ये रिक्शे वाले !
सदियों से मानव का बोझ ढ़ोते आ रहे हैं,
मजदूरी की सौदे बाजी निरन्तर करते आ रहे हैं।
मैंने रिक्शे वाले को आवाज दी-
'चलोगे चौक तक'
'जी चलूंगा'
'पैसे बताओ कितने लोगे'
'जी दे देना'
'नहीं पूरे बताओ'
'पूरे पांच रुपये'
'अच्छा मुझे नही जाना'
'बाबू जी चार दे देना'
'दो देंगे बोलो चलोगे'
'अच्छा जी तीन दे देना'
मैंने भी दो रुपये का लाभ देखकर,
रिकशे में बैठ गया।
न जाने ऐसे कितने सौदौं के शिकार होते हैं
समय और दूरी के बीच, भूखे बच्चों के लिये
जिन्दगी अकुलाती है,
और निरन्तर मानव का बोझ
भूखे पेट, खीचते चले जाते है।
ये बेचारे रिकशे वाले!
( 17 फरवरी 1990 को लिखी गयी)
सदियों से मानव का बोझ ढ़ोते आ रहे हैं,
मजदूरी की सौदे बाजी निरन्तर करते आ रहे हैं।
मैंने रिक्शे वाले को आवाज दी-
'चलोगे चौक तक'
'जी चलूंगा'
'पैसे बताओ कितने लोगे'
'जी दे देना'
'नहीं पूरे बताओ'
'पूरे पांच रुपये'
'अच्छा मुझे नही जाना'
'बाबू जी चार दे देना'
'दो देंगे बोलो चलोगे'
'अच्छा जी तीन दे देना'
मैंने भी दो रुपये का लाभ देखकर,
रिकशे में बैठ गया।
न जाने ऐसे कितने सौदौं के शिकार होते हैं
समय और दूरी के बीच, भूखे बच्चों के लिये
जिन्दगी अकुलाती है,
और निरन्तर मानव का बोझ
भूखे पेट, खीचते चले जाते है।
ये बेचारे रिकशे वाले!
( 17 फरवरी 1990 को लिखी गयी)
कितने सुंदर तरह से लिखा है रिक्षेवाले के दर्द को ...उसके जीवन को ...गहन अभिव्यक्ति ....बहुत सुंदर रचना ...
जवाब देंहटाएं17 फरवरी 1990 को लिखी गयी कविता आज भी ताजगी लिए है, हालात आज भी ज्यों के त्यों बने हुए है,कुछ भी नहीं बदला, बढ़िया शब्द चित्र हेतु आभार......
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर , मार्मिक
जवाब देंहटाएंरिक्शेवाले से एक दो रूपये के लिए चिक चिक हर गली नुक्कड़ पे देखने को मिलती है
मेर गाँव (:ब्लॉग) में भी तश्रीफ़ लाइयेगा . WWW.GUGLWA.COM
ये बेचारे रिक्शेवाले …
कमजोरों की पीड़ा समझले वही सच्चा इंसान …
सुंदर भाव ! सुंदर कविता !
आभार …
आपको भी ज्योति पर्व दीपावली एवं भैया दूज की ढेरों बधाइयाँ एवं शुभकामनाएं !
जवाब देंहटाएंअस्त-व्यस्त दिनचर्या के चलते नेट पर पर्याप्त समय नहीं दे पता हूँ,जिसका मुझे खेद है.......
रिक्शे वालों के दर्द को जीवंत कर दिया आपने ..
जवाब देंहटाएंसार्थक प्रस्तुति के लिए आभार
यह सिलसिला कब थमेगा।
जवाब देंहटाएंसम्भवतः कभी नही। स्वरूप बदल सकता है।
हटाएंसुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंनववर्ष की हार्दिक बधाई।।।
सच्ची अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंकोई लाग लपेट नही सादा सरल सोम्य भाषा आभार आपका दैन्य पीढ़ित मानव की पुकार का सजीव चित्रण है
जवाब देंहटाएंबहुत उम्दा ..भाव पूर्ण रचना .
मेरी नई रचना
ये कैसी मोहब्बत है
खुशबू
कौन समझना, चाहे इनको
जवाब देंहटाएंकाम बहुत,क्या देखें इनको
वजन खींचते, बोझा ढोते
दर्द न जाने दुनिया वाले
ये बेचारे रिक्शे वाले
माँ की दवा,बहन की शादी
जाड़ा गर्मी हो या पानी
इक अनजानी चिंता इनको
खाए जाती हौले हौले !
ये बेचारे रिक्शे वाले
हकीकत को कहती सुंदर रचना .... हम लोग ही शोषण करते हैं इन लोगों का ।
जवाब देंहटाएंबिलकुल सही कहा आपने ....
जवाब देंहटाएंसार्थक रचना
साभार !
बहुत दिन से आपको कोई नयी पोस्ट पढने को नहीं मिली ...आशा है सब ठीक होगा!
जवाब देंहटाएंसादर
बेहतरीन प्रस्तुति।।।
जवाब देंहटाएंनवरात्रि की हार्दिक शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंबहुत खूब..सुंदर प्रस्तुति।।।
जवाब देंहटाएंजो उन्हें ढो कर ले जाता है उस परिश्रमी से एक-एक रुपये के लिए चिक-चिक करते हैं और झूठी शान में कितना पैसा उड़ा देते हैं -और होता अधिकतर यही है -आखिर कब तक !
जवाब देंहटाएंbahut sahi v bhavnatamk likha hai aapne rikshaw vale ke baare me .very nice .
जवाब देंहटाएंसच है, हर तरफ मजबूर का शोषण हो रहा है, कहीं अनजाने में, कहीं डंके की चोट पर।
जवाब देंहटाएंमजदूरी उर्फ मजबूरी !
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