गुरुवार, 18 मई 2023

मृदुला गर्ग-"वे नायाब औरतें "

 साहित्य की दुनिया मे एक नाम है मृदुला गर्ग। नाम तो सुना था शायद कहीं अखबारो मे पढ़ा भी था, किन्तु उनकी किताबों से पूरी तरह अनजान। नौकरी की भागदौड़ में तो किताबें कोसों दूर हो गयी थी।  लगभग पढ़ना तो जैसे दूभर हो चुका था। हां अखबार की निरन्तरता सदा बनी रही। समाचार पत्रों के माध्यम से ही लेखको का परिचय होता रहा।

इस बार भी कुछ ऐसा ही हुआ। 'हिन्दुस्तान' हिन्दी में नयी पुस्तको की समीक्षाएं छपती रहती है। जिससे पता चलता रहता है कि नयी किताब कौन सी आयी है। बस एक दिन मृदुला गर्ग की नयी नवेली किताब " वे नायाब औरतें" की संक्षिप्त समीक्षा छपी थी, पढ़ने पर थोड़ी  उत्सुकता जगी और किताब सीधे प्रकाशक से मंगा डाली। अमेजन व अन्य प्लेट फार्म पर उपलब्ध न थी। पुस्तक आने में लगभग  एक सप्ताह का वक्त लग गया। पहले तो ऐसा लगा कि प्रकाशक आर्डर पर तो नही छाप रहा! किन्तु आखिर पुस्तक आ ही गयी।

पुस्तक को मृदुला ने अपने यादों, संस्मरणों व यात्रा वृत्तान्तों के गुलदस्ते से सजाया है।चटपटे किस्से और कहानियों के संग, दोस्तो, सहेलियों, और बहिनों के बीच के जीवन्त वृत्तान्त, पुस्तक  सदानीरा नदियों की तरह सरपट भागती है, बस आगे क्या! ये उत्सुकता बनी रहती है।

"घर का एक अघोषित नियम था कि कोई भी किसी का पत्र नही खोलता यानि प्राइवेसी का पूरा सम्मान। तो बहिन रेणु को जब जनरल थिमैया का आटोग्राफ्ड फोटो पत्र आता है तो सभी की उत्सुकता का बढ़ना अवश्यमभावी था।"

सो सब को रेणु ने अपनी उपलब्धता गर्व के साथ दिखाई। वही दूसरी ओर एक चचेरी बहन जो सरो साजो सामान को टपकाने में सिद्धहस्त। विवाहोपरान्त भी  उसका जलवा जारी  रहा। पकड़े जाने पर भी ठसक के साथ कोई झेंप नही। स्वीकारने मे हिचक नही।

पिता की सहेलियां तो जैसी पूरी तरह से पिता के अंतरंग सम्बन्धो की पोल खोलते है। बड़ा दिलचस्प और मनोयोग से पढ़ा जाने योग्य किन्तु कुछ भी अश्लील नही। साफगोई से लिखती  है और स्वीकार करती हैं कि पिता के इन के साथ अंतरंग संसर्ग के सम्बन्ध अवश्य होंगे। मां ने तो जैसे स्वयं छूट दे रखी हो।

सास के घर की  भी बात करती है किन्तु स्वयं के लिये भी स्वीकार करती है कि मैं ऐसी बहू न थी जो चूल्हा चौका मे  जूझ रही होती। दिलचस्प किस्सा कहती हैं कि बनारस जाने के लिये रेल की टिकट ली, किन्तु जाते समय पति और देवर तो आगे निकल कर ट्रेन में बैठ जाते है किन्तु वृद्ध सास और ससुर के साथ चलते हुये,वे देरी से पहुंचते है और ट्रेन छूट जाती है, और फिर घर वापस। वापसी मे ससुर  जी ने रास्ते में नारियल नीरा पिलाने का प्रस्ताव रखा।  और पीने के पश्चात पता  चला कि नीरा तो सुबह सुबह मिलती है दिन दुपहरी तो वह ताड़ी को रूप  ले ती है, सो वह सबने पी ली।

