गुरुवार, 23 फ़रवरी 2012

हमारी परम्पराएं और बदलता स्वरुप


भावभीनी  विदाई







 .



संसार   परिवर्तन   शील  है, यह उक्ति कितनी सार्थक है कि जीवन पर्यंत कई परिवर्तन देखने को मिलते  हैं. पीढ़ी दर पीढ़ी नई रीतियाँ , परम्पराएं, पनपती  है  और बदलती रहती हैं. मान्यतायें  जन्म लेती है. बचपन , युवावस्था तदोपरांत का जीवन  और मर्यादाएं  कई कुछ सिखाती हैं. सीखते हुए  बहुत कुछ भूल भी जाते हैं
 विकास  की  गति  के  साथ  समाज  और   दुनिया  की  दूरियां सिमटती रही, और नजदीकियों  की सौगात     से   हम लाभान्वित होते रहे. किन्तु कभी कभी इन्ही नजदीकियों के कारण, दूरियां भी इतनी बढ़ी की पता ही नहीं चलता कि आप   बिछुड़न के पश्चात कितने दूर पहुच गए. रिश्ते केवल औपचारिक रह गए .

परन्तु  परम्पराओं  का जो स्वरुप  और मान्यता, प्राचीन थी, अद्द्यतन कहीं न कही किसी रूप में आज भी जीवित हैं, चाहे औपचारिकता ही क्यों न हो. ऐसा प्रतीत होता है कि उसका केवल स्वरुप बदला, भावनात्मक  और मूल भाव में परिवर्तन अपरिहार्य  लगता है.

यात्राओं के दौरान  हम कई बड़े बड़े बोर्ड  लगे हुए देखते हैं किन्तु शायद ही उनकी वास्तविक स्थिति पर कोई गौर करता हो.  इस बार दिल्ली से देहरादून जाते हुए मेरठ वाई पास पर एक बोर्ड पर नजर पड़ी जिस पर नगर निगम ने लिखा था " मेरठ में पधारने पर आपका धन्यवाद, आपकी यात्रा मंगलमय हो!" इसी तरह अनेकों  बोर्ड दिखाई देते हैं . और  अचानक मेरे दिमाग कुछ बातें कौधने लगी और इसी सोच विचार ने मुझे अतीत कि ओर मुड़ने के लिए विवश कर दिया . सन १९७५ के पूर्व की यादें ताजा होने लगी .

हम बहुत छोटे  थे, पहाड़ी दुर्गम गाँव,  और गाँव में  कोई प्रदेश से आता,  बड़ी खुशियों कि बौछार लाता. स्वागत में पूरा गाँव पलक पांवड़े बिछा डालता. कई मीलपैदल चल कर आते , अपने सामान को सुदूरवर्ती बस अड्डे पर छोड़ कर आते या वहीँ  से मजदूर की मदद से, साथ साथ लेकर आते. परन्तु जब उनकी छुटियाँ समाप्त होती तो वे लोग दुकानों से कुछ सिक्के, एक, दो एवं पांच रूपये के नोट विनिमय कर इकठे कर लेते. घर से  विदाई के समय बच्चे और वृद्ध  तो प्रायः नजदीक से  ही विदा ले लेते हैं . किन्तु जवान  लोग उन्हें विदा करने ५ से दस मील तक विदा करने जाते.और गंतुक उन्हें यथानुसार छोटे बड़े को कुछ रुपये -पैसे देते. विदा देने वाले लोग अपने को अनुकंपित मानते.  विदाई का दृश्य आत्म विह्वल और अश्रुपूरित होता. सभी उनकी यात्रा की मंगल कामना के साथ पुनः आगमन की आशा करते हैं, यह संयोग हमें पुनः प्राप्त हो.

