भावभीनी विदाई |
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संसार परिवर्तन शील है, यह उक्ति कितनी सार्थक है कि जीवन पर्यंत कई परिवर्तन देखने को मिलते हैं. पीढ़ी दर पीढ़ी नई रीतियाँ , परम्पराएं, पनपती है और बदलती रहती हैं. मान्यतायें जन्म लेती है. बचपन , युवावस्था तदोपरांत का जीवन और मर्यादाएं कई कुछ सिखाती हैं. सीखते हुए बहुत कुछ भूल भी जाते हैं
विकास की गति के साथ समाज और दुनिया की दूरियां सिमटती रही, और नजदीकियों की सौगात से हम लाभान्वित होते रहे. किन्तु कभी कभी इन्ही नजदीकियों के कारण, दूरियां भी इतनी बढ़ी की पता ही नहीं चलता कि आप बिछुड़न के पश्चात कितने दूर पहुच गए. रिश्ते केवल औपचारिक रह गए .
परन्तु परम्पराओं का जो स्वरुप और मान्यता, प्राचीन थी, अद्द्यतन कहीं न कही किसी रूप में आज भी जीवित हैं, चाहे औपचारिकता ही क्यों न हो. ऐसा प्रतीत होता है कि उसका केवल स्वरुप बदला, भावनात्मक और मूल भाव में परिवर्तन अपरिहार्य लगता है.
यात्राओं के दौरान हम कई बड़े बड़े बोर्ड लगे हुए देखते हैं किन्तु शायद ही उनकी वास्तविक स्थिति पर कोई गौर करता हो. इस बार दिल्ली से देहरादून जाते हुए मेरठ वाई पास पर एक बोर्ड पर नजर पड़ी जिस पर नगर निगम ने लिखा था " मेरठ में पधारने पर आपका धन्यवाद, आपकी यात्रा मंगलमय हो!" इसी तरह अनेकों बोर्ड दिखाई देते हैं . और अचानक मेरे दिमाग कुछ बातें कौधने लगी और इसी सोच विचार ने मुझे अतीत कि ओर मुड़ने के लिए विवश कर दिया . सन १९७५ के पूर्व की यादें ताजा होने लगी .
हम बहुत छोटे थे, पहाड़ी दुर्गम गाँव, और गाँव में कोई प्रदेश से आता, बड़ी खुशियों कि बौछार लाता. स्वागत में पूरा गाँव पलक पांवड़े बिछा डालता. कई मीलपैदल चल कर आते , अपने सामान को सुदूरवर्ती बस अड्डे पर छोड़ कर आते या वहीँ से मजदूर की मदद से, साथ साथ लेकर आते. परन्तु जब उनकी छुटियाँ समाप्त होती तो वे लोग दुकानों से कुछ सिक्के, एक, दो एवं पांच रूपये के नोट विनिमय कर इकठे कर लेते. घर से विदाई के समय बच्चे और वृद्ध तो प्रायः नजदीक से ही विदा ले लेते हैं . किन्तु जवान लोग उन्हें विदा करने ५ से दस मील तक विदा करने जाते.और गंतुक उन्हें यथानुसार छोटे बड़े को कुछ रुपये -पैसे देते. विदा देने वाले लोग अपने को अनुकंपित मानते. विदाई का दृश्य आत्म विह्वल और अश्रुपूरित होता. सभी उनकी यात्रा की मंगल कामना के साथ पुनः आगमन की आशा करते हैं, यह संयोग हमें पुनः प्राप्त हो.
संभवतः आज इसी परम्परा का निर्वहन हो तो रहा है, किन्तु औपचारिकता तक, अर्थात घर की देहलीज, या फिर सोसायटी के मुख्य गेट तक जाकर इतिश्री कर ली जाती है फिर भी भावनाएं उसी रूप में उपस्थिति प्रस्तुत करती हैं . वही से व्यक्ति अपने गंतव्य की ओर चल पड़ता है. पहाड़ों में भी ये दूरी सिमट चुकी है, निकटतम बस स्टैंड तक भी, तभी जाया जाता है जब गंतुक के पास कोई भारी सामान होता है . फिर भी कुछ हद तक परम्परा बनी हुई है . संभवतः सरकारी एजेंसिया जैसे म्युनुसिपल कारपोरेशन, पी डब्लू डी आदि संस्थाएं भी, सांकेतिक रूप में , शहर के बाहर सीमा पर इस तरह के बोर्ड स्थापित करते हैं, जिन पर आगंतुक व् गंतुक को, धन्यवाद के साथ सुखद यात्रा की कामना एवं पुनरागमन की आशा व्यक्त की जाती है. सरकारी और राजनैतिक परिदृश्य भी यही दर्शाता है .जैसे किसी विदेशी राष्ट्राध्यक्ष के आगमन और गमन पर भी यह रस्म निभाई जाती है नजदीकी हवाई अड्डे तक.
इसी तरह कई अन्य परम्परायें अपना स्वरूप बदल चुकी हैं अपितु निर्वहन उसी मूल उद्देश्य एवं भाव से गतिमान है. सोलह संस्कार जो भारतीय परम्परा के अभिन्न अंग हैं उनके स्वरूप भी बदल चुके हैं चाहे शादी, मुंडन, नामकरण या अंतिम संस्कार हो, सभी क्रियाओं में विकास की गति की मार पड़ी है समय का अकाल सभी को लील रहा है निर्वहन तो जारी है किन्तु औपचारिकता के साथ. सभी संस्कार और क्रियाएँ संकुचित हो चली हैं. पहाड़ से लेकर मैदानी परिवेश तक कोई भी अछूता नहीं रहा.
यद्यपि तकनीकी और विकास कारणों से व्यक्ति घर से सुदूरवर्ती बस गए, अपितु संचार माध्यम के कारण कुछ निकटता बनी हुई है परन्तु हृदय की पुकार में केवल औपचारिकता बनी हुई है.
चित्र गूगल से साभार