पिताजी ने खेतीहर को पूछा कि "नीरा ही थी न'!   "ना रउबा, ताड़ी बा"। डगमगाते घर पहुंच गये। तत्पश्चात पति आनन्द के साथ तो  उन्होने जैसे पूरे बिहार को नाप डाला। पति आनन्द का भी दर्शनशास्त्र बड़ा उच्चकोटि का था । यानि पैसा खर्च हो जाने, या डूब जाने के बाद, वे  डूबा न बता कर, देर से वापसी की दलील दे डालते।

बस एक ऐसा दौर से भी वे गुजरी, जब राजस्थान से उनके पुत्र व पुत्रवधू दिल्ली लौटते हुए सड़क हादसे के शिकार हो जाते हैं और दोनो को मौत अपने आगोश मे समा लेती है। तब कही बनारस मे किसी के पास रहते अपने नए उपन्यास " कठगुलाब"      लिख रही थी। बस वही से उनकी बदहवासी सी शुरू हो गयी और कही भी अन्यत्र जाना और लिखना जैसे सब बन्द हो गया। इस उपन्यास बाद मे अकादमी पुरस्कार प्राप्त हुआ।

मंजुल भगत, बड़ी बहन की आत्मीयता हो या कृष्णा सोबती के साथ खट्टा मीठा सम्बन्ध। मनोहर श्याम जोशी हो या हंस के सम्पादक राजेन्द्र यादव। सभी के साथ का सोहार्द व अनुभव।

कुछ विदेशी लेखिकाएं और मित्र, व अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलनों के चटपटे किस्से।वहीं कुछ थोड़ी खिचाई बल्ब वाले सरदार जी यानि खुशवन्त सिहं की भी।

गगन के साथ गुवाहाटी के सम्मेलन के उपरान्त गंगटोक तक की यात्रा अविस्मरणीय सी है वहां पर वे दोनो महिलाएं मस्त हो स्वछन्द बन गयी। वे बताती है कि गगन टैक्सी वाले से पूछती है,कि बांस के डंडे से सुड़कने वाली शराब कहां पर मिलती है। है न दिलचस्प।

बस किस्से कहानियां तो यत्र तत्र भरी पड़ी हैं। साफगोई से लिखी है। पचहतर साल की महिला आज भी ऊर्जावान लगती है। बस लिखते हुए ऐसा मालूम पड़ रहा है कि कल की ही बात लिख रही है।

हां एक बात जो मुझे अखरी है वह है किताब मे प्रयुक्त भारी भरकम उर्दू शब्दावली। कई शब्दो को समझने पंक्तियां पुनः पढ़नी पड़ती। 

कुछ भी हो पुस्तक के वृत्तांत जीवन्त है। पढ़ें  जरूर।
















सोमवार, 6 अप्रैल 2020

कोरोना और मनुष्य




आज पूरी दुनिया पिछले एक महीने से कोरोना वायरस के आक्रमण के कारण बन्दी करण के तहत
थम सी गयी है। सब कुछ अप्रत्याशित सा लग रहा है। यह वायरस चीन से चलकर,महासागरो को पार करता हुआ, मजबूत सीमाओ को तोड़ता हुआ,बेहद शक्तिशाली सिहांसनो को डोलता हुआ,दुनिया को अपने अधिकार क्षेत्र मे करता जा रहा है। जब विज्ञान और विकास के चरमोत्कर्ष,का अनुभव मनुष्य कर रहा था तब इस वाय रस ने उसे बेबस और लाचार कर दिया है।

