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सितम्बर को एक ऐसे
कवि की पुण्य तिथि है जो कभी इस दिन पर याद भी नही किया जाता है। हिन्दी साहित्य
को अभूतपूर्व योगदान करने वाले, किन्तु प्रायः अप्रकाशित रहने वाले इस कवि का नाम
है- चन्द्रकुंवर वर्त्वाल। ठीक उसी तरह है जैसे छोटी नदी मे उठने वाली लहरें,
चट्टानों से टकराकर, नदी मे लौट कर, सागर की गहराइयों मे जाकर विलीन हो जाती हैं।
इसी तरह कुवंर जी का जीवन भी बलखाते हुये अल्पायु मे ही दम तोड गया।
कुवंर जी का जन्म
जनपद पौड़ी गढ़वाल के ग्राम तल्ला नागपुर मालकोटी
में 20अगस्त 1919 को, प्राइमरी स्कूल के प्रधानाध्यापक श्री भूपाल सिंह के
घर हुआ। माता का नाम जानकी देवी था। आपका मूल गॉव कालीपार पट्टी, पॉवलिया था। 1937 में मेस्मोर इन्टर कालेज पौड़ी,ड़ी ए
वी इण्टर कालेज देहरादून से बारहवीं, एवम 1941
मे इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक, तथा 1941में स्नातकोत्तर मे लखनऊ
विश्वविद्यलय मे प्रवेश लिया। स्वास्थ्य में खराबी के कारण वे अपने गॉव पॉवलिया
लौट गये। निरन्तर अस्वस्थता के कारण वे अत्यन्त रुग्ण हो गये। कहा जाता है कि
इन्हे क्षय रोग हो गया था। इन्हे मृत्यु का पूर्वाभास हो चुका था। अन्तिम दिनो मे
इनकी हस्त रेखायें मिटने लगी थी, और वे लोगों को दिखाकर, अपनी अल्पायु का परिचय
कराते।
प्रकृति के स्नेही
इस कवि की मृत्यु 14 सितम्बर 1947 को 28 वर्ष की अल्पायु मे ही हो गयी। अंग्रजी के
कवि कीट्स भी ठीक इतनी ही अल्पायु मे दुनिया से विदा हुये थे। दोनो कवियों की
कविताओ मे दर्द उभर कर आता है। इसी समानता के कारण इन्हे कीट्स आफ गढ़वाल भी कहा जाता है।
कुवंर जी ने
निरन्तर प्रकृति के गीत मुखरित किये। वे
परिश्रम और अदम्य साहस में विश्वास रखते थे। घटनाओं का इन्हे पूर्वानुमान हो जाता था। वासुदेव शरण
अग्रवाल लिखते है कि “इन्हें मृत्यु विजय पर अटल विश्वास था और ये यह आन्तरिक भावना
लेकर विदा हुए कि हलाहल पान करके भी जिस
सरस्वती धारा को हृदय बढ़ा रहा है वह कभी इस देश की जीवन सम्पति होगी।“
भावनाओं को शब्दबद्द
करने, निखारने, मन्त्र मुग्ध कर, सौम्यपूर्ण
एवम् भावनाओं को विद्युत धारा की भांति उत्तेजित करने वाले काव्य का सृजन
करने में यह मनीषी अत्यन्त सफल रहा है।
उत्तराखण्ड के
सुरम्य वादियों, कल कल करती नदी और झरने, हरियाली की चादर ओढ़े घने वन पर्वत,
पक्षियों का निनाद,और गगनचुम्बी हिमशिखरों
मे क्रीड़ा करते हुये प्रकृति की गोद में कवि का जीवन विकसित हुआ तो निश्चय
ही कविताओं में प्रकृति का मूर्त रूप में समा जाना स्वाभाविक है। “सूरजमुखी’ कविता का उदाहरण प्रस्तुत है;
वह सूरज की ओर देखती
चिरतपस्विनी,
चिर प्रसन्न मुख
कहीं न जिस पर दुख की छाया,
अश्रु – शान्ति –अंजलि
–सी धरणी सी शुचि काया।
रवि से बिछुड़ी एक
किरण सी खड़ी धरा पर,
जलती पूजा के प्रदीप की लौ सी सुन्दर,
वह रवि – मुख की
तृषित चकोरी दिनभर हंसती।
एक अन्य कविता ‘रैमासी’ शीर्षक
का चित्रण देखिये:
कैलाशों पर उगते
राईमासी के दिव्य फूल,
मॉ गिरजा दिनभर चुन,
जिनसे भरती अपना
पावन दुदूल,
मेरी ऑखो मे आए
राईमासी के दिव्य फूल।
मेघनन्दिनी का शुभारम्भ प्रकृति के वर्णन से प्रारस्भ हुआ.
