जब आप कोई पुस्तक पढ़ते है तो पुस्तक का मुख पृष्ठ अपनी आत्म कथा वर्णित करने का प्रयास करता है. तब कोई व्यक्ति आपको पढ़ते हुए देखता है या किताब के पन्नो पर ताक झांक कर पढने की कोशिश करता है, तो वह सहज ही इस बात का निर्णय ले लेता है कि आप क्या और क्यों पढ़ रहे हो . विशेष कर जब आप धार्मिक आवरण की तथा संस्कृत की पुस्तक पढ़ रहे हों . जैसे श्रीमद भगवत गीता, हनुमान चालीसा, उपनिषद, या कोई सहस्रनाम स्तोत्र . देखने वाले आपकी भक्ति और आस्था पर नत मस्तक हो, पढने के प्रयोग भी बताने लग जायेंगे, पुस्तक कब और कैसे , किस मुद्रा में, तथा किस ध्वनि में पढनी चाहिए .
मैंने कुछ दिन पूर्व गीता प्रेस की गाड़ी से गोपाल सहस्रनाम स्तोत्रंम की पुस्तक खरीदी किन्तु पढने का कोई निश्चित समय नहीं है इसलिए घर से कार्यालय आते हुए एक घंटा मेट्रो ट्रेन में बिताना पढता है अतः इस समय में आधे घंटे का समय पढने के लिए नियत किया , बाकि का समय दो अन्य ट्रेने बदलने में बाधित होता रहता है इसलिए प्रथम चरण के आधा घंटा का समय उपयुक्त लगा . इस समय या तो अख़बार पढता हूँ या फिर यह पुस्तक . पुस्तक में कुल मिलाकर२१४ श्लोक हैं एक आवृति पूरी कर चुका हूँ किन्तु पल्ले कुछ नहीं पड़ा . न तो भाषाई और न ही अध्यात्मिक ज्ञानार्जन हो सका . परन्तु पढ़ते समय एक महाशय से परिचय यों हुआ " रोज़ भगवन जी दर्शन हो जाते है कल भी हुए थे प्रभु ही सबके तारण हार हैं....... आदि " मैंने भी उनके सुर में सुर मिलाया . किन्तु मेरी तो नहीं, उनकी इश्वर के प्रति सदाशयता का परिचय अवश्य मिला .
मेरा उद्देश्य तो मात्र अभी ज्ञानार्जन था, आस्था से जुड़ा तो बिलकुल नहीं था . परिणाम शून्य था . और पुनः पुनरावृति प्रारंभ कर दी . और आज भी एक अन्य महाशय से परिचय हुआ. मुझे पढ़ते हुए देख कर बगल से स्वयम पढने की कोशिश करने लगे . कुछ समय बाद वे मुझे सलाह देना नहीं भूले . कहते है स्तोत्र का पाठ वाचिक करना चाहिए, मानसिक करने कोई लाभ नहीं मिलता . मैंने साधारणतया टालने की कोशिश की .किन्तु उन्होंने अपना परिचय कर्मकांडी ब्रह्मण तथा ऋषिकेश उत्तराखंड का बताया . तत्पश्चात मैंने भी अपना परिचय उन्ही के अंदाज में कर्मकांडी ब्रह्मण पौड़ी गढ़वाल उत्तराखंड का बताया . तत्काल वे पिछले कोच की तरफ उन्मुख हुए और शायद उनका स्टेशन आ गया हो और उत्तर गए हों .
किन्तु मेरे लिए कुछ प्रश्न विश्लेषण के लिए छोड़ गए . क्या धार्मिक पुस्तक का पाठ वाचिक होना चाहिए, या मानसिक अथवा हार्दिक ? मुझे तो सभी प्रश्नों के उत्तर पुस्तक पढने के उद्देश्य में निहित लगते हैं . आप पुस्तक किस उद्देश्य से पढ़ रहे हैं , क्या आप नियमित पूजा स्थान पर बैठ कर पाठ कर रहे है या कही अन्यत्र मात्र अध्यन रत है. इन उदेश्यों और प्रश्नों के उत्तर के अनुकूल पढने की विधि निर्धारित हो सकती है . एवं मानसिक वाचिक और हार्दिक तीनो यंत्रो का प्रयोग समुचित रूप से हो सकेगा .