मनुष्य हमेशा से महत्वाकांक्षी रहा है। प्रकृति का दमन पूरे अधिकार से किया। इन्ही गतिविधियो के कारण यह कहा जाता है कि कुछ समय बाद समुद्रो के जल स्तर मे बढ़ोतरी हो सकती है। कई ग्लेशियर पिघलने के कगार पर है। नदियो मे औद्योगिक कचरा डालने से उनके प्रवाह व जल की गुणवता पर विपरीत प्रभाव पडा है। वनस्पति , जंगलो का अनावश्यक कटान, वनचरो का बध,के कारण अनेक प्रजातियॉ या तो विलुप्त हो गयी है या फिर विलुप्ति के कगार पर खड़ी है। हिमालय व आल्पस की ऊची श्रृंखलाओं तथा महासागरो को भी प्रदूषित करने से नही छोड़ा। ऐसा भी नही है कि विज्ञान को ऐसे खतरो का आभास नही है, किन्तु मनुष्य की विजयी होड़ उसे उकसाती रहती है।

आज लगभग भारत समेत विश्व के अधिकॉश देश बन्दीग्रसत( लाकडाउन ) हैं। एकाएक सारी हलचल सिमट सी गयी है। सारे बाजार, औद्योगिक कल कारखाने, पर्यटन यातायात सब कुछ थम सा गया है। सड़कें वीरान सी हो गयी है।समुद्री तट भी वीरान हो चुके है।  लोग सिर्फ अपनी देहलीज पर सिमट गये है।  इस वीरानगी मे कुछ सकारात्मकता भी प्रतीत होती है। बड़े बड़े महानगरो का वायु प्रदूषण,  कल कारखानो एवं गाड़ियो से निकलने वाली जहरीली गैसे कम होने लगी है। इतना ही नही गंगा नदी के जल प्रदूषण मे कमी पायी गयी ।  कारण साफ है कि मानव का इन कुछ दिनो से हस्तक्षेप कम हुआ है। पर्यटको की दखलन्दाजी से समुद्री तटो का प्रदूषण मे भी कमी आंकी जा रही है। इन कमियो को दूर करने के लिये सरकारे तमाम माथापच्ची करते है किन्तु कुछ भी लाभ नही होता है। है न विचित्र बात! और कई टन कार्बन उत्सर्जन अचानक कम हो गया है। इस प्रकारन्तर मे समूचे विश्व को प्रकृति  के साथ न्याय करने का अवसर भी मिल गया है।
स्वास्थ्य के लिये हवा साफ चाहिये,कोरोना भी फेफड़ों पर आक्रमण करता है,इसलिए ठीक होने के लिए साफ हवा की भी आवश्यकता होगी ।  निश्चित है मरीजो के उपचार मे ये लाभदायक होगा। आशा ही नही  विश्वास भी है कि मनुष्य  पुन्: विजयी होगा। किन्तु कुछ प्रश्न चिन्हो के साथ।

इसी सन्दर्भ मे आज एक सुखद समाचार भी देखने को मिला। बताया जा रहा है कि फिलीपीन्स का समुद्रीतट जो पर्यटको से भरा रहता  था आजकल वीरान सा है।और इस वीरानगी मे समुद्री गुलाबी जेलफिश ने तट पर अपना डेरा डाल दिया है। स्पष्ट है कि मानवीय व्यवधानो के कारण ये भी अपनी रक्षा के लिए समुद्र के निचले तल पर जाने के लिये मजबूर है। जबकि आज वे स्वयं सूर्य दर्शन के लिये बाहर निकली है।

और ऐसा भी नही है कि मनुष्य को प्रकृति ने कभी चेतावनी न दी हो किन्तु वह समझने को तैयार ही नही। सागरो मे उठती सुनामी, नदियो मे आती प्रलयंकारी बाढे ये सब उसकी वे आवाजे थी जिन पर कभी मानवीय विवेचना हुयी ही नही। वह तो स्वयं के ही बचाव के रास्ते ढूंढता रहा है। यह परजीवी कोराना भी मानवीय भूलो के रूप मे उत्पन्न हुआ है और जिसकी भारी कीमत चुकानी पड़ रही है।

