहा मात्र उसे चिन्हित करने का प्रयास कर  रहा  हूँ.   अन्यथा  कविता का हाल ठीक उसी तरह हो जायेगा जिस तरह  W H O की रिपोर्ट में एंटी बायो टिक  दवाए  बेमौत मर रही  रही  है  कारण डाक्टरों द्वारा अत्यधिक  और अनावश्यक प्रयोग .

शुक्रवार, 25 मार्च 2011

एक थी गौरा देवी !

गौरा देवी

नेतृत्व क्षमता  और विवेक शील बुद्धिमता सिर्फ शिक्षित लोगों  में ही नहीं 
पनपती  है, यह तो ह्रदय से अनुकंपित, स्नेह, और लगाव तथा मस्तिष्क की वैचारिक चपल  अनुगूँज  से प्रस्फुटित होती है, व्यक्ति की वैचारिक क्षमता, कार्यशीलता और अनुभूति की गति  पर सदा निर्भर  करता है, जितनी अधिक कार्यशीलता होती है उतनी अधिक वैचारिक  क्षमता और अनुभूति की व्यग्रता  बढती चली जाती है. यही कार्यशीलता उसे कार्य की दक्षता  से नेतृत्व की ओर अग्रसर करती है.  इसी का परिणाम क्रांति में स्पंदित हो उठता है.  प्रायः क्रांतियाँ शांति और उपकारी दृष्टिकोणों से ही कार्यशील होती है.  तब इस कार्य का नेतृत्व कौन  कर रहा है इसके निर्धारण  का कोई मानदंड शिक्षा में  ही निहित नहीं होता है,  बल्कि अनपढ़ और अशिक्षित  व्यक्ति भी इतना संवेदन शील होता है किउनकी अभिव्यंजना पर पूरी सफल  क्रांति आ जाती है.

इसी तरह कि अभिब्यंजना से अनुकंपित, और अभिभूत थी शैल पुत्री गौरादेवी . पूर्णतया अशिक्षित, व् अनपढ़ एक निर्धन एवं हिमालयी जनजातीय परिवार  में,  चमोली जिले कि नीती घाटी के लातागाँव में १९२५ जन्म हुआ था इस हिम पुत्री का.  गौरा के जीवन की गाथा भी बड़ी संघर्ष पूर्ण है .१२ वर्ष की आयु में विवाह, १९ वर्ष में एक पुत्र को जन्म देकर मातृत्व कि सुखानुभूति के बाद, २२ वर्ष की ही आयु में पति का आकस्मिक स्वर्गवास .विधवा का जीवन यों तो आज भी विकटहै किन्तु  ५० के दशक में स्थिति कितनी भयावह रही होगी कल्पनातीत है,  और तब सयम, और विवेक के साथ जीवटता से जीना आसान काम नहीं . अपने अटल विश्वास, और संघर्ष शील रहकर  कभी हार नहीं मानी इस वीरांगना नें, जिसने देश नहीं पूरे विश्व में  एक पर्यावरण कि क्रांति ला दी .                                                                                                                              
चिपको के दृश्य
  ७० के दशक में सरकार नें जंगलों से वनों के कटान की भारी योजना बनायीं इस तरह से सरकार व्यापारिक  लाभ  कमाना चाहती थी. तब श्री चंडी प्रसाद भट ने १९६४ में दशोली ग्राम स्वराज्य  संस्था की स्थापना की . तत्पश्चात मार्च १९७३ में सरकार नेचमोली जिले के  मंडल फाटा के जंगलों में कटान का  आदेश दिया, मार्च से ही ठेकेदार जंगलों में डेरा डालने लगे. तब २४ अप्रैल १९७३ को दशोली  ग्राम स्वराज्य  के कार्य कर्ताओं के साथ ग्राम वासियों ने भारी विरोध किया था जंगलों  के कटान  का. तब श्री चंडी प्रसाद  के नेतृत्व में लोगो ने पेड़ो से चिपक जंगलों को बचाया यही से जन्म हुआ था चिपको आन्दोलन का. सरकार ने अपने आदेश जन विरोध के कारण वापस ले लिए.

