आओ लौट चले प्रकृति की ओर!
कहाँ हिमखंडों का ढेला,
कहाँ नदियों का जल प्रवाह,
हो रहे वन भी कंगाल
देखो ! कहाँ खिचीं जा रही जीवन की डोर,
आओ लौट चले प्रकृति की ओर !
नष्ट हुए खेत खलिहान ,
नग्न हुई पर्वत श्रृंखलाएं,
तोड़ इन्हें, सड़क हुयी परवान,
सूखे जल स्रोत,
और जल दायिनी गंगा यमुना भी रुग्ण है
आओ लौट चले प्रकृति की ओर !
जब हिम था, वर्षा थी, तो था अन्न- धन,
अब सूख गए वृक्ष वनों के, आकुल हुआ मन,
सूखे जल स्रोत, देते हैं पीड़ा मन को प्रति पल,
कहाँ कलनिनाद है जल प्रपातों का, प्राणी है विकल !.
लुप्त प्रायः है स्निग्ध जीवन धारा,
जवाब देंहटाएंटूट गया है प्रकृति का मनोरम,
वायु शीतल नहीं, बढ़ रहा है पारा,
न जाने कौन खीच रहा है,
अविरल विनाश की डोर !
आओ लौट चलें प्रकृति की ओर!
....pragati ke naam par prakriti ka vinash kisi bhi tarah uchit nahi..
saarthak sandesh aur jaagruk bhari prastuti ke liye aabhar
अहा,
जवाब देंहटाएंयही प्रकृति है हमको प्यारी,
उस पर लौट चले इस बारी।
सार्थक प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंआपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
जवाब देंहटाएंप्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (12-5-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com/
आओ लौट चलें प्रकृति की ओर!
जवाब देंहटाएंसच में कमी तो लगाती ही है उस प्राकृतिक जीवन धारा की .....बहुत सुंदर मनोरम रचना
बहुत सुन्दर आह्वान ..अच्छी प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना ... सच है आज की पुकार यही है की प्राकृति की और लौट चलें ....
जवाब देंहटाएं"दूध की रखवाली बिल्ली के भरोसे" है सभी जगह. सरकारी आंकड़ों में पर्यावरण के नाम पर जितना हो-हल्ला और खर्च होता है उतना धरातल पर कहाँ है. टिहरी बाँध को ही देख लीजिये. 7000 हज़ार करोड़ रुपये से अधिक खर्च हुए. डूब क्षेत्र में ही लाखों पेड़ कटे, डूबे. उनके एवज में कहाँ पेड़ लगाये गए. झील के चारों और देखेंगे तो रोना आ जाता है सूखे पहाड़ देख कर. जो थोड़ा बहुत हरियाली दिखती है वह गाँव वालों का अपना प्रयास है. फिर जब जनता ही सब कुछ करेगी तो सीधे गाँव वालों को ही वृक्षारोपण क्यों न दिया जाय. बहस लम्बी है.... कभी फिर.....
जवाब देंहटाएंआभार..... अनेकानेक शुभकामनायें!
लुप्त प्रायः है स्निग्ध जीवन धारा,
जवाब देंहटाएंटूट गया है प्रकृति का मनोरम,
वायु शीतल नहीं, बढ़ रहा है पारा,
न जाने कौन खीच रहा है,
अविरल विनाश की डोर !
आओ लौट चलें प्रकृति की ओर!
सच कहा है ...हम प्रकृति से छेडछाड करके अपने विनाश की ओर बढ़ रहे हैं..बहुत सुन्दर और समसामयिक प्रस्तुति..
लौटना ही होगा ...आज से सोंचना तो शुरू करें ! शुभकामनायें आपको !
जवाब देंहटाएंक्या आप हमारीवाणी के सदस्य हैं? हमारीवाणी भारतीय ब्लॉग्स का संकलक है.
जवाब देंहटाएंहमारीवाणी पर ब्लॉग प्रकाशित करने की विधि
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