निश्चित बात तो यह है कि मनुष्य इस आपदा पर विजयी होगा, किन्तु  फिलहाल यह क्षुद्र जीव ही भारी पड़ रहा है। और यह भी सीख दे रहा है कि प्रकृति की अवहेलना कितनी भारी पड़ती है। बताया जा  रहा है कि चीनऔर वियतनाम ने तो अब कीड़े मकोडे वन्य पशुओ को खाने पर प्रतिबन्ध लगाना प्रारम्भ कर दिया है। जो कि इस वायरस की उत्पति का मुख्य कारण माना जा रहा है।




5/4/2020

गुरुवार, 23 फ़रवरी 2017

व्यापार और रोजगार की नयी विधाये

डिजिटल युग मे ONLINE SHOPPING और व्यापार की असीमित संम्भावनाये हैं कुछ प्रयोग कर  देखे।

सोमवार, 9 मई 2016

गंगाजी का जन्मदिन- अक्षय तृतीया।




वैशाख शुक्ल पक्ष  की तृतीया को अक्षय तृतीया  का त्योहार भारत मे बड़ी श्रद्धा से मनाया जाता है। प्रायः इस दिन पर लोग स्वर्ण व चांदी के धातुओं को व इन से निर्मित आभूषण खऱीद कर मनाते हैं। इस तिथि को अबूझ मुहूर्त या चिरंजीवी तिथि भी कहते हैं। इसी दिन भगवान विष्णु के छठे अवतार परशुराम जी का जन्म हुआ था और गणेश जी ने व्यास जी के साथ महाभारत लिखना प्रारम्भ किया। इस दिन लोग व्रत और गंगा स्नान कर,  पुण्य अर्जित करते हैं।


अनेक कहानियॉ प्रचलित है। आज ही के दिन,भारतवर्ष को जीवन प्रदान करने वाली पापनाशिनी पुण्य सलिला गंगां का जन्म भी पर्वत राज हिमालय के घऱ,मेनका के  गर्भ से ज्येष्ठ पुत्री के रूप मे हुआ।
               तृतीया नाम वैशाखे शुक्ला नाम्नाक्षया तिथिः।
               हिमालय गृहे यत्र गंगा जाता चतुर्भुजा ।।
               वैशाखे मासिशुक्लायां तृतीयायां दिनार्धके।
               बभूव देवी सा गंगा शुक्ला सत्युगाकृतिः।।
                                           वृहद्धर्मपुराण।

सती के देह त्याग के पश्चात् देवताओ ने महेश्वरी की स्तुति कर पुनः महादेव के वरण की प्रार्थना की,तभी वह स्वयं कीं इच्छानुकूल हिमालय के घर ज्येष्ठ पुत्री गंगा के रूप में प्रकट हुयी। तदन्नतर वे देवताओ के अनुरोध पर शिव के साथ कैलाश धाम चली गयी। ब्रहमा के अनरोध पर अन्तर्धानांश से अर्थात् निराकार रूप मे कमण्डलु में स्थित हो गयी।तत्पश्चात भगवान शंकर गंगा जी को लेकर वैकुण्ठ में गये। वहां विष्णु के आग्रह पर महादेव रागिनी गाने लगे,तो भावविभोर होकर विष्णु स्वयं  रसमय होकर द्रवीभूत हो गये, उसी समय ब्रहमा जी ने उस द्रव को अपने कमण्डलु से स्पर्श कराया,स्पर्श होते ही गंगा जी स्वयं निराकारा  से  नीराकार अर्थात् जलमय हो गयी।
 
दीर्घावधि तक गंगा जी कमण्डलु मे ही अवस्थित रही। तब भगवान विष्णु ने वामन अवतार धारण कियाऔर शुक्राचार्य के व्यवधान के पश्चात् भी राजा बलि वामन भगवान को तीन पग जमीन प्रदान करते है। जैसे ही श्री विष्णु एक पग मे धरती और दूसरे मे वैकुण्ठ धाम नाप देते


है, उसी समय ब्रहमां जी भगवान विष्णु के पैर को कमण्डलु के जल से प्रक्षालित कर देते हैं, और इस प्रकार वह जल पूर्ण रूप से ब्रहमद्रव मे परिवर्तित हो गया।