पुनः जनवरी १९७४ में सरकार ने चमोली जिले के नीती घाटी के जंगलों  में कटान  की योजना बनायीं  और तब मंडल फाटा की मुहिम पैन्खाडा  ब्लाक के नीती घाटी के रैणी गाँव के जंगलों  में फ़ैल गयी.   यहाँ  इसकी  सूत्रधार थी गौर देवी. २६  मार्च १९७४ को जंगलों में कटान का कार्य शरू होना था. गांववासियों  को पता चलने पर उन्होंने भारी विरोध दर्ज किया. ठेकेदारों ने विरोध में कार्य स्थगित कर रात में कटान की योजना बनायीं. किन्तु   शाम को गावं की एक लड़की  को इसकी भनक लग गयी. और तब उसने यह  सूचना गौरादेवी को दी. गौरा देवी  रैणी गावं की महिला समिति की अध्यक्षा भी थी. इस समय गावं में पुरुष वर्ग भी मौजूद न था

गौरा ने गाँव की महिलाओं को  एकत्रित कर जंगल  की ओर कूच किया. और पेड़ों को आलिंगन बध कर एक चेतावनी दे डाली ठेकेदारों को . कुल्हाड़ी पहले हम पर चलेगी फिर इन पेड़ों पर.  अपने आंचल की छाया से इन वृक्षों  को बचाया आततायियों के चंगुल से  और पूरी रात निर्भय और बेखोफ होकर जग्वाली की अपने शिशुवत पेड़ों की.  यही से आन्दोलन की भूमिका तेज हो गयी और आग की तरह पूरे उत्तराखंड  में फ़ैल गयी  .



तब इसी चिपको आन्दोलन को पुनः दिशा दी श्री चंडी प्रसाद भट्ट ने .तदुपरांत भट्ट जी को श्री सुंदर लाल बहुगुणा का  सानिध्य प्राप्त हुआ और इन दोनों के नेतृत्व में  चिपको आन्दोलन सिर्फ उत्तराखंड तक ही नहीं सीमित रहा   बल्कि पूरे विश्व पटल पर  पर्यावरण को नयी दिशा मिली . यदि गौरा देवी अपनी जीवटता और अदम्य सहस का परिचय  न देती तो शायद आज ग्लोवल वार्मिंग की स्थिति और भी भयावह होती. उत्तराखंड में  औषधीय गुणों की वनस्पतिया आज देखने को भी न मिलती.  इसी के प्रतिफल में इन दोनों नेताओं को मैग्सेसे  पुरुष्कार से भी सम्मानित किया गया .  

जब रैणी के जंगलों में तहकीकात के लिए तहसीलदार एवं अन्य वन कर्मी गए तो उन लोगों ने गाँव वासियों का समर्थन  करते हुए  ठेकेदार के आदमियों को बंदी बनाना चाहा तो  गौरा देवी ने  कहा था "  साहब इन लोगों का कोई कसूर नहीं ये तो सिर्फ आदेश का पालन कर रहे है  इन्हें छोड़ दो "    आप कल्पना कीजिये की क्षमा दान की भी कितनी उच्च अवस्था थी इस महिला की. वृक्षों को तो बचाया ही किन्तु अपराध करने वालों को क्षमादान दिया. साक्षात् हिम पुत्री गौरी  थी.
चिपको आन्दोलन को २६ मार्च २०११ को पूरे ३७  वर्ष हो जायेंगे  मुझे याद नहीं आता कि कभी   इस आन्दोलन  का भी वार्षिक  दिवस मनाया जाता हो या फिर  कभी किसी ने चिपको कि जननी गौरा को याद किया हो ! इस महान वीरांगना को शत शत नमन ! 
  चिपको के उद्घोष सूत्र थे :-        
          क्या है जंगल के उपकार, मिटटी पानी और वयार,
         मिटटी पानी और वयार, जिन्दा रहने के आधार .                                                  


शुक्रवार, 11 मार्च 2011

दम तोड़ रही है !



यमुना !
वृद्धाकार !
तटबंधों पर रेत के टीले !
और उन पर उगते
सफ़ेद कांस केश !
रुग्णित, विक्लांत !
                                   दिल्ली में,
जीवनदान या इच्छा मृत्यु की
भीख मांगती !
चौमासा में
यौवन, इठलाती बलखाती
और आवेशित रोष  भी दिखाती !
परन्तु
पतझड़ तक न जाने
क्यों बुढ़ापा घेर लेता
जल, जल नहीं, विषज़ हो जाता  है
दिल्ली के परनालो से भी
होता विष  अवसिंचन !
तब यह अचेत, अति रुग्ण,
बड़े अस्पतालों के अस्तित्व पर
प्रश्न चिन्ह छोडती
क्योंकि यह तो
बिना औषधि
दम तोड़ रही है !


