इस रचना में कवि ने मन्दाकिनी का सजीव
चित्रण किया है वासुदेवशरण अग्रवाल पुनः लिखते हैं- “चन्द्रकुंवर जी के काव्य का एक ओर उज्जवल पक्ष
उनकी प्रकृति और वृष्टि सम्बधी कविताए हैं........हिमालय के चंचल जल प्रवाह के साथ
क्रीड़ा करने वाली कवि की तरुण वाणी वृष्टि से उमड़ती हुयी वरुण की उन्माद भरी
प्रणयनि मन्दाकिनी के चित्रण से सजीव हो उठी है। .......शुद्ध आनन्द प्रदान
करने वाले इस महानुभाव कवि के काव्य
को अवश्य एक दिन, गहरा स्वागत प्राप्त
होगा। उसके गूंजते हुये स्वर साहित्य में चिरंजीवी होंगे”।
मेघनन्दिनी का सृजन कवि ने उस समय किया
जब वे अपने जीवन से परेशान थे । स्वास्थ्य
की खराबी हर पल मौत का तान्डव नृत्य उनके सामने कर रही थी। इसीलिये उन्होने
प्रकृति और वृष्टि का सामञ्जस्य किया है।
प्यारे गीत बहुत दिन रहे साथ हम जग में,
रोते गाते हुये बढे हम जीवन मग में,
आज समाप्ति हुयी पथ की अब मुझे विदा दे,
लौटो तुम, जाने दो, दूर मुझे जीवन से।
X x x x x x
प्रिय लगते हैं
कांटे भी अपनी मधुरित को,प्रिय लगते हैं दीन वचन अपने वैभव के,
प्रिय लगते अपनी वर्षा
के तर्जन गर्जन प्रिय अपने फूलों से आतप तन,
प्रिय अपने आँसू
अपनी शशि की पलकों को।
कुंवर जी अपने जीवन
से काफी थक चुके थे, और फिर वे मन को प्रकृति
में रमाकर पुनः लिखते हैं-
कोलाहल से दूर शान्त
नीरव शैलौं पर, मेरा गृह है जहां बच्चियों सी हंसी हंस हंस कर,
नाच नाच बहती है
छोटी-छोटी नदियां, जिन्हें देखकर, जिनकी मीठी ध्वनियां सुनकर,
मुझे ज्ञात होता है,
जैसे यह पृथ्वी तो अभी अभी आई है इसमें चिन्ता को,
और मरण को स्थान
कैसे हो सकता है!
कवि इस हिम प्रदेश
में इतना रम चुका था कि वह अपनी अन्तिम घडी तक इसी घाटी में जीवन व्यतीत करना
चाहता था-
अपने उदगम से लौट रही, अब बहना छोड नदी
मेरी
छोटे से अणु में डुबो रही, अब जीवन की
पृथ्वी मेरी।
ऑखों में सुख से पिघल पिघल, ओंठों में
स्मिति झरता
मेरा जीवन धीरे- धीरे, इस सुन्दर घाटी में
मरता।
वस्तुतः कुंवर जी ने
सुकोमल साहित्य का सृजन कर हिन्दी को महान भेंट दी है। लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय एक
सन्दर्भ में लिखते हैं “चन्द्रकुंवर
वर्त्वाल यदि जीवित रहते तो वे हिन्दी साहित्य की आधुनिक प्रगति में विशेष योग
देते। वैसे उन्होने जो कुछ भी लिखा वही उन्हे आधुनिक कवियों श्रेष्ठ स्थान दिलाने
के लिए यथेष्ट है। खेद है ऐसा प्रतिभावान
कवि इतने शीघ्र ही हम लोगों के बीच से उठ गया। उनकी मेघनन्दिनी शीर्षक रचना वास्तव मे एक अमर सन्देश लेकर हिन्दी पाठकों के सामने आयी है।..........”