देवी भागवत के अनुसार लक्ष्मी, सरस्वती व गंगा, तीनो ही भगवान विष्णु की पत्नियां हैं। किन्तु तीनो में सदैव ईर्ष्यां के कारण कलह व्याप्त रहता था।  एक बार सऱस्वती और गंगा के झगड़े के दौरान लक्ष्मी ने गंगा का बचाव किया और सरस्वती को झगड़ा खत्म करने को कहा, परन्तु सरस्वती ने लक्ष्मी को ही शाप दे डाला कि तुम मृत्यु लोक मे जाकर वृक्ष एवं नदी स्वरूपा हो जाओ तथा गंगा को भी मृत्युलोक मे नदी रूप मे परिवर्तित होकर वहां के पाप धोने का शाप दिया। तब गंगा ने भी सरस्वती को शापित कर नदी रूप मे मृत्यु लोक जाने का कहा। 

तदनन्तर विष्णु जी ने तीनो को पास  बुलाया  और कहा लक्ष्मी तुम अपनी कला से पृथ्वी पर जाओ। वहां राजा धर्मध्वज के यहां जाकर स्वयं प्रकट हो जाना। कुछ समय बाद भारतकी पुण्य भूमि मे त्रैलोकपावनी तुलसी के रूप मे तुम्हारी ख्याति होगी, परंतु अभी तुम सरस्वती के शाप से आर्यधरा पर पद्मावती सरिता बन कर जाओ।

गंगे ! तुम्हे सरस्वती का शाप पूर्ण करने के लिये  अपने अँश से पापनाशनी पवित्र सरिता बन कर भारतवर्ष में, राजा भगीरथ के तप और अनुरोध पर जाना पड़ेगा। वहॉ धरातल पर तुम भगीरथी के नाम से प्रख्यात होगी,तथा मेरे अंश से समुद्र की पत्नी होना स्वीकार कर लेना।

“भारती!”प्रभु ने सरस्वती से कहा। तुम गंगा के शाप निहित अपनी एक कला से आर्यभूमि पर जाओ तथा पूर्ण अंश से ब्रहम सदन जाकर उनकी कामिनी बन जाओ,और गंगा अपने पूर्ण अंश से शिव के यहां जाये।  तथा लक्ष्मी को पूर्ण अंश से स्वयं के पास रहने का निर्देश दिया।
इस प्रकार इनके शाप भी भारतवर्ष के लिये वरदान साबित हुये। किन्तु लक्ष्मी के अनुरोध पर भगवान विष्णु बताते है कि कलिके पांच सहस्र वर्ष व्यतीत होने पर तुम  सरिता स्वरूपणी तीनो का उद्धार हो जायेगा और पुनःवैकुण्ठ वापस आ जाओगी।

मंगलवार, 19 जनवरी 2016

मेरा नया बचपन / सुभद्राकुमारी चौहान

शायद सभी को अपना बचपन कुछ इस तरह याद आये!!!

मेरा नया बचपन / सुभद्राकुमारी चौहान


बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी।
गया ले गया तू जीवन की सबसे मस्त खुशी मेरी॥

चिंता-रहित खेलना-खाना वह फिरना निर्भय स्वच्छंद।
कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुलित आनंद?

ऊँच-नीच का ज्ञान नहीं था छुआछूत किसने जानी?
बनी हुई थी वहाँ झोंपड़ी और चीथड़ों में रानी॥

किये दूध के कुल्ले मैंने चूस अँगूठा सुधा पिया।
किलकारी किल्लोल मचाकर सूना घर आबाद किया॥

रोना और मचल जाना भी क्या आनंद दिखाते थे।
बड़े-बड़े मोती-से आँसू जयमाला पहनाते थे॥

मैं रोई, माँ काम छोड़कर आईं, मुझको उठा लिया।
झाड़-पोंछ कर चूम-चूम कर गीले गालों को सुखा दिया॥

