शनिवार, 29 सितंबर 2012

ये बेचारे- रिक्शेवाले!

ये रिक्शे वाले !
सदियों से मानव का बोझ ढ़ोते आ रहे हैं,
मजदूरी की सौदे बाजी निरन्तर करते आ रहे हैं।
मैंने रिक्शे वाले को आवाज दी-
'चलोगे  चौक तक'
'जी चलूंगा'
'पैसे बताओ कितने लोगे'
'जी दे देना'
'नहीं पूरे बताओ'
'पूरे पांच रुपये'
'अच्छा मुझे नही जाना'
'बाबू जी चार दे देना'
'दो देंगे बोलो चलोगे'
'अच्छा जी तीन दे देना'
मैंने भी दो रुपये का लाभ देखकर,
रिकशे में बैठ गया।
न जाने ऐसे कितने सौदौं के शिकार होते हैं
समय और दूरी के बीच, भूखे बच्चों के लिये
जिन्दगी अकुलाती है,
और निरन्तर मानव का बोझ
भूखे पेट, खीचते चले जाते है।
ये बेचारे रिकशे वाले!
( 17 फरवरी 1990 को लिखी गयी)