साहित्य की दुनिया मे एक नाम है मृदुला गर्ग। नाम तो सुना था शायद कहीं अखबारो मे पढ़ा भी था, किन्तु उनकी किताबों से पूरी तरह अनजान। नौकरी की भागदौड़ में तो किताबें कोसों दूर हो गयी थी। लगभग पढ़ना तो जैसे दूभर हो चुका था। हां अखबार की निरन्तरता सदा बनी रही। समाचार पत्रों के माध्यम से ही लेखको का परिचय होता रहा।
इस बार भी कुछ ऐसा ही हुआ। 'हिन्दुस्तान' हिन्दी में नयी पुस्तको की समीक्षाएं छपती रहती है। जिससे पता चलता रहता है कि नयी किताब कौन सी आयी है। बस एक दिन मृदुला गर्ग की नयी नवेली किताब " वे नायाब औरतें" की संक्षिप्त समीक्षा छपी थी, पढ़ने पर थोड़ी उत्सुकता जगी और किताब सीधे प्रकाशक से मंगा डाली। अमेजन व अन्य प्लेट फार्म पर उपलब्ध न थी। पुस्तक आने में लगभग एक सप्ताह का वक्त लग गया। पहले तो ऐसा लगा कि प्रकाशक आर्डर पर तो नही छाप रहा! किन्तु आखिर पुस्तक आ ही गयी।
पुस्तक को मृदुला ने अपने यादों, संस्मरणों व यात्रा वृत्तान्तों के गुलदस्ते से सजाया है।चटपटे किस्से और कहानियों के संग, दोस्तो, सहेलियों, और बहिनों के बीच के जीवन्त वृत्तान्त, पुस्तक सदानीरा नदियों की तरह सरपट भागती है, बस आगे क्या! ये उत्सुकता बनी रहती है।
"घर का एक अघोषित नियम था कि कोई भी किसी का पत्र नही खोलता यानि प्राइवेसी का पूरा सम्मान। तो बहिन रेणु को जब जनरल थिमैया का आटोग्राफ्ड फोटो पत्र आता है तो सभी की उत्सुकता का बढ़ना अवश्यमभावी था।"
सो सब को रेणु ने अपनी उपलब्धता गर्व के साथ दिखाई। वही दूसरी ओर एक चचेरी बहन जो सरो साजो सामान को टपकाने में सिद्धहस्त। विवाहोपरान्त भी उसका जलवा जारी रहा। पकड़े जाने पर भी ठसक के साथ कोई झेंप नही। स्वीकारने मे हिचक नही।
पिता की सहेलियां तो जैसी पूरी तरह से पिता के अंतरंग सम्बन्धो की पोल खोलते है। बड़ा दिलचस्प और मनोयोग से पढ़ा जाने योग्य किन्तु कुछ भी अश्लील नही। साफगोई से लिखती है और स्वीकार करती हैं कि पिता के इन के साथ अंतरंग संसर्ग के सम्बन्ध अवश्य होंगे। मां ने तो जैसे स्वयं छूट दे रखी हो।
सास के घर की भी बात करती है किन्तु स्वयं के लिये भी स्वीकार करती है कि मैं ऐसी बहू न थी जो चूल्हा चौका मे जूझ रही होती। दिलचस्प किस्सा कहती हैं कि बनारस जाने के लिये रेल की टिकट ली, किन्तु जाते समय पति और देवर तो आगे निकल कर ट्रेन में बैठ जाते है किन्तु वृद्ध सास और ससुर के साथ चलते हुये,वे देरी से पहुंचते है और ट्रेन छूट जाती है, और फिर घर वापस। वापसी मे ससुर जी ने रास्ते में नारियल नीरा पिलाने का प्रस्ताव रखा। और पीने के पश्चात पता चला कि नीरा तो सुबह सुबह मिलती है दिन दुपहरी तो वह ताड़ी को रूप ले ती है, सो वह सबने पी ली।
पिताजी ने खेतीहर को पूछा कि "नीरा ही थी न'! "ना रउबा, ताड़ी बा"। डगमगाते घर पहुंच गये। तत्पश्चात पति आनन्द के साथ तो उन्होने जैसे पूरे बिहार को नाप डाला। पति आनन्द का भी दर्शनशास्त्र बड़ा उच्चकोटि का था । यानि पैसा खर्च हो जाने, या डूब जाने के बाद, वे डूबा न बता कर, देर से वापसी की दलील दे डालते।
बस एक ऐसा दौर से भी वे गुजरी, जब राजस्थान से उनके पुत्र व पुत्रवधू दिल्ली लौटते हुए सड़क हादसे के शिकार हो जाते हैं और दोनो को मौत अपने आगोश मे समा लेती है। तब कही बनारस मे किसी के पास रहते अपने नए उपन्यास " कठगुलाब" लिख रही थी। बस वही से उनकी बदहवासी सी शुरू हो गयी और कही भी अन्यत्र जाना और लिखना जैसे सब बन्द हो गया। इस उपन्यास बाद मे अकादमी पुरस्कार प्राप्त हुआ।
मंजुल भगत, बड़ी बहन की आत्मीयता हो या कृष्णा सोबती के साथ खट्टा मीठा सम्बन्ध। मनोहर श्याम जोशी हो या हंस के सम्पादक राजेन्द्र यादव। सभी के साथ का सोहार्द व अनुभव।
कुछ विदेशी लेखिकाएं और मित्र, व अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलनों के चटपटे किस्से।वहीं कुछ थोड़ी खिचाई बल्ब वाले सरदार जी यानि खुशवन्त सिहं की भी।
गगन के साथ गुवाहाटी के सम्मेलन के उपरान्त गंगटोक तक की यात्रा अविस्मरणीय सी है वहां पर वे दोनो महिलाएं मस्त हो स्वछन्द बन गयी। वे बताती है कि गगन टैक्सी वाले से पूछती है,कि बांस के डंडे से सुड़कने वाली शराब कहां पर मिलती है। है न दिलचस्प।
बस किस्से कहानियां तो यत्र तत्र भरी पड़ी हैं। साफगोई से लिखी है। पचहतर साल की महिला आज भी ऊर्जावान लगती है। बस लिखते हुए ऐसा मालूम पड़ रहा है कि कल की ही बात लिख रही है।
हां एक बात जो मुझे अखरी है वह है किताब मे प्रयुक्त भारी भरकम उर्दू शब्दावली। कई शब्दो को समझने पंक्तियां पुनः पढ़नी पड़ती।
कुछ भी हो पुस्तक के वृत्तांत जीवन्त है। पढ़ें जरूर।