दादा ने चंदा दिखलाया नेत्र नीर-युत दमक उठे।
धुली हुई मुस्कान देख कर सबके चेहरे चमक उठे॥

वह सुख का साम्राज्य छोड़कर मैं मतवाली बड़ी हुई।
लुटी हुई, कुछ ठगी हुई-सी दौड़ द्वार पर खड़ी हुई॥

लाजभरी आँखें थीं मेरी मन में उमँग रँगीली थी।
तान रसीली थी कानों में चंचल छैल छबीली थी॥

दिल में एक चुभन-सी थी यह दुनिया अलबेली थी।
मन में एक पहेली थी मैं सब के बीच अकेली थी॥

मिला, खोजती थी जिसको हे बचपन! ठगा दिया तूने।
अरे! जवानी के फंदे में मुझको फँसा दिया तूने॥

सब गलियाँ उसकी भी देखीं उसकी खुशियाँ न्यारी हैं।
प्यारी, प्रीतम की रँग-रलियों की स्मृतियाँ भी प्यारी हैं॥

माना मैंने युवा-काल का जीवन खूब निराला है।
आकांक्षा, पुरुषार्थ, ज्ञान का उदय मोहनेवाला है॥

किंतु यहाँ झंझट है भारी युद्ध-क्षेत्र संसार बना।
चिंता के चक्कर में पड़कर जीवन भी है भार बना॥

आ जा बचपन! एक बार फिर दे दे अपनी निर्मल शांति।
व्याकुल व्यथा मिटानेवाली वह अपनी प्राकृत विश्रांति॥

वह भोली-सी मधुर सरलता वह प्यारा जीवन निष्पाप।
क्या आकर फिर मिटा सकेगा तू मेरे मन का संताप?

मैं बचपन को बुला रही थी बोल उठी बिटिया मेरी।
नंदन वन-सी फूल उठी यह छोटी-सी कुटिया मेरी॥

'माँ ओ' कहकर बुला रही थी मिट्टी खाकर आयी थी।
कुछ मुँह में कुछ लिये हाथ में मुझे खिलाने लायी थी॥

पुलक रहे थे अंग, दृगों में कौतुहल था छलक रहा।
मुँह पर थी आह्लाद-लालिमा विजय-गर्व था झलक रहा॥

मैंने पूछा 'यह क्या लायी?' बोल उठी वह 'माँ, काओ'।
हुआ प्रफुल्लित हृदय खुशी से मैंने कहा - 'तुम्हीं खाओ'॥

पाया मैंने बचपन फिर से बचपन बेटी बन आया।
उसकी मंजुल मूर्ति देखकर मुझ में नवजीवन आया॥

मैं भी उसके साथ खेलती खाती हूँ, तुतलाती हूँ।
मिलकर उसके साथ स्वयं मैं भी बच्ची बन जाती हूँ॥

जिसे खोजती थी बरसों से अब जाकर उसको पाया।
भाग गया था मुझे छोड़कर वह बचपन फिर से आया॥

कविता कोश के सौजन्य से-

सोमवार, 24 नवंबर 2014

बदलती कार्य प्रणाली, और आर्थिकी के नये साधन!!

हम छोटे थे तो कलम और दवात के साथ लिखना पढ़ना होता था। 1985 में जब नौकरी शुरु
 की तो पहली बार कम्प्यूटर देखा। सारे काम तो हाथ से ही होते थे किन्तु डाटा संग्रह कर कम्प्यूटर विभाग को दे दिया जाता था। धीरे धीरे अकांउटस्  की मोटी मोटी किताबें लिखनी आसान हो गयी। हिसाब किताब में भी गुणवत्ता के साथ साथ कार्य की गतिशीलता भी बढ़ने लगी। कम्पनी ने 1987 मे नये कम्प्यूटर मंगाये, हर विभाग में एक कम्प्यूटर लगा दिया गया। इससे कार्य क्षमता अत्यधिक बढ़ गयी। किन्तु तब आइ.टी की शिक्षा के साधन ना के बराबर थे। कभी शैक्षिक होने का प्रयास भी नही किया और आज की स्थिति का एहसास भी नही हुआ।