कविता से कुंवर जी को इतना गहरा
लगाव था कि कविता ही उनकी प्रेयसी थी, कविता ही उनकी प्रकृति थी।उन्होने
जीवन को फलीभूत करने के लिए हमेशा कविता के रूप में, सरस्वती की पूजा की, इसी देवी
के चरणों में उन्होने अपना नत मस्तक किया। अपने गहन विश्वास को प्रकट करते हए अपने एक मित्र को पत्र में लिखा था,” कविता यदि मुझे भुला न दे तो मैं कुछ खोया
हुआ न मानूंगा और मुझे तनिक भी दुख नही
होगा। हृदय की उसी एकान्त इच्छा को पूरी तरह पाने के लिये मैं जानबूझ कर कठिन दुख
के रास्ते पर चल रहा हूं। हो सकता है कि अकाल मृत्युमेरी कामनाओं को कुचल दे।हो
सकता है जब मुझे सिध्दि मिले तब उसे उपभोग
करने की सामर्थ्य मेरे शरीर मे न हो। फिर भी मुझे इस बात का सन्तोष कि जीवन के प्रभात काल में जिस देवी के चरणो पर
मैने अपना सिर रखा था उसकी सदा मैंने पूजा
की, उसको मैंने सदा प्यार किया.........”।
कुंवर जी अदम्य साहस भी रखते थे। प्राकृतिक
विपदाओं के बावजूद भी वे अपने मार्ग पर अटल थे। कविता में शब्दों को तरुण भावना के
साकार रूप देने में यह मनीषी अत्यन्त सफल
रहा है। उन्हे हर समय जीवन में सार्थकता
का चिराग प्रज्वलित करने की चिन्ता सताती
थी। वास्तव मे आप कमलिनी के समान शीघ्र ही खिलने के बाद तुरन्त अकाल मृत्यु की गहन निशा में मुरझा गये। कविता
ही सिर्फ इनकी धरोहर मात्र है।
काश यह साहित्य सृष्टा दीर्घावधि तक जीवित
रहते तो हिन्दी साहित्य को अभूतपूर्व
ज्ञान प्रदत करते, एक नयी दिशा देते।
14 सितम्बर उनकी पुण्य तिथि है जो कि हमेशा
ही हिन्दी दिवस के रूप में प्रति वर्ष मनाया जाता है, किन्तु कुंवर जी के लिये इस
उत्सव में श्रध्दा सुमन के नाम पर शायद एक शब्द भी अर्पित नही होता है। सम्भवतः
अप्रकाशित रचनाऐ इसका कारण हों। हिन्दी दिवस याद करे या न करे किन्तु आलोकवाही
प्रकाश पुंज संसार को जगमग कर ही देता है।
महादेवी वर्मा ने ठीक ही लिखा है “आखिर दीपक छोटा हो
या बडा, सूर्य जब अपना आलोकवाही कर्तव्य उसे सौंप कर चुपचाप डूब जाता है उसका जल
उठना ही उसका अस्तित्व की शपथ है- जल उठना ही उसका जाने को प्रणाम है।“
काश यह साहित्य सृष्टा दीर्घावधि तक जीवित रहते तो हिन्दी साहित्य को अभूतपूर्व ज्ञान प्रदत करते, एक नयी दिशा देते।
जवाब देंहटाएं....सच यह काश शब्द बहुत चुभता है ...
जाने कितने की ऐसे अनमोल मोती संसार से निस्वार्थ भर से अपना कर्म करते हुए चुपचाप संसार से विदा हो जाते हैं ... ..जिनके जाने के बाद उनकी महत्ता समझ आती हैं ...
चन्द्रकुंवर वर्त्वाल से उनकी रचनाधर्मिता से परिचय काराती सुन्दर प्रस्तुति हेतु आभार ...
चन्द्रकुवंर बर्त्वाल पर आपका यह आलेख अच्छा लगा। मात्र अठ्ठाईस वर्ष की आयु में सात सौ से अधिक कवितायें देकर वे इस असार संसार से विदा हो गये।
जवाब देंहटाएंब्लॉग के माध्यम से आपने हिमालय के इस काफलपाकू कवि के यश को और भी बढ़ा दिया है। आभार!!
कुछ वर्ष पहले देहरादून में उनके जन्मदिवस के अवसर पर उनके भाई भूपाल सिंह बर्त्वाल जी का कहना था कि उनका नाम वास्तव में कुवंर सिंह बर्त्वाल था। फिर वे अपना नाम कुंवर सिंह बर्त्वाल‘चन्द्र’ लिखने लगे। बाद में वे कुंवर सिंह बर्त्वाल‘चन्द्र’ से चन्द्रकुंवर बर्त्वाल हो गये।
कुंवर जी के बारे में जानकारी देने के लिए आभार।
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