पुस्तक को पढ़ते हुए किसी भी यंत्र का प्रयोग हो उसका उद्देश्य पुस्तक के सभी उपाख्यानो का सांगो पांग ज्ञानार्जन और अन्तः करण से जुड़ कर आस्था के रूप में परिणिति हो तभी अध्यन सफल हो सकेगा , मै स्वयं ऐसा कर पाउँगा या नहीं भविष्य ही बताएगा . फ़िलहाल अध्यन जारी है.
अध्यन उद्देश्य ज्ञानार्जन ही है मेरे विचार में, ज्ञानवर्धक लेख आभार..
जवाब देंहटाएंपढ़ने से ज्ञान तो अर्जित होता ही है इसी लिए पढ़ते भी हैं| धन्यवाद|
जवाब देंहटाएंपढ़ने के बाद ही पता चल पाता है कि क्या पढ़ा।
जवाब देंहटाएंवाचिक हो या हार्दिक, प्रश्न है आपका ध्यान केन्द्रित है कि नहीं. फिर अध्यन का उद्देश्य ज्ञानार्जन है न कि दिखावा. ........ सार्थक व सुन्दर पोस्ट के लिए आभार.
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया लगा! सुन्दर और ज्ञानवर्धक आलेख! उम्दा प्रस्तुती!
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लोगों पर आपका स्वागत है!
बहुत बढिया!सुन्दर और ज्ञानवर्धक
जवाब देंहटाएंविवेक जैन vivj2000.blogspot.com
जिस समय में पुस्तकें कम थीं और वाचक का उद्देश्य ज्ञान प्राप्ति के साथ ही ज्ञान प्रसार भी था, हर कृत्य बोलकर किया जाना स्वाभाविक था। आज भी भारत का एक बडा वर्ग अनपढ है। जैसे लोग अपने से कम समर्थ लोगों को अपने धन-धान्य का दान करते हैं वैसे ही ब्रह्म-ज्ञान बांटते रहना सज्जनों द्वारा स्वतः ही होता था। वैसे कौन क्या करता है यह व्यक्तिगत रुचि और सामाजिक मर्यादा का मामला भी है।
जवाब देंहटाएंपुस्तक का महत्व व किस लिए, दोनों जरुरी है,
जवाब देंहटाएंपढ़ते रहिये ....सही चिंतन है
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें !!
पुस्तक को पढ़ते हुए किसी भी यंत्र का प्रयोग हो उसका उद्देश्य पुस्तक के सभी उपाख्यानो का सांगो पांग ज्ञानार्जन और अन्तः करण से जुड़ कर आस्था के रूप में परिणिति हो तभी अध्यन सफल हो सकेगा ...bilkul sahi baat kahi aapne...
जवाब देंहटाएंपुस्तक - पाठन ही नहीं, कोई भी कार्य समय और परिस्थिति के अनुरूप ही होना चाहिए |
जवाब देंहटाएंपुस्तक पढने का उद्देश्य तो अंततः ज्ञानार्जन ही है.....
जवाब देंहटाएंटिप्पणी देकर प्रोत्साहित करने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया!
जवाब देंहटाएंआपके नए पोस्ट का इंतज़ार है!
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जवाब देंहटाएंशिव पुराण में एक जगह उल्लिखित है की स्तोत्रों आदि का जाप मन में नहीं बल्कि के स्पष्ट वाणी में बोल कर करना चाहिए। गति भी अति शीघ्र नहीं होनी चाहिए। दिन और रात में जप आदि करते समय दिशा का भी ध्यान रखना चाहिए। जैसे प्रातः पूर्व की और मुख करके तथा शाम को पश्चिम की और मुख करके पाठ करना चाहिए।
वैसे ज्ञानार्जन के उद्देश्य से तो कभी भी , पाठ कर सकते हैं । सारे कर्म-काण्ड , इस भागती-दौड़ती दुनिया में संभव नहीं है। ईश्वर अपने भक्तों से प्रसन्न ही रहते हैं।
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बड़ा सटीक विवेचन किया है आपने..बधाई.
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