1990 के बाद इस कार्य प्रणाली में तेजी से बदलाव  आने लगे। तत्पश्चात् एक के बाद एक संस्थान कम्प्यूटर की शिक्षा देने के लिये प्रस्तुत हो गये। स्कूलों में भी प्राथमिकी से ही प्रोद्योगिकी पढ़ाई जाने लगी। इस क्षेत्र में नौकरियों की बाढ़ आ गयी। धनार्जन के लिए उत्तम शिक्षा सिद्ध हुयी। इस क्षेत्र के अभियन्ताओ ने कार्य की प्रणालियां ही बदल डाली।  नये नये साफ्टवेयर, एवं नयी नयी प्रजातियां कम्प्यूटर की आने लगी। तत्पश्चात् मोबाइल क्रान्ति ने तो और भी आसान कर दिया। सोशल साइटस् के कारण पूरा विश्व एक गाॉव में समा गया।कार्य संस्कृति के सभी मानक बदलने लगे। लोगों ने इसे सहर्ष स्वीकार भी किया।

समय चक्र चलता रहा और परिवर्तन तेजी से ग्राह्य होता रहा। नयी तकनीके स्वीकार करने में किसी प्रकार की कोई  परेशानी नही हुयी। पहले कुछ ही लोग टाइपिंग का काम जानते थे, किन्तु आज बच्चे से बृद्ध तक कम्प्यूटर पर टाइप आसानी से कर रहे हैं।

नौकरी के लिये सबसे उत्तम एवं सरल माध्यम बन गया। स्वरोजगार के अवसर भी बढ़ने लगे। धीरे धीरे विश्व में  सम्पन्नता और स्वावलम्बन का आवरण छाने लगा। नित नयी तकनीक का विकास होने लगा। कई कम्पनियां तो "घर से कार्य"  की संस्कृति को भी विकसित करने लगे। इतना ही नही इन्टरनेट के माध्यम से  लोग घर को ही कार्य क्षेत्र में बदलने मे सफल हो गये।

यह एक  संक्रमण काल है,अब तक घर से निकल कर कार्य करने की पद्धति रही, किन्तु अब आॉन लाइन की कार्य पद्धति के विकसित होने से,घर से ही कार्य सम्पन्न होने लगे हैं । कुछ समय बाद यह भी सम्भव हो जायेगा कि सारे काम घर बैठे बैठे निपटा लिये जायेगे। अभी अॉनलाइन शापिंग, नेट बैंकिंग, ई- टिकट, बिलो का भुगतान आदि कई काम, तकनीक का ही परिणाम है, जब भी आवश्यक हुआ कार्य आसानी से, कहीं से भी, सम्पन्न कर लिया जाता है।

अमेरिका मे इस समय कई कम्पनियों ने जन्म ले लिया है, जिन पर काम कर, धनोपार्जन किया जा रहा है।
कई विज्ञापन कम्पनियां भी इसमे शामिल हैं। य़दि फेसबुक, ट्वीटर इन्सटाग्राम  आदि पर विचरण से पता चलता है, कि वहां पर अॉनलाइन काम करना, एक अॉदोलन बन चुका है।


इसी तरह पिछले वर्ष जन्मी एक कम्पनी DS DOMINATION  ने अॉनलाइन की संस्कृति को बढ़ा कर, अपनी ट्रेनिंग और वेबिनार के माॉध्यम से हजारो लोगों को जोड़ लिया है। इतना ही नही, उन्होंने इबे(eBay) और अमेजन(Amazon) के साथ लगभग 800 मिलियन डालर का व्यापार किया है।

यह संस्कृति भविष्य में कितनी सफल होगी. यह तो मैं नही जानता। किन्तु आज एक आवश्कता बनती हुयी दृष्टि गोचर हो रही है। समय के साथ कदम ताल करने वाले हमेशा सफल होते हैं। बढते हुये कदम के लिये रास्ता यहॉ से जाता है। 
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