पूरे ब्रह्माण्ड में प्रकृति की सत्ता सबसे सम्पूर्ण और ताकतवर है। मनुष्य हमेशा से इसका दोहन एवेम शोषण करने पर लगा हुआ है । व्यक्ति अपनी सत्ता को उंच उठाने की कोशिश के चलते दुनिया को विनाश के कगार पर ले जा रहा है । व्यज्ञानिक युग की धरा ने तो मनुष्य एवेम प्रकृति के साथ खिलवाड़ कर दिया है ।
जब जब प्रकृति के खिलाफ मनुष्य ने आन्दोलन चलाये है तब तब नुक्सान उठाना पड़ा है । प्रकृति के विपरीत जाकर उसके स्वरुप को बदलना महँगा पड़ता है।
आज ग्लेशियरों का पिघलना जलवायु का बदलना आदि सभी मनुष्य की दें है ।
अभी देखें तो सेक्स पर बी दुनिया के लोग अप्राकृतिक अधिकार की मांग ही नहीं बल्कि उसके कानूनी मान्यता भी मान रहे हैं। सम्लागिको को दुनियाभर में ये बहस चिद गयी है की इन्हें भी उसी तरह शादियाँ करने का अधिकार दिया जाना चाहिए । किन्तु अभी तक भारत जैसे देश में बिना किसी मान्यता के भी समलैंगिक अपना काम करते रहे हैं और अभी तक किसी को एस कार्य के इए सजा भी नहीं हुई है। तो फी कानूनइ मान्यता की क्या आवशयकता है?
जो भी समलैंगिक बना, वह जनम से नै था , उसने या तो निराशा जनक स्थिति में यह काम शुरू किया, या मौज मस्ती के लिए! जन्मजात कोई भी समलैंगिक नहीं होता है । तत्पश्चात उसे यही दुनिया मजबूरी में अछि लगाने लगती है। यह भी अप्राकृतिक काम है । और विनाश की ही और ले जाता है ।
इसकी परिणति तो आइसलैंड में ज्वालामुखी फुटकर होती है। या गंगा का पानी पत्थरो के नीचे जा रहा है।
यह तो एक छोट उदाहरण है विनाश की गाथा लम्बी है। प्रकृति के विपरीत चलने का भुगतान कारन ही पड़ता है।
मैं बात कर रहा हों समलैंगिको की । उन्हें क़ानूनी रूप में अयाशी का लाभ नहीं दिया जाना चाहिए।
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