मंगलवार, 8 मार्च 2011

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस

        
            सभी  महिला ब्लोगरों को 

                     अंतर्राष्ट्रीय

                महिला दिवस  की               

                       हार्दिक 

                   शुभकामनाएं 

 

शुक्रवार, 4 मार्च 2011

असमय मृत्यु का प्रति फल - पुनर्जन्म या पुनर्जीवित होना

संसार परिवर्तन शील है यह एक ब्रह्म सत्य है जन्म मृत्यु के चक्र में प्राणी घूमता रहता  है . तरह तरह की व्याख्याएं  परिभाषित है, प्राणी जीवन के वृत्त चित्र की .धर्म भी अलग अलग मान्यताएं प्रदान करते हैं . उस एकाकार  नियंता की निर्माण कार्यदायिनी में  निर्माण, उत्पादन, विपणन और निष्पादन  सभी कुछ  अबाध गति से चलता रहता है बिना कुछ समय बिताये   और बाधित हुए .  धर्म ग्रंथो  की गणना, परिकल्पना  को मैं नकार तो नहीं सकता, क्योंकि उनकी भी कुछ अपनी सार्वभौमिकता तो अवश्य होगी . उसकी इस निर्माण कार्यदायिनी में जन्म पूर्व ही मृत्यु का दिनांक  भी अंकित हो जाता है .
असमय मृत्यु वाले प्राणी को तो यमराज के कार्यालय  में प्रवेश भी वर्जित होता है . उसके असमय आने का कारण तथा उसके जीवन की पूरी पड़ताल कर दी जाती है  और तुरंत ही उसे वापस भेज दिया जाता है , किन्तु इन सब बातों से बेखबर हम लोग मृतक शरीर को, अपनी मान्यताओं के अनकूल,   अधिक देर  न रख कर, दाह संस्कार कर देते हैं , लौटते  हुए क्षणिक विलम्ब  या हमारी अति  शीघ्रता उस आत्मा को संवाहक विहीन कर देती है , और उसे अधोगति प्राप्त होती है .
कई बार मृत्यु  को प्राप्त  व्यक्ति को पुनः जीवित होते हुए भी सुना गया  ऐसा  तभी हो पाता है जब असमय मृत्यु आत्मा के लौटने तक संवाहक शरीर का दाह संस्कार नहीं हुआ होता है  और आत्मा पुनः उसी शरीर में संचारित हो जाती है . अभी कुछ दिन पूर्व ब्लॉग में  आत्मा और पुनर्जन्म के बारे में बहस हो रही थी  संयोगवश आज मुझे अपने एक सहयोगी से ऐसी ही जानकारी प्राप्त हुई . जिसमे आत्मा का पुनः संचार  भी हुआ, और पुर्जन्म भी . सत्यता तो प्रभु ही जाने . 
किसी सन्दर्भ में वे बताने लगे मेरी दादी  को, जब उनके पिताजी, हाथो में मालिश कर रहे थे तो दादी की मृत्यु हो गयी बात सायंकालीन थी , इसलिए दाह संस्कार  प्रातः ही संभव था, दादी की आयु  १०५  वर्ष थी, किन्तु कुछ समय बाद उनमें पुनः जीवन का संचार हो गया. होश में आने पर दादी ने जो अनुभव सुनाया  और उसका प्रतिफल प्रत्यक्ष दर्शनीय था वे बताती है कि उन्हें असमय आने पर गर्म चिमटों से मारा गया और तत्पश्चात देखने पर उनके शरीर में घाव स्पष्ट नजर आने लगे, किन्तु तीन दिन बाद उनकी पुनः मृत्यु हो गयी .
इसी तरह वे एक किस्सा और सुनाते है कि उन्ही की रिश्तेदारी में एक व्यक्ति की खेत जोतते समय दुर्घटना वश अकारण  असमय  मृत्यु हो गयी. दिन का वक्त था तो दाह संस्कार समय पर कर दिया गया. परन्तु इन्हें लौटा दिया गया था यमराज के दरबार से . इन्ही दिनों पास के ही गाँव में एक बालक का जन्म हुआ  जब यह बालक चार वर्ष का था तो उसने सारा वृतांत सुनाया और अपने मूल गाँव आया . वहां  पर उसने उसी तरह बात की जैसे पहले से करता था. मेंरा  सस्कार करने में आप लोगों ने जल्दी क्यों की ? ऐसे ही कई लोगों से उन्हें रूपये वापस  लेने थे  तो उस बालक के  बताने पर सभी रुपयों की वसूली हो सकी.  इस प्रकार कई सारी प्रमाणिकता देते हुए व अब वहीँ  पर अपने पूर्व लोगो के साथ ही रह रहा है .
 उसे जब यमराज के पास ले जाया गया  तो बताता है कि उन्होंने असमय आने  के कारण वापस भेज दिया था किन्तु दाह संस्कार हो जाने के कारण संवाहक न मिल पाने के कारण उसे वापस लेकर गए , यमराज ने उसे दूत के साथ विष्णु के पास भेजा परन्तु विष्णु ने निदान के लिए पुनः  ब्रह्मा जी  के पास भेजा. चूँकि उसकी आयु लगभग १५ वर्ष शेष थी इसलिए नए संवाहक को जन्म देकर उसे वापस भेज दिया . इस तरह पुर्जन्म ही नहीं बल्कि वह तो पुरानी आयु को ही भोगने के लिए भी जन्मित हुआ .
इस तरह मनुष्य व् प्राणी  सभी अपने कृत्य, अकृत्य एवं कुकृत्य  का प्रत्यक्ष फल प्राप्त करता है इस व्यक्ति को तो तीन  देवताओं के साकार दर्शन हुए , वहां सभी का लेखा जोखा पलभर में प्रस्तुत हो जाता है  यह एक सत्य है  