संभवतः  आज इसी परम्परा का  निर्वहन हो तो रहा है, किन्तु औपचारिकता  तक, अर्थात घर की देहलीज, या फिर सोसायटी के मुख्य गेट तक  जाकर इतिश्री कर ली जाती है फिर भी भावनाएं उसी रूप में उपस्थिति प्रस्तुत करती हैं . वही से  व्यक्ति अपने गंतव्य की ओर  चल  पड़ता है. पहाड़ों में भी ये दूरी सिमट चुकी है, निकटतम  बस स्टैंड तक भी, तभी जाया जाता है जब गंतुक के पास कोई भारी सामान होता है . फिर भी कुछ हद तक परम्परा बनी हुई  है .  संभवतः सरकारी एजेंसिया जैसे म्युनुसिपल  कारपोरेशन, पी डब्लू  डी आदि संस्थाएं  भी, सांकेतिक रूप में , शहर के बाहर सीमा पर इस तरह के  बोर्ड स्थापित करते हैं, जिन पर आगंतुक व् गंतुक को,   धन्यवाद के साथ सुखद यात्रा की कामना  एवं पुनरागमन  की आशा व्यक्त की जाती है. सरकारी  और राजनैतिक  परिदृश्य भी यही दर्शाता है .जैसे किसी विदेशी राष्ट्राध्यक्ष  के आगमन और गमन पर भी यह  रस्म निभाई जाती है नजदीकी  हवाई अड्डे तक.
इसी तरह कई अन्य परम्परायें  अपना स्वरूप बदल चुकी हैं अपितु निर्वहन उसी मूल उद्देश्य एवं भाव से गतिमान है. सोलह संस्कार जो भारतीय परम्परा के अभिन्न अंग हैं उनके स्वरूप भी बदल चुके हैं चाहे  शादी, मुंडन, नामकरण या अंतिम संस्कार हो, सभी क्रियाओं में विकास की गति की मार पड़ी है  समय का अकाल सभी को लील रहा है निर्वहन तो जारी है किन्तु औपचारिकता के साथ. सभी संस्कार  और क्रियाएँ  संकुचित हो चली हैं. पहाड़   से लेकर मैदानी परिवेश  तक  कोई भी अछूता नहीं रहा.

यद्यपि तकनीकी और विकास  कारणों  से व्यक्ति घर से सुदूरवर्ती बस गए, अपितु  संचार माध्यम के कारण कुछ  निकटता बनी हुई है   परन्तु हृदय की पुकार में  केवल औपचारिकता बनी हुई है.

 चित्र गूगल से साभार

मंगलवार, 14 फ़रवरी 2012

भारत और वालेनटाइन डे -अनुकरण या अन्धानुकरण !

चित्र  गूगल  से  साभार
आज वालेन  टाइन  डे  है . सभी, युवक -युवती, मित्र प्रेमियों, जो इस दिन को मना रहे हैं या नहीं मना रहे हैं, को हार्दिक शुभकामनाएं.
यह भारत में आयातित  दिवस है. और इस दिवस की परिचर्चा में सारा भारत अंतर्विरोधी भाषाओँ में लगभग एक महीने से लगा हुआ है. मानने वाले तैयारियों में जुट जाते हैं और न मनाने वाले विरोध की अग्नि सुलगाने में शुरू हो जाते हैं. मैं इसका इतिहास नहीं जानता, किन्तु कहते है, कि कोई अंग्रेज वलेन टाइन  नाम का संत था प्रेम का पुजारी था या कामदेव का अवतार .उन्ही के नाम पर यह  दिवस मनाने की रीत चली आ रही है. भारत में तो कुछ ही वर्षों से ही प्रचलित हुआ, किन्तु इसका असर इतना हुआ जैसे १०४ डिग्री  का बुखार चढ़ा हो.

संयोग की बात है  कि भारत में वसंत पंचमी, जहाँ से वसंत ऋतू की शुरुवात हो जाती है, इसी ऋतू में वनस्पतियों में भी नव जीवन जाग उठता है, सभी फूलों की बगियाँ खिल उठती हैं  खुशबू  चहुँ ओर स्पंदित होती हैं हरियाली से भरी धरती भारत ही नहीं पूरे विश्व में सुंदर लगने लगती है, जैसे किसी दुल्हन को सजा दिया हो, और वलेन टाइन  डे भी आसपास ही मंडराता है . और  हम भी इसी के आस पास मंडराते रहते हैं.

मान्यता है कि कामदेव भी इसी ऋतू के राजा हैं और कामदेव को प्रेम का देव भी कहा जाता है यहीं से कामदेव के बाणों की बौछार से,  युवक युवतियों में प्रेम का संचार होने लगता है, यही एक ऐसा मौसम है जब लोगों का प्रेम फलता फूलता  और अपने चरम उपभोग तक प्राप्त होता है. किन्तु हम भारतीय वसंत पंचमी को  अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक नहीं पंहुचा  सके. प्रचारित करना तो दूर की बात कई वालेन टाइन डे मनाने वाले   लोगो को तो मालूम ही नहीं होता है कि वसंत पंचमी कब आयी और कब चली गयी. ऋतू राज कि आहट से दूर  रहते हैं

हम लोग पश्चिम अनुगामी   होते जा रहे हैं ये मान कर चलते हैं कि पश्चिम की   हर बात अच्छी  है हर सिद्धांत का जन्मदाता पश्चिम है,  और अपने रीती रिवाजों की उपेक्षा करते जा रहे  हैं . मैं इस दिन को मनाने के  विरोध में तो नहीं हूँ, किन्तु इसकी कीमत पर भारतीयता के लोप का  खतरा उठाने के पक्ष में भी  नहीं हूँ.