मंगलवार, 15 फ़रवरी 2011

हिमगिरी के सम्मुख यह निर्मम नाटक कैसा !

निस्तब्ध शून्य के नीचे यह कोलाहल सा कैसा !
अधिकार विकृत जीवन का स्वार्थ कैसा !
निरा  सा धुंवा  कर्तब्य का कैसा !
माँ  भारती !  अपहृता- अनादि योद्धा, हिमगिरी मौन साधे कैसा!
तिरोहित  मनः स्थिति  में, निर्निमेष अवलोक रहा  कैसा !
विक्षिप्त जीवन की व्यथा है, यह प्रलय का द्वार है कैसा!
छा रहा  हिमगिरी  के नेत्र पटल पर, अन्धकार सा कैसा!
शांत ! नीरव! पवन तपोभूमि थी यह ,
कुरुक्षेत्र सी रणभूमि, यहाँ कोलाहल सा कैसा!
हिंसा के गौरव कुंडली कुरुक्षेत्र के कौरव,
नवजात अभिमन्यु के लिए, धर्मव्यूह रचाया है कैसा!
सभी बन कर योद्धा, एक दूसरे की परछाई,
द्वेष, द्वंद्व, अनीति, घृणा पर सहज उतर आयी!
परन्तु ! न कर्ण वीर शेष हैं, दानव पन अभिशेष  है!
धर्मभीरु ! धर्मयुद्ध ! के लिए  यह कौरव नृत्य कैसा है!
निरपराध जन द्रोपदी ! चीर हरण अपमान को झेल रही है !
मौन खड़ी साधना में, सहायतार्थ कृष्ण को पुकार रही है!
या फिर स्तब्ध  खड़े हिमगिरी को, ढह जाने को कोस रही है !
पापंकी बना  दिया इस देश को कैसा !
अराजकता का आधुनिक दुर्योधन कैसा !
माँ भारती ! अश्रुपूरित नयनो का यह माणिक हार कैसा !
रुदित कंठ से भीरु  बने, धर्म पुजारी !
यह खंडित खेल, मौन निहारते मधु विहारी !
क्यों ?
अरे ! आदि पुरुष हिमगिरी के सम्मुख  यह निर्मम नाटक कैसा ! 


(कविता २१ फरवरी १९८४ को लुधियाना में लिखी  थी कितु प्रकाशित न करवा सका. संभतः मेरे तब का आशय और की आज  स्थिति  में समानता है )

आजा बचपन एक बार फिर

 सुभद्रा कुमारी चौहान  पंक्तियाँ  सार्थक  हैं - आजा बचपन  एक बार फिर .................