आज बाज़ारों में  रौनक बनी हुई है बड़े बड़े, गुलाब की पंखड़ियों से बने दिल्नुमा आकृतियाँ सजी पड़ी हैं न जाने कौन खरीदेंगे . किसीने इनमे बीच में शीशा लगा दिया तो किसी पर मोतियों की माला जैसी सजा दी. इन्हें देख कर तो लगता है समूचा विश्व ही भारत से दिल्नुमा फूल खरीदेगा . इसके साथ वे सभी स्थान , जहाँ कभी कौए बोलते हैं, वे भी युगलों के स्वागत के लिए गुलजार हो जाते हैं .

जब भी कोई नई और  सुपाच्य  रीति, कहीं से भी, पूर्व , पश्चिम, या उत्तर, दक्षिण  से हो, अपना लेनी चाहिए, किन्तु उसकी कीमत पर अपनी रीति को स्वाहा नहीं कीजियेगा. अनुकरण और अन्धानुकरण में भेद रखना ही पड़ेगा.
क्या भारत में प्रेम के लिए मर मिटने वाले कम विभूतियाँ रही हैं? उनके जन्म दिवस को तो कोई नहीं मनाता, तो फिर १४ फ़रवरी  का अन्धानुकरण क्यों?  वैश्विक  विश्व में,आवश्यकता आज इस बात की है कि हम अपने तीज त्योहारों को भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रचारित और प्रसारित करें. ठीक उसी तरह जैसे सिर्फ पंजाब में मनाया जाने वाला कराचौथ, बिहार में मनाई जानी वाली छठ,  या गुजरात में मनाया  जाने वाला नृत्य- गरबा,  आज पूरे देश में मनाया जाने लगा है, इसी तरह हमारे त्योहारों को विदेशों में भी प्रसारित किया  जाना चाहिए.

गुरुवार, 2 फ़रवरी 2012

तुम मौन क्यों !


गूगल से साभार


भारत जननी के गौरव हे पर्वत राज !
हे शत युग-युग के इतिहास,
तुम देख रहे हो स्वयं काल काल का राज !                                                
क्यों रो नहीं उठते, मौन क्यों खड़े तुम आज! 
जब प्रवाहित थी गंगा में पावनता,
थी राजश्री पर सुशोभित मानवता,
सद्य  लुप्त हुए सब राष्ट्र देवता,
मानवता लुप्त हुई, अब जागृत है दानवता .


तब देश सौख्य शांति, सम्प्रदाय से  भरपूर,
परहित परसेवा था लक्ष्य सबका अटूट .
वृद्धि सिद्धि होती थी तब पूर्ण,
पर आज यह पथ हो गए  हैं, खंडित भग्न चूर्ण !
अये शत पुरुष! भारत संरक्षक !
बढ़ रहे अत्याचार तेरे अंक पर,
खोकर सब अपनी समृद्धि महान !
बसते है अब यहाँ राष्ट्र भक्षक, करते तेरा अपमान 

पीढितहै असह्य वेदना से भारत जननी का जनजन .
भ्रष्टाचार राजसत्ता को कर रहा नष्ट,
स्वार्थ यों ही लड़ कर बने हैं तप्त,
दूषित बह रहा इसका रक्त !
करो ध्वनित अपने श्रृंगों से वेणु या शंख !
पथ भूल रहे हैं ये सब सत्ता के रंक .

करो आज इन्हीं का पथ प्रदर्शन !
इस देश काल काया में करो फिर से परिवर्तन !
अरे हिमगिरि विराट ! देख रहा  तू यह नृत्य नग्न 
फिर भी समाधि लगाये  मग्न !
क्या तेरे हृदय में ज्वाला अब शेष नहीं ?
या तेरे नयनो में दृष्टि का समावेश नहीं ?

चलाओ प्रगति का तुम अप्रतिम  अभियान 
करो फिर, अपना शिरसा बलिदान .
राजनीति   से बनी समस्या जटिल महान,
अब खोजो ! तुम इसका हल निदान !

हिमालय ! पुनः सुना अपनी अमर कहानी 
युग इतिहासों में जो कभी थी भारत की समृद्धि की निशानी 
स्मृति दिलाओ  तुम! फिर जन्म ले जैसे चन्द्रगुप्त  महान !
या फिर स्वयं अवतार बनो तुम हरने को जनमानस - त्राहि -त्राण!
अब  तो प्रगति का  अभियान चलाना है 
तम्हें मौन नहीं प्रवक्ता बनना है !
हे मेरे हिमगिरि विराट!




प्रकाशित  "हिलांश" मुंबई से  मार्च १९८१  
इस कविता को १९७८-७९ के समय लिखा था तब जनता पार्टी की सरकार थी शाह आयोग बैठा था कुछ ऐसी ही स्थितियां थी तब भ्रष्टाचार की . यही पहली कविता थी जो किसी संपादक ने स्वीकार  की थी,  किन्तु प्रकाशित १९८१ में मुंबई से हुई थी यह मेरी पहली प्रकाशित  रचना है